Tuesday, March 29, 2011

-: साधन सूत्र-26 :-

-: साधन सूत्र-26 :-

एक ही अनेक रूपों में

बहुत वर्ष पुरानी बात है एक बार जब बह्मलीन संत परम पूज्य स्वामी कृष्णानन्द जी,अयोध्या में कनक-भवन से भगवान राम का दर्शन कर लौट रहे थे,तब अयोध्या में ही उनसे भेंट होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने पूछा कि आपके इष्ट तो कृष्ण भगवान है,भगवान राम का दर्शन करके आपको कैसा लगता है ? हमेशा मौन रहने के कारण कागज पर लिखा ''मुझे तो लगता है एन्टे कृष्णा,एन्टे भगवान (अपनी मूल मलायली भाषा में), अर्थात् यही मेरे कृष्ण है, यही मेरे भगवान है''

अनेक रूपों में एक ही ईश्वरीय सत्ता की विद्यमानता का इतना सहज और सरल निरूपण से प्रेति उद्गार :-

हे रे कान्हा!- तू ही तू तो है,तेरे सिवा कोई और नहीं कछु और नहीं। तू ने ही तो अपनी इच्छा से,अपने ही में,अपने से,अपने द्वारा,समस्त सृष्टि का निर्माण किया है,और तू ही तो अनेक रूपों में इसका लालन,पालन संचालन कर रहा है (गजेन्द्र मोक्ष पर आधारित) हे,कान्हा तुझ को तेरे अनेक नाम रूपों में शत् शत् प्रणाम।

हे,कान्हा!- तुझको तेरे निर्गुण निराकार रूप में शत् शत् प्रणाम,तुझको तेरे निर्गुण साकार रूप में शत् शत् प्रणाम,तुझको तेरे सगुण साकार रूप में शत् शत् प्रणाम।

हे,कान्हा!- तेरी निज स्वरूपा, नित्य संगिनी, आह्लादिनी शक्ति , श्री राधारानी जी के चरण कमलों में शत् शत् प्रणाम,
श्री राधारानी जी के साथ तेरी युगल छवि के चरण कमलों में शत् शत् प्रणाम,

हे,कान्हा!- श्री राधारानी जी के साथ अपनी युगल छवि के श्री चरणों में अनन्य अविरल भक्ति और प्रेम प्रदान करो।



नोट:- भक्त वृन्द अपने अपने भाव के अनुरूप, कोई वात्सल्य भाव से, कोई सख्य भाव से, कोई दास भाव से तो कोई मात्र अपनत्व भाव से प्रभु को प्रेम करते हैं- इसलिये बै्रकेट खाली छोड़ दिया है।


हे कान्हा!- तुझ को तेरे परम कृपालु,परम उदार,परम ज्ञानी,ज्ञान के भंडार,विघ्ननाशक,विघ्नहर्ता,आदिगण देवता रूप गणेश भगवान को शत् शत् प्रणाम।

हे कान्हा!- तुझको तेरी करूणामयी,ममतामयी,कृपामूर्ति आदि अन्त रहित,आदि शक्ति,सर्वज्ञ,सर्वव्यापी,सर्व शक्तिमान मातृरूप माँ दुर्गा माँ के चरण कमलों में शत् शत् प्रणाम।

हे कान्हा:- तुझको तेरे औढरदानी,परम कृपालु,करूणासिन्धु,क्षणभर में करूणा से द्रवित होने वाले,परम उदार संहारकर्ता रूप शंकर भगवान को शत् शत् प्रणाम।

हे कान्हा:- तुझको तेरे सहज कृपालु,कृपानिधान,करूणासिन्धु,बिनु हेतु सनेही, भक्तवत्सल, शरणागतवत्सल, त्रेतायुग में अवतारी मर्यादा पुरूषोत्ताम रूप भगवान राम के श्री चरणों में शत् शत् प्रणाम।

हे कान्हा:- तुझको तेरे महाबली, महापराक्रमी, परमकृपालु, चिन्ताहरण, संकटहारी,भक्त शिरोमणी रूप,संकटमोचन हनुमान महाप्रभु को शत् शत् प्रणाम।

हे कान्हा:- तुझको तेरे अत्यधिक दयालु,दया करने में कभी आलस्य न करने वाले अतिशय दयालु (गजेन्द्र मोक्ष से)करूणासिन्धु, भक्तवत्सल, शरणागतवत्सल, शंख, चक्र, गदा पद्मधारी चतुर्भुज रूप विष्णु भगवान के चरण कमलों में कोटि कोटि नमन।







Thursday, March 24, 2011

-: साधन सूत्र-25 :-

मन की चंचलता

बेचारा मन, इसका स्वतन्त्र अस्तित्व है ही नहीं, फिर भी अपयश पाता है, इसकी निन्दा होती है कि मन बड़ा चंचल है, निकृष्ट है, इधर उधर भटकता रहता है, हमें स्थिर नहीं होने देता, ईश्वर से जुड़ने नहीं देता, इत्यादि।

मन के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न अवसरों पर लोगों ने स्वामी शरणानन्द जी से प्रश्न् किये। उन प्रश्नों और उनके उत्तर को ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया जा रहा है:

1. प्रश्न् : जब मैं मानव सेवा संघ की बैठक में आता हूँ और जितनी देर मैं बैठा रहता हूँ,उतनी देर तक मेरा मन शान्त रहता है,परन्तु जब मैं बैठक समापन के बाद घर पहुँचता हूँ तो फिर मुझे मन की चंचलता सताने लगती है। क्या उपाय किया जाय कि मन की चंचलता मिट जाय?

उत्तर : मानव सेवा संघ के दर्शन के अनुसार मन का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। जो चीज़ हमें नापसन्द होती है,उस ओर मन कभी नहीं जाता। यदि हमने मन को अब तक जहाँ लगा रखा था,उस स्थान से हटाकर भगवान में लगा दें तो मन अमन हो जायेगा और अपने आप शान्त,शुध्द एवं स्वस्थ हो जायेगा। परिस्थिति बदलने से मन की चंचलता थोड़ी देर के लिये दब जाती है,मिटती नहीं। मन दर्पण की भाँति अपनी दशा का यथार्थ ज्ञान कराता है,अत: उसे बुरा समझना या उसकी निन्दा करना उचित नहीं है।

2. प्रश्न् : मन रूकता नहीं है,इधर उधर घूमता रहता है। इसका क्या कारण है?

उत्तर: मन के न रूकने का दु:ख नहीं है। मन को रोकना आवश्यक है। देखा जाता है कि कोई आवश्यक कार्य पूरा न होने पर मनुष्य को बेचैनी होती है।

धन के अभाव में दु:ख होता है। प्रिय के वियोग में दु:ख होता है। खाना-पीना भी अच्छा नहीं लगता है। दु:ख भुलाने के लिये गलत मार्ग भी स्वीकार करते हैं-जैसे मादक पदार्थों का सेवन आदि,परन्तु दु:ख नहीं मिटता। यह परिस्थिति तो साधारण दु:ख की है। यदि किसी को मन न रूकने का इतना दु:ख हो जावे कि जब तक मन न रूके,दूसरी कोई बात अच्छी न लगे,तीव्र व्याकुलता हो जावे,चैन न पड़े तो मन रूक सकता है। एक साथ दो काम करने की आदत भी मन को स्थिर नहीं होने देती। देहाभिमान भी मन को स्थिर नहीं होने देता। सब ओर से हट जाने को ही मन की स्थिरता कहते हैं। संसार से हटा लेने पर भगवान में मन अपने आप लग जाता है।

3. प्रश्न् : मन को वश में करने का क्या उपाय है?

