Monday, February 28, 2011

-: साधन सूत्र-17 :-

-: साधन सूत्र-17 :-

सहज-सुन्दर जीवन के सूत्र



1. उस सुख का त्याग कर दो जो किसी का दु:ख हो।

2. परदोष दर्शन के समान, अन्य कोई दोष नहीं।

(नोट: क्योंकि परदोष दर्शन करने वाला व्यक्ति अपने दोष (अपनी भूल) नहीं देख पाता, सो उन्हें मिटा नहीं पाता और इस प्रकार वह दोषरहित, रसरूप जीवन पाने से वंचित रह जाता है। )

3. की हुई भूल पुन: न दोहराने से स्वत: मिट जाती है।

4. अपने दु:ख सुख का कारण दूसरों को मानना भूल है।

(नोट: अपने सुख दु:ख का कारण दूसरों को मानने से हम राग और द्वेष में जकड़ते जायेंगे, जो सहज सुन्दर जीवन में बाधक होता है। )

5. वस्तुओं की दासता ही दरिद्रता की जननी है।

6. हे प्रभु कुछ देना ही चाहते हो, तो बस अचाह करके करके अपना प्रेमी बना लो।

7. प्रभु अपने हैं यही भजन है, मेरा कुछ नहीं है यही ज्ञान है, मुझे कुछ नहीं चाहिए यही तप हैं।



-ब्रह्मलीन संत स्वामी शरणानन्द जी महाराज



Friday, February 25, 2011

-: साधन सूत्र-16 :-

-: साधन सूत्र-16 :-

साधन-पथ के लिए टार्च

साधन-पथ पर चलने के इच्छुक एक जिज्ञासु ने (ब्रह्मलीन संत) स्वामी शरणानन्द जी से कुछ प्रश्न् किये स्वामी जी ने उसका समाधान निम्नलिखित ढंग से किया:-
प्रश्न्: स्वामी जी! कोई कहते हैं गीता पढ़ो, कोई कहते हैं रामायण पढ़ो, कोई कहते हैं मंदिर जाओ, जप करो, यज्ञ करो, दान दो तप करो। समझ में नहीं आता क्या करें। कृपया आप बतलाइये क्या करूॅं।
स्वामी जी ने जो उत्तर दिया-
उत्तर: जानी हुई बुराई छोड़ दो।
प्रश्न्: बुराई को छोड़ने के बाद क्या करूॅं?
उत्तर: सबके प्रति सद्भाव रखो और यथाशक्ति क्रियात्मक सहयोग दो।
प्रश्न्: महाराज जी! इसके बाद क्या करूॅं?
उत्तर: सद्भाव और सहयोग के बदले में किसी से कुछ मत चाहो, न अभी, न कभी।
प्रश्न्: फिर इसके बाद क्या करूॅं?
उत्तर: पहले ये तीन कर लो, चौथी बात स्वयं मालूम हो जायेगी।
प्रश्न्: स्वत: ही?
उत्तर: हाँ स्वत: ही। अरे तुम यह क्यों चाहते हो कि हम यहाँ से तुम्हारे घर तक बिजली के खम्भे लगा दें। इतनी मेहनत मत करवाओ यार। अरे भइया, हमने तुम्हें टॉर्च दे दी है, आगे स्वत: मार्ग मिल जायेगा। अगर तुम केवल पहली बात कर लो अर्थात् 'जानी हुई बुराई को छोड़ दो' तो तुम्हे सब कुछ मिलेगा। शांति, मुक्ति, भक्ति। इससे जीवन बुराई रहित होगा तो स्वत: ही सारे काम होंगे।
नोट: स्वामी जी का परम्परागत पूजा पाठ आदि के प्रति न विरोध था, न आग्र्रह। उनका कथन था कि 2 घंटे साधन और शेष घंटे असाधन तो इससे जीवन के लक्ष्य अथवा मांग कहे, उसकी तो प्राप्ति नहीं होगी। वास्तविक जीवन की प्राप्ति तो तभी होगी जब हमारा पूरा जीवन साधनमय हो जाय। एक अन्य प्रश्नकर्ता का प्रश्न् और स्वामी जी का उत्तर यहाँ प्रासंगिक है-

प्रश्न्: मैं प्रतिदिन दो घंटे परम्परागत ढंग से पूजा करता हूँ और घरवाले उसका विरोध करते हैं तथा उसमें बाधा डालते हैं। क्या किया जाय?
उत्तर: पूजा का वास्तविक अर्थ है-भगवान के नाते और उन्हीं की प्रसन्नता के लिए संसार की सेवा करना। जिस समय घरवाले आपसे किसी काम की अपेक्षा करते हों और आप उसी समय पूजा में बैठ जाते हों तो उनका विरोध करना उचित ही है। अत: पूजा के वास्तविक अर्थ को अपनाकर घरवालों की निष्काम भाव से सेवा करें। यदि विधिवत् पूजा करने का राग ही है तो उसका समय जरूरी कार्य करने के पहले या बाद में रख सकते हैं।