उत्तर : (1) मन के ऊपर से अपनी ममता का बोझ हटा लो।

(2) अपनी पसन्द को बदल डालो। जहाँ मन लगाना चाहते हो उसे पसन्द कर लो और जहाँ से मन को हटाना हो उसे नापसन्द कर दो।

(3) ज़रूरी काम को पूरा करो और ग़ैर ज़रूरी काम को छोड़ दो।

(4) जो नहीं करना चाहिये और जिसे नहीं कर सकते हो,उसको मत करो और जिसे करना चाहिए और जिसे कर सकते हो,उसे कर डालो।

(5) केवल प्रभु को ही अपना मानो।

(6) अपनी सबसे बड़ी आवश्यकता को अनुभव करो। मन शान्त तथा शुध्द हो जायेगा।

4. प्रश्न् : मन की चंचलता को कैसे रोका जाय?

उत्तर : मानव-सेवा-संघ के दर्शन के अनुसार मन की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। अपनी पसन्द के प्रभाव का समूह ही मन है। जो चीज़ हम पसन्द करते हैं वहाँ मन लग जाता है और जिसको नापसन्द करते हैं,वहाँ से मन हट जाता है।


(1) अत:मन को जहाँ लगाना चाहते हैं उसे पसन्द कर लें और जहाँ से हटाना चाहते हैं,उसे नापसन्द कर दें। मन की चंचलता का भास तभी मिलता है जब हम पसन्द तो संसार को करते हैं और मन भगवान में लगाना चाहते हैं।

(2) दूसरा उपाय यह है कि मन पर से अपनी ममता का भार हटा कर उसको भगवान के हवाले कर दें। वे उसे शुध्द,स्वस्थ एवं शान्त कर देंगे। फलत:मन की चंचलता समाप्त हो जायेगी।

(3) मन एक प्रकार का दर्पण है जो वस्तुस्थिति का बोध कराता है,मन को बुरा न समझें,न उसकी निन्दा करें,बल्कि विवेक के प्रकाश में अपनी वस्तुस्थिति का अध्ययन करें और अपने में जो कमियाँ दिखाई पड़ें,उन्हें सत्संग के प्रकाश में दूर करने का उपाय करें। इससे भी मन की चंचलता दूर होती है। जो नहीं कर सकते और जो नहीं करना चाहिये उसके न करने से तथा जो करना चाहिये और कर सकते हैं,उसके कर डालने से मन शान्त हो जाता है।

-संतवाणी (प्रश्नोत्तर) से उध्दरित

राँची में एक गांधीवादी सज्जन ने श्री महाराज जी (स्वामी शरणानन्द जी) से कहा- ''महाराज जी, मन को मारने का क्या उपाय है?''

श्री महाराज जी ने कहा ''राम,राम,गांधी जी के शिष्य होकर,मारने की बात करते हो! गांधी जी ने तो असहयोग का मार्ग अपनाया था। आप मन से असहयोग कर दो,मन समाप्त हो जायेगा।''

एक अन्य अवसर पर ऋषिकेश (गीता भवन) में प्रवचन से पूर्व एक संत ने स्वामी जी से पूछा-

''महाराज,मन बड़ा चंचल है,इसको एकाग्र करने की टेक्नीक बतायें''

श्री महाराज जी कहने लगे-

''मन किसी टेक्नीक से एकाग्र नहीं होता। सम्बन्ध एक से रखो और उसके नाते सेवा अनेक की करो। मन तो वहाँ जाता है जहाँ आपने अपना सम्बन्ध जोड़ रखा है। मन को एकाग्र करने का प्रयास मत करो, अपना सम्बन्ध बदल डालो।''

-संत-जीवन-दर्पण से उध्दरित

अत:संत की सलाह मान कर,मन को दोषी न बता कर,अपनी पसन्दगी बदलना होगा,प्रभु को पसन्द करना होगा जिससे कि मन उन्हीं में लग जाय और हमारे छुटाये से भी न छूटे।

कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो कहें कि हम ईश्वर को तो मानते नहीं,फिर हम क्या करें। ऐसे लोगों पहले यही नेक सलाह होगी कि भइया,ज़िद्द को छोड़कर ईश्वर को मान लो उसी प्रकार से जिस प्रकार से बिना तर्क के मान लेते हो कि यह मेरा भाई है,बहिन है,माता हैं,पिता हैं।

इसके बावजूद यदि कोई ईश्वर को न मानने पर ही अडिग है,तो इसमें कोई बाधा या पराधीनता तो नहीं है कि हम अपनी पसन्दगी सुख-भोग से हटा कर पर हित और पर सेवा में लगा दें। अपनी पसन्दगी अपनी निर्दोषता और बुराई रहित तथा अभाव रहित जीवन के प्रति कर दें। स्वार्थ,लोभ और द्वेष से हटा कर उदारता,सबके प्रति सद्भाव और स्नेह की एकता के प्रति कर दें।

मान-सेवा-संघ दर्शन के अनुसार उदारता का अर्थ है 'दुखियों को देखकर करूणित होना और सुखियों को देखकर प्रसन्न होना।' और उदारता में रस है। सुख-भोग से मन हट गया तो पराधीनता मिट गई, स्वाधीन हो गये;स्वाधीनता में भी रस है। आगे चल कर प्रियता का अगाध-अनन्त रस भी मिल जायेगा।

अत: मन को दोष न देकर,अपनी पसन्दगी बदलना अनिवार्य है।



-मानव सेवा संघ दर्शन पर आधारित



Monday, March 21, 2011

-: साधन सूत्र-24 :-

-: साधन सूत्र-24 :-

आस्था-श्रध्दा-विश्वास

ईश्वर के सम्बन्ध में साधकों के लिये तीन शब्दों,आस्था,श्रध्दा और विश्वास का प्रयोग होता है।

सर्वप्रथम तो,ईश्वर केवल मानने का ही है। हम अपने जीवन में बहुत कुछ मानते ही हैं,हमारी व्यक्तिगत जानकारी नहीं होती है। यह मेरा भाई है,बहन है,माता है,पिता है आदि बचपन से सुनकर माना ही तो जाता है। तो फिर वेद वाणी से,गुरू वाणी से,संतवाणी से सुनकर कि ईश्वर है इसी में क्यों विकल्प और प्रश्न् होता है? मैं ईश्वर को नही मानता हूँ - यह एक प्रकार की  ऐंठ (snobbery) ही है। वैसे अधिकांश यह तो मानते ही हैं कि एक कोई सत्ता है जो इस समस्त सृष्टि का रचयिता है। परन्तु,वही अपना सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर है,परम कृपालु और सबका रखवारा यह स्वीकृति नहीं बन पाती।

हमारे न मानने से उनकी सत्ता में कोई अन्तर नही होने का और हमारे न मानने पर भी वे परम उदार हमारे पर कृपा करना बन्द नही करते। ऐसा नहीं करते कि मुझे नहीं मानोगे तो साँस नहीं लेने देंगे या इन्द्रियाँ काम नहीं करेंगी आदि। उन्होंनें हमें पूर्ण स्वाधीनता दे रखा है कि हम उन्हें माने या न माने।