नोट: विधिवत् पूजा भी तब ही सार्थक होगी जब वह मात्र क्रिया न रह जाये और अहं पुष्ट हो कि मैंने इतनी देर पूजा किया, इतना जप किया, इतनी बार घन्टा और शंख बजाया आदि और इससे किसी फल की कामना हो जैसे, व्यापार खूब बढ़े, मुकदमे में जीत हो जाये आदि। इस प्रकार तो जिसकी पूजा कर रहे हैं वह साध्य न होकर साधन हो गये।


विधियात्मक पूजा करे तो जिसकी पूजा कर रहे हैं उसकी प्रसन्नता के लिए और लोकहित के भाव से। तब सभी क्रियायें साध्य की प्रसन्नता के लिए हो जायेंगी-फूल चढ़ाना, भोग लगाना, घंटा-शंख बजाना सबके पीछे भाव होगा कि इससे उन्हें अच्छा लगेगा। इस भाव से उनके प्रति प्रीति उदय होगी और अपने को भी प्रसन्नता और प्रीति का रस मिलेगा।

-: साधन सूत्र-15 :-

-: साधन सूत्र-15 :-

साधक-साधन और साध्य

जो साध्य से दूरी, भेद और भिन्नता को मिटा दे, उसे साधन कहते हैं।

उदारता, असंगता प्रियता साधन के अर्थ में आते हैं। हर समय प्यारे प्रभु की याद बनी रहे, यही भक्ति पथ की साधना है। हर समय अपने स्वरूप की याद बनी रहे, यही मुक्ति पथ की साधना है हर समय अपने कर्तव्य की याद बनी रहे, यही कर्तव्य-पथ की साधना है।

ज्ञानपूर्वक यह अनुभव करने से कि मैं शरीर नहीं हूँ, अथवा शरीर मेरा नहीं है-देह से तादात्मय का नाश हो जाता है। सेवा करने से स्थूल शरीर से, इच्छा रहित होने से सूक्ष्म शरीर से और अप्रयत्न होने से कारण शरीर से असंगता प्राप्त होती है।

मानव का पुरुषार्थ केवल सत्संग करने में है। सत्संग का अर्थ है- अपने जाने हुये सत्य को स्वीकार करना, ज्ञान के आधार पर अकिंचन या अचाह होकर अप्रयत्न हो जाना सत्संग है। आस्था के आधार पर सुने हुए प्रभु के अस्तित्व, महत्व एवं अपनत्व को स्वीकार करके निश्चिन्त तथा निर्भय हो जाना सत्संग है। ज्ञान के आधार पर किये हुए सत्संग का फल 'साधन' है और आस्था के आधार पर किये हुए सत्संग का फल 'भजन' है।

''मानव किसी आकृति विशेष का नाम नहीं है। जो प्राणी अपनी निर्बलता एवं दोषों को देखने और उन्हें निवृत करने में समर्थ है, वही वास्तव में 'मानव' कहा जा सकता है।''

''मानव मात्र जन्मजात साधक है। (अतएव 'मानव' का ही नाम 'साधक' है। साधक का कोई साध्य होता है) अत: उसे साधन रूपी निधि से सम्पन्न होना अनिवार्य है। मानव उसे नहीं कहते जिसकी कोई मांग नहीं और जिस पर कोई दायित्व नहीं। मिले हुए शरीर का नाम मानव रखना भूल है; कारण कि शरीर कर्म सामग्री है और कुछ नहीं।''

''मैं हूँ यह स्वीकृति मानव मात्र की मूल स्वीकृति है। मैं क्यों हॅूं इस सम्बन्ध में अनेक मत भले ही हो, पर मैं हॅूं और मुझमें ही मांग है, इस में दो मत नहीं हैं और यह मानव मात्र को स्वीकार है।

-ब्रह्मलीन संत स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज

नोट:- मैं शरीर नही हॅूं और शरीर मेरा नही है। शरीर, परिवार सब समाज सहित संसार के अंग हैं। मानव का स्वरूप है सेवा, त्याग प्रेम, सो शरीर की भी सेवा करनी है और शरीर के द्वारा परिवार और संसार की भी यथाशक्ति क्रियात्मक और भावात्मक सेवा करनी है।

शरीर की सेवा के सम्बन्ध मे मानव सेवा संघ का नियम संख्या 8 और 9 मार्ग दर्शक है:-

नियम संख्या 8-शारीरिक हित की दृष्टि से आहार-विहार में संयम और दैनिक कार्यों में स्वावलम्बन।

नियम संख्या 9-शरीर श्रमी, मन संयमी, बुध्दि विवेकवती, हृदय अनुरागी और अहं को अभिमान शून्य करके अपने को सुन्दर बनाना।

ऊपर जो शब्द अकिंचन, अचाह और अप्रयत्न आये हैं उनमें अकिंचन का तात्पर्य है मेरा कुछ नहीं है और मेरे लिये नहीं है अर्थात् 'मैं' के लिए नहीं है वह संसार कहे प्रकृति कहें या ईश्वर कहें के द्वारा दी हुई सेवा सामग्री है।

अचाह का तात्पर्य है मुझे अर्थात् 'मैं' को कुछ नहीं चाहिए । 'मैं' को तो चाहिये या यों कहें कि उसमें मांग है परम-शांति, परम स्वाधीनता और परम प्रियता की-रसरूप अविनाशी जीवन की।

अप्रयत्न का तात्पर्य है कि जब मुझे अर्थात् 'मैं' को कुछ चाहिए ही नहीं तो अपने लिये कुछ प्रयत्न ही नहीं करना है। कारण की उसे जो चाहिए वह 'स्व' के द्वारा प्राप्त होता है, उसमें श्रम अपेक्षित नहीं है।

-: साधन सूत्र-14 :-

-: साधन सूत्र-14 :-

मानव जीवन में गुण-दोष


स्वभावत: कोई भी व्यक्ति अपने को अपनी दृष्टि में भला ही देखना चाहता है। पर भलाई करके तो हम भले होते नहीं- भले होते हैं अपने जीवन में से जानी हुई बुराइयों (दोषों) का त्याग करने से। अपने जीवन में से जानी हुई बुराइयों को निकाल देने पर भला बनने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता हम स्वत: भले बन जाते हैं। निर्दोषता में हमारे व्यक्तित्व में गुणों की अभिव्यक्ति होती है परन्तु उनका अभिमान भी नहीं रखना है।

इसीलिए मानव सेवा संघ के नियम संख्या-1 में ''आत्मनिरीक्षण अर्थात् प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखने की बात कही गयी है और नियम संख्या-2 में ''की हुई भूल (बुराई कहे, दोष कहें) को पुन: न दोहराने का व्रत लेकर सरल विश्वास पूर्वक प्रार्थना करना'' के लिए कहा गया है। इसमें यह अर्थ निहित है कि यदि हम अपनी जानी हुई भूल (दोष-बुराई) को मिटाने/छोड़ने में अपने को असमर्थ पाते हैं तो व्यथित होकर ईश्वर का आश्रय स्वीकार करें।

प्रश्न् उठता है कि जिसकी इतनी चर्चा की गई है वह बुराई (दोष या भूल कहें) वास्तव में है क्या और जो जीवन से जानी हुई बुराई निकालने की बात कही गयी है वह कैसे सम्भव है। मानव सेवा संघ की पुस्तक 'चितशुध्दि' के निम्नलिखित उध्दरण से इस प्रश्न का सरल और स्पष्ट उत्तर मिल जाता है।

''अब विचार करना है कि गुण क्या है और दोष क्या है? दूसरों की ओर से अपने प्रति होने वाले दोष का ज्ञान स्वत: हो जाता है और दूसरों से हम वही आशा करते हैं जो गुण है। कोई भी अपना अनादर, हानि-क्षति नहीं चाहता। सभी आदर, प्यार और रक्षा चाहते हैं। जिन प्रवृत्तियों से किसी की क्षति हो, किसी का अनादर हो, किसी का अहित हो, वे सभी दोष हैं और जिन प्रवृत्तियों से दूसरों का हित, लाभ एवं प्रसन्नता हो वे सभी गुण हैं।''

''गुणों का उपयोग दूसरों के प्रति होता है और उससे अपना विकास स्वत: हो जाता है। जिन प्रवृत्तियों से दूसरों का अहित होता है उन प्रवृत्तियों से अपना भी अकल्याण ही होता है। यह रहस्य जान लेने पर दूसरों के अहित की कामना सदा के लिए मिट जाती है और सर्वहितकारी भावना स्वत: जागृत होती है।''

''सर्व-हितकारी भावना की भूमि में ही गुण विकास पाते हैं। जो किसी का बुरा नहीं चाहता उसके सभी दोष स्वत: मिट जाते हैं। एक ही दोष स्थान भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता है। सर्वांश में किसी भी दोष के मिट जाने पर सभी दोष मिट जाते हैं और सर्वांश में किसी भी गुण के अपना लेने पर सभी गुण स्वत: आ जाते हैं। इस दृष्टि से दोषों की निवृत्ति और सद्गुणों की अभिव्यक्ति युगपद् (automatic and simultaneous) है।''

''सर्वांश में गुणों की अभिव्यक्ति होने पर निरभिमानता आ जाती है क्योंकि दोषों की उत्पत्ति नहीं होती और गुणों से अभिन्नता (identity) हो जाती है। यह नियम है कि जिससे अभिन्नता हो जाती है, उसका भास नहीं होता, अर्थात् उसमें अह्मबुध्दि नहीं होती अपितु वह जीवन हो जाता है।''

उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि गुण-दोष क्या है और दोषों की निवृत्ति और गुणों की अभिव्यक्ति किस प्रकार सम्भव है। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि हमें अपने को अपनी दृष्टि में तौलना है न कि इस आधार पर कि हमें लोग कैसा समझते हैं। ''हमें कोई बुरा न समझे इससे हम भले हो नहीं जाते, भले तो बुराई के त्याग से ही हो सकते हैं।''

ऐसा तर्क कोई प्रस्तुत कर सकता है कि हमें भले बनने की क्या जरूरत है हम जैसे हैं वैसे ही ठीक हैं। परन्तु ऐसा वही कह सकता है जिसकी जीवन बृध्दि विकारों और वासनाओं में ही है और जीवन का कोई लक्ष्य ही नहीं है। जिसके जीवन में लक्ष्य वास्तविक मांग परम शांति, परमस्वाधीनता और परम प्रियता की है वह ऐसा नहीं कहेगा क्योंकि वह जानता है कि इनकी प्राप्ति निर्दोषता के बिना नहीं हो सकती।

अपने को बुराई रहित बनाना अर्थात् हम किसी को बुरा न समझें, किसी का बुरा न चाहें और किसी के प्रति बुराई न करें, सहज हो जाता है, यदि यह ध्यान बना रहे कि भौतिकवादी की दृष्टि से जो जगत की ही सत्ता मानते हैं, जगत के नाते हम सब एक है, अध्यात्मवादी की दृष्टि से सभी परमात्मा के अंश हैं और ईश्वरवादी की दृष्टि से सभी उसी के रूप हैं।

मानव सेवा संघ के प्रणेता क्रान्तदर्शी ब्रह्मनिष्ठ संत स्वामी शरणानन्द जी का शरीर छोड़ते समय अन्तिम उद्धोष था-



''कोई और नहीं कोई गैर नहीं''



-ब्रह्मलीन संत स्वामी शरणानन्द जी महाराज द्वारा प्रणीत मानव सेवा संघ की पुस्तक ''चित्त शुध्दि'' पर आधारित एवं उध्दरित।

-: साधन सूत्र-13 :-

-: साधन सूत्र-13 :-

सन्यास का अर्थ

ब्रह्मलीन संत स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज को उद्बोधन है कि ''ममता कामना और तादातम्य के त्याग का नाम ही सन्यास है। कपड़े रंगना और किसी सम्प्रदाय विशेष में दीक्षा लेना तो सन्यास का बाहरी चिन्ह है। केवल बाह्य चिन्ह धारण करने से किसी की मुक्ति नहीं होती। ''
''सही करना, कुछ न चाहना और प्रभु के शरणागत होना, यह योग, बोध-प्रेम की तैयारी है और इसी से योग-बोध-प्रेम की प्राप्ति होती है।''
''जगत् से सम्बन्ध टूटकर उस अनन्त के साथ अहं का सम्बन्ध जुड़ जाने का नाम ही 'योग' है। इसी से सब संकल्पों की निवृत्ति होती है। और उस अनन्त को सब जगह सब में देखना ही 'बोध' है। योग से दोष और कामनाओं का त्याग होता है और उस अनन्त को अपना मानना एवं अहं को उनके समर्पित करना ही प्रेम है, यानी प्रेम की प्राप्ति होती है। केवल गृह त्याग करने एवं वस्त्र रंगने मात्र से किसी को योग-बोध प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह त्याग नहीं वरन् त्याग के भेष में अपने कर्तव्य से पलायन करना है।''

एक प्रश्न् कि साधु माने क्या का स्वामी शरणानन्द जी ने व्याख्या निम्नलिखित रूप में किया जो इस क्रम में प्रासंगिक है :
प्रश्न्: साधु माने क्या ?
उत्तर: साधु संसार के बाहर चले तो नहीं जाते, संसार से सम्बन्ध अवश्य तोड़ देते हैं। शरीर को गंगा में तो नहीं फेंक देते। शरीर से सम्बन्ध अवश्य तोड़ देते हैं। साधु माने यही कि जो संसार से सम्बन्ध तोड़ दे, चाहे घर में रह कर, चाहे वन में जाकर। साधु वह, जो किसी को हानि न पहुँचाये। जो प्रभु को पसन्द करे। तुम मानव हो, प्रसन्नतापूर्वक रहो, दु:खी मत रहो, खिन्न मत रहो, व्यर्थ चिन्तन मत करो, थोड़े दिन का मेला है-सदा नहीं रहेगा।
मानव सेवा संघ ने प्रकाश दिया है- हे मानव! भेष के साधु सब नहीं हो सकते लेकिन बिना भेष के साधु हर भाई, हर बहिन हो सकती है।
किसी को हानि मत पहुँचाओ। किसी को बुरा मत समझो और यथाशक्ति जिस परिवार में, जिस समाज में रहते हो उसके काम आओ। क्या यह जीवन सबको नहीं मिल सकता ? मिल सकता है। तो साधु माने साधक है क्योंकि-
(1) हमें संसार की सेवा करना है।
(2) हमें प्रभु का प्रेमी होना है।
(3) हमें अचाह होना है।