पर यह तो हमारी अपनी आवश्यकता है कि हमें नित्य और सर्वत्र विद्यमान,सामर्थ्यवान और अहैतु की कृपा करने वाले,जो पात्र कुपात्र का विचार किये बिना ही कृपा की अनवरत वर्षा करते हों,का सहारा चाहिये। उनके होते हुए हम अनाथ और असहाय हैं नहीं,मात्र उनको स्वीकार करके अपने को सनाथ और किसी समर्थ का सम्बल प्राप्त अनुभव करेंगे।

स्वामी शरणानन्द जी कहते थे कि बस इतना ही तो मानना है कि ईश्वर हैं -सर्वत्र हैं,सदैव हैं,सबके हैं,समर्थ हैं,ऐश्वर्यवान हैं,और अद्वितीय हैं। सदैव हैं तो अभी भी हैं,सर्वत्र हैं तो मुझमें भी हैं,सबके हैं तो अपने भी हैं,महिमावान हैं और अपने जैसे एक ही हैं। वह हमें अपना जानते और मानते भी हैं।

यह तो हमारी भूल है कि हम उनसे विमुख हैं। स्वामी जी कहा करते थे कि वह तो लालायित रहते हैं कि यह मेरा अपना कब मेरी ओर निहारे। वह तो पूर्ण हैं,उन्हें किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं है। उन्हें तो मात्र प्रेम चाहिए।

हमें तो उनकी सत्ता स्वीकार करके उनसे आत्मीय सम्बन्ध मानकर उनका प्रेमी बन जाना है। प्रेम में देना ही देना होता है-जहाँ चाह हुई कि वह भी हमें प्रेम करें (अपने दैनिक जीवन में भी) तो वह प्र्रेम न होकर प्रेम का व्यापार हो गया।

वे मेरे अपने हैं बस इसलिये वे मुझे प्यारे लगते हैं। वे मुझे प्यार करेंगे या करते हैं कि नहीं,यह वे ही जाने। यह एक दृष्टिकोण की बात है अन्यथा वह हमें प्यार तो करते ही हैं नहीं तो अहैतु की कृपा की अनवरत वर्षा क्यों करते रहते।

उनकी सत्ता स्वीकार करने पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि हम उन्हें अपना साध्य (The One sought after) बनायें न कि सांसारिक उपलब्धियों के लिये साधन (tool).

हमसे यह भी भूल होती है कि हम अपनी सांसारिक इच्छाओं/कामनाओं की पूर्ति के लिये उनसे कहते रहते हैं। अरे,क्या वह अज्ञानी हैं,क्या उन्हें हमारी आवश्यकताओं का पता नहीं है? जो वह आवश्यक समझेंगे वह हमारे मांगे बिना ही पूरा कर देंगे और करते हैं। स्वामी जी का उद्बोधन है 'शरणागत के आवश्यक कार्य प्रभु स्वयं पूरा करते हैं।' और यह शरणागत् साधकों का अनुभव भी है। वह कहते थे कि प्रभु से कुछ भी न मांगना अन्यथा घाटे में रहोगे। कृष्ण-सुदामा का प्रसंग इसका सटीक उदाहरण है। द्वारिका जाकर सुदामा जी ने कुछ नहीं मांगा तो उन्हें क्या क्या नहीं मिला। और यदि वह मांगे होते तो कदाचित् यही कहते कि बड़ी गरीबी है,दो जून खाने का प्रबन्ध कर दो। तो मांगने पर घाटा ही तो होता।

स्वामी जी ने आगे कहा कि अगर उनसे कुछ मांगना ही है तो मात्र यह कि प्रभु तुम मुझे प्यारे लगो; मुझे अपना प्रेमी बना लो।

सो ''विकल्प रहित भाव से उसे स्वीकार करने का नाम ही आस्था है।''

''उसकी महिमा को स्वीकार करना आस्थावान में श्रध्दा उत्पन्न करता है। जब साधक स्वीकार कर लेता है कि उस महामहिम की महिमा का वारापार नहीं है तो उसमें स्वत: श्रध्दा की अभिव्यक्ति होती है।''

''श्रध्दा के जागृत होते ही अन्य विश्वास, अन्य सम्बन्ध, अन्य चिन्तन नहीं रहता और फिर एक ही विश्वास, एक ही सम्बन्ध, एक ही चिन्तन रह जाता है। इस दृष्टि से आस्था,श्रध्दा,विश्वासपूर्वक साधक उस अद्वितीय,सर्वसमर्थ से जातीय एकता तथा नित्य सम्बन्ध स्वीकार करता है और फिर स्वत: अखण्ड स्मृति जागृत होती है।''

विडम्बना यह है कि संसार जो अनित्य और परिवर्तनशील है वह तो हमारी भूल से प्राप्त मालूम होता है और जो नित्य प्राप्त अविनाशी तत्व (ईश्वर) है,वह दूर मालूम होता है। संसार के पीछे दौड़ते रहते हैं, फिर भी पकड़ में नहीं आता तब निराश होकर अपनी भूल का एहसास करते हैं तो अपने ही में विद्यमान नित्य,अविनाशी,रसरूप जीवन की मांग का परिचय हो जाता है और उसकी प्राप्ति के लिये हम साधन-पथ अपनाते हैं। वह परम तत्व तो पहले से ही प्राप्त है,बस उससे जो विमुखता है उसका अन्त होकर उसकी सम्मुखता हो जाती है।

प्रभु तो 'सबके अकारण हितू','अत्याधिक दयालु','दया करने में कभी आलस्य न करने वाले हैं।' (गजेन्द्र मोक्ष से)

उनकी कृपालुता का पारावार नहीं है और यही साधक के लिये सबसे उत्साहवर्धक आश्वासन है। वह सबसे मिलते हैं। ''यदि भक्त को प्रभु भक्तवत्सलता के नाते मिलते हैं तो भाई,पतित को पतितपावन होने के नाते मिलते हैं।'' वाह रे प्रभु,तुम महान हो।


-मानव सेवा संघ दर्शन पर आधारित एवं उध्दरित

Wednesday, March 16, 2011

-: साधन सूत्र-23 :-

-: साधन सूत्र-23 :-

मनुष्य जीवन की सार्थकता-उपयोगी होना-सो कैसे हो


यह सभी को स्वीकार होगा कि मनुष्य जीवन की सार्थकता सांसारिक उपलब्धियों से नहीं सिध्द हो सकती। क्यों?क्योंकि सर्वप्रथम उसकी कोई सीमा नहीं है जिससे जीवन की सार्थकता का मापदण्ड निर्धारित हो जाय।
दूसरे सांसारिक उपलब्धियों को प्राप्त करने में सब लोग समान रूप से सक्षम नहीं होते। सबकी सामर्थ्य और परिस्थिति एक जैसी नहीं होती।
इसके अतिरिक्त,कुछ ही लोग होते हैं जो प्राप्त हुआ उससे संतुष्ट हो जाते हैं और निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य कर्म करते रहते हैं। परन्तु काफी लोग कामना और लोभ से ग्रसित रहते हैं कि अभी और। इनमें तो कुछ स्वभाव वश इसमें उलझे रहते हैं और कुछ यह स्पष्ट न होने से कि कैसे समझें कि जीवन सार्थक हुआ।
इसीलिए मानव सेवा संघ ने कहा है कि हम अपने को उपयोगी बना लें। हम सेवा के द्वारा जगत के लिए उपयोगी होते हैं,त्याग द्वारा अथवा अचाह होकर अपने लिए उपयोगी होते हैं और प्रेमी होकर प्रभु के लिए उपयोगी होते हैं।
प्रश्न हो सकता है कि हम अपने को उपयोगी कैसे बनायें। इसके लिए मानव सेवा संघ ने बताया कि निम्नलिखित दस व्रतों को अपनाने की आवश्यकता है:-

(क) जीवन को अपने लिए उपयोगी बनाने के उपाय-

(1) निर्मम होना
(2) निष्काम होना
(3) अधिकार लोलुपता से रहित होना
(4) अहंकृति रहित होना

(ख) जीवन को जगत के लिए उपयोगी बनाने के उपाय-

(1) किसी को बुरा न समझना
(2) किसी का बुरा न चाहना
(3) किसी के प्रति बुराई न करना
नोट: यदि हम कोई स्थूल (Positive) भलाई (सेवा) नहीं कर सकते तो यह तो कर ही सकते हैं-इसमें न कोई बाधा है और न कोई असमर्थता ही है।

(ग) जीवन को प्रभु के लिए उपयोगी बनाने के उपाय-

(1) सुने हुए प्रभु की सत्ता को स्वीकार करना (अर्थात् प्रभु हैं)
(2) श्रध्दा एवं विश्वास करना।
(3) आत्मयिता का सम्बन्ध स्वीकार करना ।
इनको अपना कर अपने को उपयोगी बनाना सबको समान रूप से सहज तथा सम्भव है। इसमें अपना कल्याण और सुन्दर समाज का निर्माण निहित है।

Friday, March 11, 2011

-: साधन सूत्र-22 :-

मनुष्य जन्म की सार्थकता

विधाता ने मनुष्य को अन्य योनियों के प्राणियों से भिन्न,विशेष विभूतियाँ देकर उसकी रचना की है। यह हमारी अपनी पसन्द है कि हम पशु योनि की भांति खाये-पीये,सुख-दु:ख भोगें,विवश होकर जीये और जन्ममरण के चक्र में फॅंसे रहें अथवा विधाता द्वारा प्रदत्त विशेषताओं का सदुपयोग करके चिन्मय रसरूप अविनाशी जीवन प्राप्त करके अपने मनुष्य जन्म को सोद्देश्य (Purposeful) बनायें।

इसके लिये फिर हमें अपने को 'मानव' स्वीकार करना होगा। मानव सेवा संघ के अनुसार मानव किसी आकृति विशेष का नाम नहीं है। जो प्राणी अपनी निर्बलता एवं दोषों को देखने और उन्हें निवृत्त करने में तत्पर है वही वास्तव में मानव कहा जा सकता है।

दूसरे शब्दों में जिस व्यक्ति में मानवता है वही मानव है। मानवता के तीन लक्षण है:-

(1) विचार, भाव और कर्म की भिन्नता होते हुए भी स्नेह की एकता (प्रेम)।

(2) अभिमान रहित निर्दोषता (त्याग)।

(3) अपने अधिकार का त्याग एवं दूसरों के अधिकार की रक्षा (सेवा)।

व्यक्ति जिस समाज में रहता है उससे उसका अविभाज्य सम्बन्ध है जिसका क्रियात्मक रूप ही,व्यक्ति द्वारा समाज की सेवा है-अर्थात् व्यक्ति अपने तीन विशिष्ट गुणों द्वारा समाज की सेवा कर सकता है:-

(1) व्यक्ति की निर्दोषता से समाज निर्दोष होता है।

(2) स्नेह की एकता से संघर्ष का नाश होता है।

(3) अपने अधिकार के त्याग और दूसरों के अधिकार की रक्षा से सुन्दर समाज का निर्माण होता है।

इन तीनों द्वारा अपना भी कल्याण होता है।

मानव में ही बीजरूप से परम शान्ति,परम स्वाधीनता और परम प्रियता की मांग विद्यमान रहती है। कर्तव्य परायणता के बिना शांति नहीं मिल सकती, अपने ही में सन्तुष्ट हुए, अचाह हुए बिना स्वाधीनता नहीं मिलेगी और प्रियता के लिए नित्य विद्यमान,परमतत्व,प्रेम स्वरूप ईश्वर को अपना आत्मीय मानना ही होगा जो वह पहले से ही है।

मनुष्य जीवन का अपना महत्व है। इसे भूल जाने का ही यह परिणाम होता है कि व्यक्ति अपना मूल्यांकन सांसारिक उपलब्धियों वस्तु,योग्यता सामर्थ्य एवं परिस्थिति के आधार पर करने लगता है जिससे वह इनकी दासता में आबध्द हो जाता है। जिसका परिणाम दु:ख और दरिद्रता होता है। दरिद्र वही है जिसमें लोभ है।

ऐसे सोच के आधार पर सभी का जीवन सार्थक हो ही नहीं सकता। सभी टाटा, बिड़ला, अम्बानी हो नहीं सकते, सभी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री, ऊॅंचे पदाधिकारी, बड़े वैज्ञानिक, इन्जीनियर, डाक्टर आदि बन नहीं सकते। फिर तो अधिकांश को निराशा ही हाथ लगेगी और अपना जीवन व्यर्थ जान पड़ेगा।

जब कि वास्तविकता यह नहीं है। केवल जीवन के महत्व एवं उसकी सार्थकता के प्रति दृष्टिकोण सही करना है। मानव सेवा संघ ने कहा कि बड़े-छोटे का कोई प्रश्न् ही नहीं है हर व्यक्ति का जीवन सार्थक एवं उद्देश्यपूर्ण सिध्द होगा यदि हम यह देखें कि क्या हमने अपने को उपयोगी बना लिया है। हम उपयोगी कैसे होते हैं:-

(1) सेवा द्वारा संसार के लिए

(2) त्याग द्वारा अपने लिए और

(3) प्रेम द्वारा प्रभु के लिए

इसे अपना कर अपने को उपयोगी बनाने में हम पूर्णतया समर्थ और स्वाधीन हैं। सेवा सेवा ही होती है कोई बड़ी या छोटी नहीं होती। निकटवर्ती जन समाज की यथाशक्ति क्रियात्मक सेवा करें और सद्भाव द्वारा सभी की भावात्मक सेवा करें।

अपने को उपयोगी बनाना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।

-मानव सेवा संघ दर्शन पर आधारित एवं उध्दरित

मानव जीवन की सार्थकता क्या है,इसी बात को पूजनीया माँ अमृतानन्दमयी ने अपने ढंग से कहा है। वर्ष 2006 में वह लखनऊ आयी थीं तब एक पत्रिका प्रकाशित हुई थी जिसमें उनका सन्देश छपा था उसमें उन्होंने कहा है कि ''हम शरीर स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम करते हैं। व्यायामशाला जाकर वजन उठाते हैं। लेकिन हृदय को व्यायाम देना भूल जाते हैं। हृदय का व्यायाम दुखित और पीड़ित लोगों को उनके स्तर से उठाने में, उनकी सेवा में है।''