Tuesday, February 22, 2011

-: साधन सूत्र-12 :-

''आनन्दमय वृध्दावस्था का मंत्र''
''जीवन कैसे जीया जाय''

यूनान के प्रसिध्द दार्शनिक सुकरात एक बार भ्रमण करते हुए एक शहर में पहुँचे। वहाँ उनकी एक वृध्द व्यक्ति से भेंट हुई। दोनों काफी घुलमिल गये। सुकरात ने उनके व्यक्तिगत जीवन में काफी रुचि ली, काफी खुलकर बातें की।
सुकरात ने संतोष व्यक्त करते हुए कहा ''आपका विगत जीवन तो बड़े शानदार ढंग से बीता है, पर इस वृध्दावस्था में आपको कौन-कौन से पापड़ बेलने पड़ रहे हैं, यह तो बताइये।''
वृध्द किंचित मुस्कुराया- ''मैं अपना पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने समर्थ पुत्रों को देकर [और इन सबको सर्व सामर्थ्यवान प्रभु को समर्पित करके] निश्चिन्त हूँ। वे जो कहते हैं कर देता हूँ, जो खिलाते हैं, खा लेता हूँ और अपने पौत्र पौत्रियों के साथ खेलता रहता हॅूं। बच्चे कभी भूल करते है तब भी चुप रहता हूँ। मैं उनके किसी कार्य में बाधक नहीं बनता। पर जब कभी वे परामर्श लेने आते हैं, तो मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रख कर, की हुई भूल से उत्पन्न दुष्परिणामों की ओर से सचेत कर देता हूँ। वे मेरी सलाह पर कितना चलते हैं, यह देखना और अपना मस्तिष्क खराब करना मेरा काम नहीं हैं। वे मेरे निर्देशों पर चलें ही, यह मेरा आग्रह नहीं। परामर्श देने के बाद भी यदि वे भूल करते हैं, तो चिन्तित नहीं होता। उस पर भी वे पुन: मेरे पास आते हैं, तो मेरा दरवाजा सदैव उनके लिये खुला रहता है। मैं पुन: उचित सलाह देकर उन्हे विदा करता हूँ
वृध्द की बात सुनकर सुकरात बहुत प्रसन्न हुए। उन्होनें कहा इस आयु में जीवन कैसे जिया जाय, यह आपने बखूवी समझ लिया है।

नोट: ऊपर ब्रैकेट वाला अंश मूल प्रसंग मे नहीं है। ईश्वरवादी की दृष्टि से यह वाक्य जोड़ना उपयुक्त प्रतीत हुआ।




-: साधन सूत्र-11 :-



''न चलने की वेदना में ही
 चलने की सामर्थ्य निहित है''



- ब्रह्मलीन संत परमपूज्य स्वामी शरणानन्द जी द्वारा राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद तथा राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के मध्य सत्चर्चा में प्रदत्त साधन सूत्र।



-: साधन सूत्र-10 :-

-: साधन सूत्र-10 :-

प्रभु के नाते की हुई हर प्रवृत्ति पूजा-भक्ति है।

“ईश्वर सबमें हैं।-मैं जो कुछ भी करता हूँ उस सबको ईश्वर देखते हैं।-जो ऐसा अनुभव करता है, उसका प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय बनता है।“

“जिसका व्यवहार शुध्द है, वह जहाँ बैठा है वहीं भक्ति करता है और वहीं उसका मन्दिर है। व्यवहार और भक्ति में बहुत अन्तर नहीं है। अमुक समय भक्ति का और अमुक समय व्यवहार का, ऐसा विभाजन नहीं है।“

“बहुत से लौकिक कार्यों से विश्राम लेने के बाद जो भी समय मिले, उसमें भक्ति करना मर्यादा भक्ति कही जाती है।..... परन्तु पुष्टि भक्ति में व्यवहार और भक्ति अलग-अलग नहीं होते। एक ही होते हैं।...... प्रत्येक कार्य में ईश्वर का अनुसंधान, इसे कहते हैं पुष्टि भक्ति।“

“केवल अपने लिये ही कार्य करो यह पाप है। घर के मनुष्यों के लिये काम करो, यह व्यवहार है और परमात्मा के लिये काम करो, यह भक्ति है। कार्य तो एक ही, परन्तु इसके पीछे भावना में बहुत फर्क है। महत्व क्रिया का नहीं, क्रिया के पीछे हेतु क्या है, भावना क्या है- यह महत्वपूर्ण है।“