''हमारी आखों की सुन्दरता काजल की रेखा में नहीं है, वरन् दूसरों में अच्छाई देखने में है और दुखियों के प्रति करुणामय दृष्टि में है। कानों की सुन्दरता सोने की बालियों में नहीं वरन् दूसरों का कष्ट धैर्यपूर्वक सुनने में है। हमारे हाथों की सुन्दरता सोने की अंगूठी पहनने में नहीं वरन् सत्कर्म करने में है।''

''हमें जीवन में कृतज्ञता का भाव विकसित करना चाहिए, हम संसार के समस्त प्राणियों के ऋणी हैं जिन्होंने हमारे विकास और पोषण में किसी न किसी रूप में सहायता दी है और हमें इस अवस्था तक पहुँचाया है। प्रकृति हमारी माता है और हमें माता के प्रति अपना कर्तव्य नहीं भूलना चाहिए।''

''हमें अपने भाई-बहनों की दु:खभरी पुकार अनसुनी नहीं करनी चाहिए। जितना भी हो सके हमें उनका दु:ख कम करने का प्रयत्न करना चाहिए। करुणा करने के लिए कोई बड़े पद या बहुत धन की आवश्यकता नहीं है। एक प्यार भरा शब्द एक करुणाकारी दृष्टि,एक मुस्कान,कोई छोटी सी सहायता किसी गरीब के जीवन में प्रकाश ला सकती है और हमारे जीवन में भी। हमारे जीवन का मूल्य इसमें नहीं है कि हमने क्या पाया, बल्कि इसमें है कि हमने क्या दिया। यदि हम किसी जीवन को थोड़ी देर भी सुख दे सकें तो यह एक बड़ी उपलब्धि है। ''

ऐसा ही उद्बोधन मेहेर बाबा का है-

''Real Happiness lies in making others Happy'' और जीवन का यही सार्थकता है।

Wednesday, March 9, 2011

-: साधन सूत्र-21 :-

-: साधन सूत्र-21 :-

ईश्वर-दर्शन और ईश्वर प्राप्ति

अक्सर लोग जिज्ञासावश या सच्ची लालसा लेकर प्रश्न् करते हैं कि क्या ईश्वर का दर्शन हो सकता है या उनकी प्राप्ति हो सकती है। इस विषय पर किन्हीं साधकों द्वारा किये गये प्रश्नों का ब्रह्मलीन संत स्वामी शरणानन्द जी द्वारा दिया गया उत्तर बहुत सरल और स्पष्ट है जो यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।

1.प्रश्न्: स्वामी जी! भगवान का दर्शन कैसे हो सकता है ?
उत्तर: भगवत् प्रेम का महत्व है, भगवत् दर्शन का कोई महत्व नहीं है। भगवान रोज दिखें और प्यारे न लगे तो तुम्हारा विकास नहीं होगा। भगवत विश्वास,भगवत सम्बन्ध और भगवत् प्रेम का महत्व है।

2.प्रश्न्: भगवान का दर्शन कैसे हो?
उत्तर: भगवान से नित्य सम्बन्ध स्वीकार करें और इस सत्य को स्वीकार करें कि सभी वस्तुएं भगवान की हैं और भगवान की सत्ता से प्रकाशित है तो सभी वस्तुओं में भगवान का दर्शन होगा।

3.प्रश्न्: भगवान प्राप्ति का सुगम उपाय क्या है ?
उत्तर: भगवान को पसन्द करना ही भगवत् प्राप्ति का सुगम उपाय है सभी सम्बन्धों को एक सम्बन्ध में,सभी विश्वासों को,एक विश्वास में एवं सभी इच्छाओं को एक आवश्यकता में विलीन कर देना भगवान को पसन्द करने का अर्थ है।

4.प्रश्न्: भगवत् प्राप्ति में विघ्न क्या है ?
उत्तर: संसार को पसन्द करना ही भगवत् प्राप्ति में सबसे बड़ा विघ्न है।

5.प्रश्न्: हम ईश्वर के होने पन में आनन्द का अनुभव क्यों नहीं कर पा रहे हैं?
उत्तर: क्योकि हमने ईश्वर को साध्य न मानकर साधन मान रखा है। हम चाहते हैं कि ईश्वर हमारी सुख, सुविधा, सम्मान को सुरक्षित रखें। अत: ईश्वरीय आनन्द का अनुभव करने के लिये ईश्वर को साधन न मानकर साध्य मानें और उनकी आवश्यकता अनुभव करें।

6.प्रश्न्: स्वामी जी भगवान छिपा क्यो रहता है ?
उत्तर: अपना तो है। अपना लड़का भले ही विदेश चला जाय,परन्तु उसका प्यार कम नही होता इसी तरह प्रभु चाहे छिपे हुए हैं,परन्तु अपने तो हैं।

नोट:-उपरोक्त प्रश्न् और उनके उत्तर भिन्न-भिन्न अवसरों से संकलित किये गये हैं जिन्हें एक क्रम में लिख दिया गया है।

नोट:-स्वामी जी ने प्रभु प्रेम पर बल देने के लिये इस ढ़ग से समझाया है,अन्यथा वास्तव में ईश्वर कहीं छिपा नहीं है यह तो हमारी दृष्टि और समझ का फेर है कि वह हमे छिपा हुआ लगता है। इसके दो मुख्य कारण है -पहला तो यह कि हमें इस बात की विस्मृति हो जाती है कि केवल ईश्वर ही है-उसके सिवा कोई और नही कुछ और नहीं। वह सर्वत्र है और सदैव है। कोई ऐसा स्थान ही नहीं जहां वह नहीं है यह सारा ब्रहमाण्ड,सभी जीव प्राणी,वृक्ष पर्वत नदी आदि पृथ्वी सहित वही हैं वे ही सबकुछ हैं और सबमें व्याप्त हैं। इसको इस प्रकार कह सकते हैं कि ईश्वर ने ही अपनी इच्छा से अपने ही में अपने से अपने ही द्वारा समस्त सृष्टि का निर्माण किया है और वे ही इसका अनेक रूपों में लालन पालन संचालन करते हैं। जब यह ज्ञान आत्मसात हो जाता है तब फूल में भी वही मुस्कराते हुये दीखने लगते हैं,पवन जब बदन को छूता है तब उन्हीं का शीतल स्पर्श प्रतीत होता है। कोयल की कूक में उन्हीं का स्वर सुनाई देता है।

वही हर समय हर जगह अनेकों रूप में दिखाई पड़ता है,सभी ज्ञानेन्द्रियों से उसी का अनुभव होता है,तो वह छिपा कहाँ है। भ्रम के कारण हम लोग कहते हैं कि ऊपर वाला जाने,या उनके लिये आसमान की ओर देखते हैं। अरे भाई,वह किस कोने में या किस दिशा में नहीं है जो हम ऊपर देखते हैं। यही बात स्वामी जी ने ऊपर प्रश्न्-2 के उत्तर में कहा है। हमलोग कहते तो हैं ''सीयराम मय सब जग जानी,करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी''परन्तु यह जिह्वा या बुध्दि स्तर पर ही रह जायेगा तब सर्वत्र सीयराम का दर्शन कैसे हो पायेगा?
 छिपा समझने का दूसरा कारण यह है कि उनके अवतारी साकार रूप राम, कृष्ण और उनके अन्य साकार रूप जिन्हें हम विग्रह के रूप में पूजते हैं,हमारी कल्पना में भरे हुए हैं। हमलोग अपनी कल्पना के अनुरूप उनके सजीव शरीरी रूप में दर्शन को ही दर्शन समझते हैं। उन विग्रहों को हम प्रतीक मात्र मानते हैं। यहीं भूल हो जाती है-कि वह प्रतीक भी हैं और साक्षात देव अथवा देवी भी हैं। जब उस परम तत्तव के अतिरिक्त कोई है ही नहीं,तो उस विग्रह में उन्हीं की सत्ता तो मूर्तिमान है। जब हम निस्सन्देहतापूर्वक इसे अन्त:करण से स्वीकार कर लें तब उसी विग्रह में उस देव/देवी का साक्षात दर्शन होगा। बहुत वर्ष पुरानी बात है मेरठ में गृहस्थ संत प्रो0 शिवानन्द जी से मिलने गया था। मुझे वह अपनी पूजा गृह में ले गये। हनुमान जी की तस्वीर टंगी थी। मैंने कहा बहुत अच्छी तस्वीर है। वह तपाक से बोले मेरे तो यह हनुमान जी हैं। यही दृष्टि का फेर है। उनकी दृष्टि में वह साक्षात हनुमान जी ही थे। उन्होंने सही ही कहा था। संतों से सुना है कि वह भक्तों की तीव्र उत्कण्ठा/लालसा के वश होकर साकार सजीव शरीरी रूप में भी दर्शन देते हैं और विनोद लीला भी करते हैं।
और ईश्वर का दर्शन,उनकी अनुकम्पा के रूप में भी तो होता है। हर व्यक्ति के जीवन में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जो प्रभु की विशेष अनुकम्पा का ही परिणाम होते हैं। यदि हम उसे chance या good luck कहने के बजाय प्रभु की कृपा समझेंगे तो हमें उनकी अनुकम्पा के ही रूप में उनका दर्शन होगा और हम उस अनुभूति से आनन्द विभोर हो जायेंगे।
बहुत साल पुरानी बात है स्वामी कृष्णानन्द जी महाराज को मोटर कार से लेकर जा रहा था। यकाएक एक लड़का कार के सामने से रोड क्रास करके भाग गया। मैंने स्वामी जी से कहा कि भगवान ने खूब बचाया -मेरी कोई गलती नहीं,पर यदि लड़का कार की चपेट में आ जाता तो पब्लिक मेरी कार तोड़ दी होती और मेरी पिटाई भी कर दिया होता। वह हमेशा मौन रहा करते थे, कागज़ पर लिखा '' He protects us all the time'' ''पर जब कोई unusual बात हो जाती है तब हमें भगवान ने बचाया, ऐसा कहते हैं।'' उन्होंने आगे लिखा कि '' We must learn to see His Grace in every event''
सच ही कहा है। हम साँस ले रहे हैं, कान से सुन रहे हैं, मुँह से बोल रहे हैं ऑंख से देख रहे हैं आदि यह सब भी event ही तो हैं और यह सब उन्हीं की अनुकम्पा से ही तो हो रहा है। यह सोच हमारे जीवन में उतर जाय तो फिर उनकी living presence की अनुभूति होती रहे और बस आनन्द ही आनन्द रहे।

Monday, March 7, 2011

-: साधन सूत्र-20 :-

-: साधन सूत्र-20 :-

साधन-पथ के लिये गुरु


यह एक आम धारणा है कि साधन-पथ पर चलने के लिए,अपने नित्य अविनाशी रसरूप जीवन का बोध के लिये या नित्य अविनाशी सत्य-ईश्वर या जिस ढंग़ से कहें की प्राप्ति के लिये गुरु की आवश्यकता अनिवार्य है और उसका तात्पर्य शरीरी गुरु से होता है
ब्रहमनिष्ठ संत स्वामी शरणानन्द जी,जिन्होंने मानव सेवा संघ दर्शन प्रदान किया, का कथन था कि यदि शरीरी गुरु अनिवार्य है तो गुरु परम्परा में प्रथम शरीरी गुरु का गुरु कौन रहा होगा। तो मानना पड़ेगा कि वही अविनाशी तत्व, वही सत्य- वही ईश्वर जो सभी में विद्यमान है, गुरु-तत्तव के रूप में उन प्रथम गुरु का गुरु था।
इसलिये उनका कहना था ''शरीर में गुरु बुध्दि और गुरु में शरीर बुध्दि भारी भूल है क्योंकि गुरु-तत्तव अनन्त ज्ञान का भण्डार है। गुरु,हरिहर और सत्य में भेद नहीं है। गुरु-तत्तव अनादि, अनुत्पन्न तत्तव है।''
साधन पथ में हमारा जो साध्य है ''उस साध्य तत्तव का ही प्रकाश गुरु-तत्तव है जो मानव मात्र को सर्वदा प्राप्त है। प्राप्त गुरु-तत्तव में अविचल आस्था,श्रध्दा,विश्वास अनिवार्य है और यही वास्तविक गुरुपूजा है।''