“भक्ति के लिये प्रवृत्तियों का निरन्तर त्याग करने की आवश्यकता नहीं है। प्रवृत्तियों को सतत् भक्ति बनाओ।...... अपने प्रत्येक प्रवृत्ति को भक्तिमय बनाओ।“


धंधा करने में ईश्वर को भूलों नहीं, तो तुम्हारा धंधा ही भक्ति बन जायेगा।...... कोई कोई वैष्णव दुकान में श्री द्वारिकानाथ जी का चित्र पधराते हैं, यह ठीक है, परन्तु द्वारिकानाथ सदा हाज़िर हैं, ऐसा समझ कर व्यवहार करे, यह बहुत जरूरी है। जब तक देह का भान है, तब तक व्यवहार तो करना ही पड़ेगा। व्यवहार करो परन्तु व्यवहार करते करते, परमात्मा सबमें विराजते हैं, यह मत भूलो। व्यवहार में अपने धर्म को मत छोड़ो।“............

“जब तक यह देहाभिमान है (मैं यह हूँ, मैं वह हूँ, मैं पुरूष या स्त्री हूँ) जब तक आत्मस्वरूप का ज्ञान हुआ नहीं है, तब तक धर्म की बहुत ज़रूरत है।“

“भक्ति भी धर्म की मर्यादा में रहकर करो।........ स्वधर्म का पालन करो।....... सनातन धर्म का दर्शन करना हो तो तुम रामजी का दर्शन करो। राम के चरित्र का मनन करो।....... सनातन धर्म ईश्वर का स्वरूप है। धर्म साधन भी है और साध्य भी है।....... सनातन धर्म रामजी का स्वरूप है।...... रामजी की सेवा से ही शान्ति मिलती है। रामजी का एक एक गुण जीवन में उतारना, यही रामजी की उत्तम सेवा है। रामजी की सेवा अर्थात् रामजी की मर्यादा का पालन करना।“

“श्री रामजी में समस्त गुण एकत्रित हुये हैं। श्री राम अर्थात् जगत के समस्त दिव्य सद्गुणों के भण्डार, यही तो श्रीराम हैं। राम की मातृपितृ भक्ति, राम जी का बन्धु-प्रेम, राम जी का संयम, रामजी का सदाचार, रामजी की सरलता, रामजी का एक पत्नीव्रत, रामजी का एक वचन, रामजी की उदारता, रामजी की शरणागत वत्सलता, रामजी का विनय, रामजी की मधुर वाणी आदि सभी दिव्य सद्गुण रामजी में एकत्रित हुये हैं।“

-- श्रीमद्भागवत के प्रकाण्ड विद्वान एवं व्यास ब्रह्मलीन संत श्री रामचन्द्र डोंगरे जी महाराज द्वारा 'कल्याण' के रामभक्ति अंक में प्रकाशित-'राम जी की सेवा' से उध्दरित।





-: साधन सूत्र-9 :-

-: साधन सूत्र-9 :-

श्री राम का ईश्वरत्व व मनुष्यत्व

'' प्रसंग है भगवान श्री राम का, श्री वाल्मीकी रामायण और श्री रामचरित मानस में, ईश्वरत्व और मनुष्यत्व का वर्णन का।
प्रश्न् है कि हमें किसका अनुगमन करते हुये चलना है।
यद्यपि मैं तो यही कहँगा कि अगर आप दोनों में से एक के साथ आयेंगे तो घाटे में रहेंगे, कि और दोनों को स्वीकार करेंगे तो दुहरा लाभ होगा। श्री राम को अगर आप केवल ईश्वर मानेंगे, मनुष्य नहीं स्वीकार करेंगे, तो जीवन में उनके चरित्र से शिक्षा ग्रहण नहीं करेंगे। और दूसरी ओर अगर आप उनको मात्र मनुष्य ही मानेंगे तो फिर समस्या यह है कि मनुष्यों के अगणित चरित्र इतिहास में विद्यमान हैं ही, परन्तु हमें तो ऐसे पात्र की आवश्यकता है जो इतना शर्क्तिमान हो कि अपने चरित्र को जीवन में उतारने की शक्ति हमें दे सके। श्री राम को यदि केवल मनुष्य मानेंगे, तब तो केवल भूतकाल के पात्र होंगे।......
इसका उपाय यही है कि श्री राम के ईश्वरत्व से शक्ति लीजिये, तथा मनुष्यत्व से प्रेरणा लीजिये।“
- ब्रह्मलीन परमपूज्य रामकिंकर जी,
“सुन्दरकाण्ड की सुन्दरता” नामक पुस्तक में