प्रश्न उठता है कि गुरु-तत्व का अर्थ क्या है। स्वामी जी ने बताया कि ''गुरु-तत्तव क्या है,इस सम्बन्ध में विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि जिस तत्तव के द्वारा मानव स्वयं भूलरहित जो जाता है, वही वास्तविक गुरु-तत्तव है।''
''अपनी ही भूल से उत्पन्न हुए अभाव आदि से पीड़ित होकर जब वास्तविका की जिज्ञासा जागृत होती है,तब उसे स्वत: चेतना जो अनादि अनन्त तत्तव है, प्रेरणा देती है, और अभाव तथा अशान्ति का अन्त करने की राह
दिखाती है। उस प्रेरणा को आदरपूर्वक स्वीकार करने से ही मानव दीक्षित होता है और फिर वह स्वत: स्वाधीनतापूर्वक अपनी वास्तविक माँग को पूरा कर सदा-सदा के लिए निश्चिन्त निर्भय होकर नित नव रस से परिपूर्ण हो जाता है।
यही जीवन का सत्य है। सत्य को स्वीकार करना ही गुरु-तत्तव से अभिन्न होना है और यही सफलता की कुंजी है।
आगे उन्होंने कहा है कि ''मानव-मात्र प्राण एवं विवेक का अद्भुत संयोग है। भगवान की अहैतु कृपा से प्राप्त यह अलौकिक विवेक ही पहला गुरु है। जो प्राप्त विवेक का आदर करता है उसे बाह्य गुरु की आवश्यकता नहीं होती। जो इसका आदर नहीं करता वह दूसरे गुरु को पाकर भी साधन निर्माण नही कर पाता।''बाह्य सद्गुरु किसी भी व्यक्ति के नित्य प्राप्त विवेक के प्रकाश में उदित ज्ञान का मात्र समर्थन करता है और उसे उस ज्ञान का आदर करके साधन पथ पर अग्रसित होने के लिये प्रेरणा देता है परन्तु अपने ज्ञान का आदर और बाह्य गुरु की प्रेरणा को स्वीकार तो उस व्यक्ति को ही करना पड़ेगा।
इसीलिए मानव सेवा संघ कहता है कि प्रत्येक मानव अपना गुरु स्वयं है।
यह भी ध्यान देने की बात है कि वर्तमान में साधु-सन्यासी का रूप बनाये छद्मबेशी बहुतायत में हैं। ऐसे लोग दावा करते हैं कि मैं तुम्हें ज्ञान दे दूँगा, भवगत् साक्षात्कार करा दूँगा। ऐसे में यह समझना चाहिए कि कोई भुलावा अवश्य है। गुरु बनकर दूसरे के सुधार की बात वे ही लोग कहते हैं जो सुधार के नाम पर सुख भोग में प्रवृत्त होते हैं। सरल और सीधे-साधे सहज विश्वासी (credulous) लोग इनके बहकावे में आ जाते हैं और अर्थ का अनर्थ हो जाता है। आये दिन ऐसे कथित साधु-सन्यासियों (Self proclaimed gurus) के कुकर्मों का भण्डाफोड़, के समाचार मिलते हैं। उनके ठिकानों पर पुलिस छापे में अनेको आपत्तिजनक सामान बरामद होते हैं,गिरफ्तारी के भय से भागते फिरते हैं और पकड़े जाने पर मुकदमा झेलते हैं। ऐसे में वे सहज विश्वासी जो ज्ञान लेने और परमार्थ के लिए उनसे जुडे, वे ठगे महसूस करते हैं। कई तो ऐसे छद्मवेशी गुरुओं की दुर्वासनों के शिकार भी बन जाते हैं।
कुछ ऐसे भी होते हैं जो कुकृत्यों में तो लिप्त नहीं होते परन्तु गुरु कहलाने के प्रलोभन से,और इससे औरों की दृष्टि में अपने को विशेष प्रदर्शित करके अपना मूल्य बढ़ाकर अपनी ख्याति के लोभवश अथवा गुरु बनने और कहलाने के राग वश, शिष्य बनाते और कथित रूप से ज्ञान बाँटने का दंभ भरते हैं। परन्तु ऐसे लोग जब अपने में ही विद्यमान गुरुतत्तव के प्रकाश में अपने को अपना गुरु नहीं बनाया वह दूसरों का गुरु क्या बन सकता है? और क्या ज्ञान बाँटेगा? जो लोग ऐसे लोगों से, साधन पथ के लिए मार्ग-दर्शन हेतु जुड़ते हैं या शिष्यत्व स्वीकार करते हैं उन्हें भुलावा ही मिलता है। ज्ञान के नाम पर अज्ञान ही बाँटते हैं। जिनके स्वयं के अन्दर अन्धकार है वह दूसरों को ज्ञान का क्या प्रकाश दे सकता है।
जो महापुरूष हमें यह स्पष्ट संकेत करता है कि सत्य का वह प्रकाश,वह गुरू-तत्तव हममें ही विद्यमान है,जिसके आदर से हमें प्रकाश का बोध हो सकता है,वही वास्तव में सद्गुरू है। जो सद्गुरू होता है वह मानव-मात्र में विद्यमान विवेकरूपी सद्गुरू को लखा देता है। सद्गुरू स्वयँ गुरू बनने की कामना से सर्वथा मुक्त होता है।
हमारे पवित्र ग्रंथ गीता, रामचरित मानस आदि भी तो हमें इस सत्य से परिचित कराकर सद्गुरु का ही कार्य करते हैं। सिख समुदाय ने तो गुरु परम्परा समाप्त करके गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना नित्य अविनाशी गुरु बना लिया।
अत: यह निर्विवाद है कि साधन-पथ के लिए शरीरी गुरु अनिवार्य नहीं है। हम जीवन के सत्य को स्वीकार करके और विवेक का आदर करके स्वयं ही अपने गुरु हो सकते हैं। संतों से सुना है कि हममें यदि साधन-पथ पर चलने की,सत्य से अभिन्न होने की तीव्र लालसा है और शरीरी सद्गुरु की आवश्यकता है तो हमें उन्हें नहीं ढूंढ़ना पड़ेगा, सद्गुरु हमें स्वयं ही ढूंढ़ लेंगे और आवश्यक मार्ग-दर्शन करा देंगे।