-: साधन सूत्र-8 :-

-: साधन सूत्र-8 :-


मानव जीवन की धन्यता
-पूज्य स्वामी पथिक जी

ए मन तुम गाओ गान यही, हरि: शरणम् हरि: शरणम्।
दिखता है भाव महान यही, हरि: शरणम् हरि: शरणम् ॥
चाहे कितना दुख सुख होवे, तू कर्मों से ना विमुख होवे।
निकले अन्तर से तान यही, हरि: शरणम् हरि: शरणम्॥
रहना हो घर में या वन में, चिन्ता न रहे कोई मन में।
है सहज सुलभ सद् ज्ञान यही, हरि: शरणम् हरि: शरणम्॥
सुख साम्राज्य पाये तो क्या, या सर्वस खो जाये तो क्या।
भक्तों को तो अभिमान यही, हरि: शरणम् हरि: शरणम्॥
फल ये ही मानव जीवन का, सम्बन्ध छोड़ धन वैभव का।
पा जाये परम स्थान यहीं, हरि: शरणम् हरि: शरणम्॥
मिलती इससे सच्ची सद्गति है, यह कितनी सुन्दर सम्मति है।
बस रहे 'पथिक' का ध्यान यही, हरि: शरणम् हरि: शरणम्॥

(प्रेषक: श्यामलाल बंसल)

Monday, February 21, 2011

-: साधन सूत्र-7 :-

-: साधन सूत्र-7 :-

जीते जी अमर हो जाय

''प्रत्येक क्षण, प्रत्येक श्वांस काल रूपी अग्नि में लगातार जल रहा है। उस पर दृष्टि रख, जीवन की आशा त्याग, मरने से पहले जीते जी मर जाना चाहिए, अर्थात् जीवन तथा मृत्यु के स्वरूप में भेद मिटा देना चाहिए। ऐसा होने पर आपको अपने वास्तविक स्वरूप का बोध अवश्य होगा और ऐसा होने से यह सर्वजगत जो प्रतीत होता है, लय हो जाता है, वही आपका वास्तविक स्वरूप है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। देह में आत्मबुध्दि का त्याग होने पर जीवन और मृत्यु में भेद नहीं रहता, ऐसा अनुभव करने वाले महापुरुषों का कथन है।''


- ब्रह्मलीन संत परमपूज्य स्वामी शरणानन्द जी महाराज


Thursday, February 17, 2011

साधन सूत्र-6

-: साधन सूत्र-6 :-

"मानव की माँग"

'' मानव-जीवन की तीन विभूतियाँ हैं-
निश्चिन्तता, निर्भयता और प्रियता।
जो कुछ हो रहा है, वह मंगलमय विधान से हो रहा है-ऐसा मान लेने पर निश्चिन्तता आती है।
जो शरीर, प्राण आदि किसी भी वस्तु को अपना नहीं मानता, वह निर्भय हो जाता है।
जो 'है' वही मेरा अपना है- इसमें जिसने आस्था स्वीकार कर ली, उसी में प्रियता उदित होती है।
निश्िचिन्तता से शान्ति; निर्भयता से स्वाधीनता तथा प्रियता से रस की अभिव्यक्ति होती है। यही मानव की माँग है।''

- ब्रह्मलीन संत परमपूज्य स्वामी शरणानन्द जी महाराज

Wednesday, February 16, 2011

-: साधन सूत्र-5 :-

-: साधन सूत्र-5 :-


"एक साधक की गुरू दीक्षा"



''घर गृहस्थी का सब काम, पति तथा सन्तान की सेवा, सब प्रभु की पूजा ही तो है। कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति का प्रत्येक कार्य पूजा है। बड़े प्रेम से करो। चलते फिरते जब सहज भाव से याद आ जाय तब मंत्र दुहरा लिया करो। मंत्र जाप को अपने लिये बोझ मत बनाओ।

प्रभु की सत्ता को स्वीकार करना और उनकी प्रसन्नता के लिये कर्तव्यपालन द्वारा उनकी पूजा करना- बस, इतनी सी बात है। प्रभु विश्वासी के मुँह से सुनकर प्रभु में विश्वास कर लेना ही तो गुरूभक्ति है। प्रभु विश्वास दृढ़ है तो इससे बढ़कर और कोई कर्तव्य गुरू के प्रति नहीं है। ...................... प्रभु में विश्वास रखना है और उनके बल पर अपने में विश्वास रखना है।''


- ब्रह्मलीन परमपूज्या दिव्यज्योति जी (देवकी बहन जी)

Friday, February 11, 2011

साधन सूत्र-4


-: साधन सूत्र-4 :-

"मनुष्य जीवन का गौरव''


''चाहे हम कुछ भी छोटे से छोटा काम कर रहे हों ऐसा मान कर करें कि विश्व रूपी बाटिका का एक छोटा-सा भाग, मैं भी कर रहा हूँ। हर आदमी को इस बात का गौरव हो कि चाहे मैं मजदूर हूँ तो क्या और कोई मिल-ओनर है तो क्या। मैं क्लर्क हूँ तो क्या, मैं समाज का उतना ही बड़ा प्रतिनिधि हूँ जितना कोई भी है। लेकिन आज इस बात को भूल जाते हैं और समझने लगते हैं कि मिल-ओनर समाज का बड़ा प्रतिनिधि है और मजदूर छोटा प्रतिनिधि है।''

''अरे भाई, ज़रा विचार करके देखो, आपने किसी मशीन को देखा है ? कोई पुर्जा बहुत छोटा है और कोई पुर्जा बहुत बड़ा है। छोटे से छोटे पुर्जे के बिना मशीन चलेगी क्या ? क्या राय है ? शरीर को देखो, सर सबसे ऊॅंचा रहता है और पैर सबसे नीचे। तो सर बहुत बड़ा हो गया और पैर छोटा हो गया ?''

''आज मनुष्य, मनुष्य होने में जीवन का गौरव है इस बात को भूल गया और परिस्थिति के आधार पर अपने जीवन का मूल्यांकन करने लगा। मैं बड़ा आदमी इसलिये हूँ कि मेरे पास इतना पैसा है। मैं बड़ा आदमी इसलिये हूँ कि मुझे ऐसा पद मिला है, मैं बड़ा आदमी इसलिये हूँ क्योंकि मुझमें अधिक योग्यता है।'' केवल अधिक योग्यता होने से कोई बड़ा आदमी नहीं हो जाता। ........................... तो करने वाली बात तो यह है कि तुम भी बुराई रहित हो जाओ और मैं भी बुराई रहित हो जाऊॅं। तुम अपनी सामर्थ्य के अनुसार भलाई करो, मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार भलाई करूॅं।''

''जो आपका-हमारा फर्ज है उसे पूरा कर दो। आप अपनी परिस्थिति का सदुपयोग करो, मैं अपनी परिस्थिति का सदुपयोग करूॅं।''




- ब्रह्मलीन संत परमपूज्य स्वामी शरणानन्द जी महाराज

Wednesday, February 9, 2011

-: साधन सूत्र-3 :-

"शरणागत जीवन''



"शरणागति भाव है कर्म नहीं।"


''शरणागत् विश्वासी साधक अपने सभी आत्मीय जनों को समर्थ (प्रभु) के हाथों समर्पित करके निश्चिन्त तथा निर्भय हो जाता है।''


''शरणागत् के आवश्यक कार्य प्रभु स्वयं पूरा करते हैं।''


- ब्रह्मलीन संत परमपूज्य स्वामी शरणानन्द जी महाराज


परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि शरणागत अकर्मण्य और उदासीन (Indifferent) हो जाये। उसको तो उन्हीं के आश्रित होकर निश्चिन्त भाव से अपना कर्तव्य-कर्म निष्ठा, ईमानदारी और मेहनत से अपनी पूरी योग्यता लगाकर करते रहना है।

साधन सूत्र-2

-: साधन सूत्र-2 :-

"मैं और मेरे प्रभु"



विश्वास पथ की दीक्षा

प्रभु मेरे हैं-

प्रभु से मेरा नित्य आत्मीय सम्बन्ध है। प्रभु मेरे अपने हैं-सो मुझे प्यारे लगते हैं। प्यारे की नित्य स्मृति स्वाभाविक है। प्रभु स्मृति और प्रभु प्रेम ही मेरा जीवन है।

मैं प्रभु का हूँ-

प्रभु सर्वसमर्थ, करूणावान और शरणागत् वत्सल हैं। मुझे प्रभु अपना करके जानते और मानते हैं। सो मेरे जीवन में भय और चिन्ता का कोई स्थान ही नहीं। मैं निर्भय निश्चिन्त हूँ।

प्रभु में ही मेरा नित्य निवास है-

केवल प्रभु ही हैं, उनके अतिरिक्त कोई और नहीं, कछु और नहीं। प्रभु आदिअन्त रहित हैं। वे सदैव हैं, सर्वत्र हैं। सो मैं प्रभु में हूँ और प्रभु मुझमें हैं। प्रभु सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। सर्वत्र सदैव आनन्द ही आनन्द है। सो मैं नित्य आनन्द में हूँ।



-ब्रह्मलीन संत परमपूज्य स्वामी शरणानन्द जी महाराज

-: साधन सूत्र-1 :-

"साधन में सफलता का मंत्र"


साधन पथ में-

"हार स्वीकार मत करना।"
"आंशिक सफलता से सन्तुष्ट मत हो जाना।"
"पूर्णता से निराश मत होना।"

नोट:- तात्पर्य है कि मन में इस बात की निराशा न हो कि साधना की पूर्णता मुझे नहीं मिलेगी।


- ब्रह्मलीन संत परमपूज्य स्वामी शरणानन्द जी महाराज