- ब्रह्मलीन संत स्वामी शरणानन्द द्वारा प्रदत्त मानव सेवा संघ दर्शन से।

Sunday, March 6, 2011

-: साधन सूत्र-19 :-

-: साधन सूत्र-19 :-

''भले से भलाई''

''The secret of religion lies not in theories but in practice. To be good and do good that is the whole of religion.''
- Swami Vivekanand

He has not said - do good and you will be good. He has put 'be good' first. If one is good, good deeds follow naturally. But 'be good' how?

जब कोई व्यक्ति अपने बारे में ईमानदारी से सोचता है और अपने को अपनी दृष्टि में निर्दोष एवं भला देखना चाहता है तो प्राय:भलाई-अच्छे कार्य करने को सोचता है और करता भी है।
परन्तु वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति का मूल स्वरूप निर्दोष और विशुध्द होता ही है। जीवन में दोषों और बुराइयों को अपनाकर अपने उस स्वरूप को आच्छादित कर देता है-ढक देता है,जिससे उसका व्यक्तित्व दोष एवं बुराई युक्त हो जाता है।
शीशा साफ-पारदर्शी है,परन्तु उस पर धूल जम जाने पर वह गंदा दिखने लगता है। धूल को अच्छी तरह झाड़ दिया जाता है तो वह पुन: अपने मूल स्वरूप-स्वच्छ एवं पारदर्शी रूप में आ जाता है।
उसी प्रकार जिन दोषों-बुराइयों ने व्यक्ति के मूल दोष-रहित तथा भले स्वरूप को धूल की भाँति आच्छादित किये हुए है, उन्हें अपने जीवन से झाड़कर निकाल देता है तब वह अपने आप ही भला हो जाता है जो वह पहले से ही मूल रूप में है। जैसे झूठ बोलना छोड़ दें तो सच ही तो बोलेंगे।
जब कोई व्यक्ति अपने जीवन से बुराई निकाले बिना ही कोई भला/परोपकारी कार्य करने की सोचता है या करता है तो इसके पीछे प्राय: दो ही आशय होते हैं। प्रथम, इसके पीछे कोई स्वार्थ होता है-दानियों/परोपकारियों की लिस्ट में नाम आ जायेगा,मान सम्मान मिलेगा अथवा चुनाव के लिए वोट बैंक बनेगा,आदि। इससे भला बनना तो दूर रहा, व्यक्तित्व दोषयुक्त,बुराई युक्त यथावत बना रहता है बल्कि और गिरावट ही आती है। द्वितीय, भला बनने की सच्ची (genuine) इच्छा से प्रेरित होकर भलाई का कार्य करता है, परन्तु होता उल्टा है-अहं की पुष्टि और बदले में किसी फल की कामना, कुछ नहीं तो यही कि पुण्य होगा और परलोक सुधरेगा।
अत: यदि भला बनने की सच्ची उत्कष्ठा है तो मानव सेवा संघ दर्शन के अनुसार इस भ्रम को मिटाना होगा कि भलाई के कार्य करके हम भले हो जायेंगे। वास्तविकता यह है कि जब कोई व्यक्ति अपने प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपनी जानी हुई बुराइयों को अपने जीवन में से निकाल देता है, तब वह स्वत: भला हो जाता है। जब वह भला हो जाता है, तब उससे स्वभावत:भलाई होती है। मात्र इस बारे में सजग रहना है कि इस भलाई का कर्तृत्व का अभिमान और उससे किसी प्रकार के फल की अपेक्षा न हो, जैसे मान-सम्मान, कृतज्ञता आदि।
इनसे बचना सहज हो जाता है यदि मन में सच्ची भावना बनी रहती है (और यह यर्थाथ भी है) कि जिस साधन (शरीर बल, धन बल, बुध्दि बल) से किसी की भलाई-सेवा करते हैं, वह साधन प्रकृति ने (ईश्वरवादी है तो)ईश्वर ने ही दिया है और जिस व्यक्ति की हम भलाई/सेवा करते हैं उसी के लिए दिया है। अत: तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा भाव अनुभूत सत्य के रूप में निरन्तर अंतरमन में बना रहे तो यह अभिमान और फलासक्ति से बचने के लिए कवच का काम करेगा।
यहाँ यह स्पष्ट करना श्रेयस्कर होगा कि पुरुषार्थवादी व्यक्ति कह सकता है कि वह सब साधन मैंने अपने पुरुषार्थ से अर्जित किया है। वह यह तो सोचे कि पुरुषार्थ करने की सामर्थ्य भी तो प्रकृति / ईश्वर ने ही दिया है।
भाग्यवादी कह सकते हैं कि मेरे कर्मों से भाग्य बना और मेरे भाग्य से ये सारे साधन जुटे। पर यहाँ थोड़ा भ्रम है। जो प्राप्त होता है उसमें अनेकों के भाग्य जुड़े होते हैं। विचार करने की बात है कि किसी साधन की प्राप्ति अथवा सुखद परिस्थितयों से जो-जो लोग-जैसे परिवार में पत्नी, बच्चे अन्य परिजन प्रभावित होते हैं- उसे उपभोग (Share) करते हैं, क्या उनका भाग्य नहीं जुड़ा हुआ है?अत:यदि ईमानदारी से ऐसा भाव बना रहे तो स्वार्थभाव और अहंकार से बचे रहते हैं।
अत:अपने जीवन में से जानी हुई बुराइयों को निकालना अनिवार्य है। इसके हेतु आत्म-निरीक्षण आवश्यक है, रात में सोने से पहले, जिससे कि की हुई भूल को जानकर उसे पुन: न दोहराने का व्रत (दृढ़ निश्चय) लेकर अपनी स्वाभाविक निर्दोषता को अखण्ड बनायें। जब व्यक्ति अपने प्रति ईमानदार हो जाता है तब उसका आत्म निरीक्षण निरन्तर चलता रहता है, जैसे ही कोई गलत कार्य होता है, उसका विवेक तुरन्त टोक देता है।
किसी-किसी व्यक्ति की ऐसी प्रवृत्ति हो सकती है कि अपने गलत किये को अनुबोध (after thought) द्वारा उचित ठहराने का प्रयास (justify) करता है। इस प्रवृत्ति के पीछे भी यदि देखा जाये तो वह अपने को सही तथा दोषरहित देखने और दिखाने की इच्छा से ही प्रेरित होता है। परन्तु ऐसा करना एक प्रकार से अपने को ही धोखा देने के समान है। उसे तो पूरी ईमानदारी और निष्पक्ष भाव से अपना आत्म-निरीक्षण करना है।
कभी-कभी अनचाहे ही,बिना विचारा,हमसे गलत/कटु बोल निकल जाता है या गलत आचरण हो जाता है। इस संबंध में ब्रह्मलीन संत कृष्णानन्द जी का उद्बोधन बहुत ही प्रासंगिक और अपने कल्याण हेतु अनुकरणीय है:-
''हमारा अवचेतन मन (Subconscious mind) मनोभाव, भावनाओं, विचारों एवं कल्पनाओं का उद्गम स्थान है। वह सोखता (blotting paper) के समान समस्त भावों/विचारों आदि को अन्तर्लीन कर लेता है। वह समस्त सुझावों को बिना किसी तर्क,प्रश्न या शर्त के वास्तविक जानकर स्वीकार करता है। बाद में सुझाव स्वत: चेतन मन में स्थानान्तरित हो जाते हैं और हम तद्नुरूप सोचना, करना शुरू कर देते हैं तथा वैसे ही बन जाते हैं।''
अत: यदि हम अपने को बुराई रहित बना लेते हैं तो हमसे मन वचन कर्म से कोई बुराई होगी नहीं और अपने अवचेतन मन (Subconscious mind) में कोई नये दोषपूर्ण निवेश (input) नहीं जायेंगे और कोई नये गलत संस्कार नहीं बनेंगे। जो पहले से गलत प्रभाव अंकित है वे वर्तमान में किये जाने वाले भूल रहित, दोषरहित आचरण/कार्य से मिटते और नये शुध्द संस्कार बनते जायेंगे।
मानव सेवा संघ के नियम-1 ''आत्म निरीक्षण अर्थात् प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना'' और नियम संख्या-2 ''की हुई भूल को पुन: न दोहराने का व्रत लेकर सरल विश्वास पूर्वक प्रार्थना करना''का निष्ठापूर्वक पालन करने से हमारा अवचेतन मन (Subconscious mind) अशुध्द संस्कारों से रहित हो जायेगा और चेतन शुध्द हो जाने से हमसे चाहे या अनचाहे कोई गलत कार्य होगा नहीं।
इसी आशय का संदेश स्वामी कृष्णानन्द जी का है कि ''रात्रि में सोने से पूर्व हम जो आत्म सुझाव (auto suggestion) अपने अवचेतन मन को देते हैं उनसे हमारे संस्कार प्रबल, प्रभावपूर्ण और सकारात्मक बनते हैं'' जैसे- मैं निश्चिन्त हूँ-मैं निर्मल हूँ-मैं शांत हूँ- मैं संसार से असंग हूँ- मैं जीवनमुक्त हूँ-मैं सच्चिदानन्द हूँ-मैं विश्वआत्मा हूँ'' आदि ।
इस प्रकार अपने जीवन में से बुराई निकाल देने से चेतन और अवचेतन शुध्द हो जाने से स्वभाव से ही हमसे भलाई होगी। स्वामी शरणानन्द जी का उद्बोधन है कि भलाई करो चाहे न करो, पर किसी को बुरा न समझो, किसी का बुरा न चाहो और किसी के प्रति बुराई न करो, तो यह स्वयं में संसार की बहुत बड़ी सेवा है।

Friday, March 4, 2011

-: साधन सूत्र-18 :-

-: साधन सूत्र-18 :-

अपने प्रति न्याय



ब्रह्मलीन संत स्वामी शरणानन्द जी के द्वारा प्रणीत मानव सेव संघ के जीवनोपयोगी ग्यारह नियमों में तीसरा नियम है:-

''विचार का प्रयोग अपने पर और विश्वास का दूसरों पर अर्थात् न्याय अपने पर और प्रेम तथा क्षमा अन्य पर''

प्रश्न् उठता है कि न्याय अपने पर का अर्थ क्या है? संतवाणी में कहा गया है कि ''न्याय का अर्थ है अपने अपराध से परिचित होना। न्याय का यह पहला अंग है। दूसरा अंग है उससे पीड़ित होना। उसका तीसरा अंग है अपराध को न करने का निर्णय करना। यह हुआ न्याय।''

''इसका फल है निर्दोषता के साथ अभिन्नता। उसका फल है जीवन का उपयोगी सिध्द होना। इस प्रकार का न्याय प्रत्येक भाई, प्रत्येक बहिन अपने साथ कर सकने में समर्थ है। .... निर्दोष जीवन में ही आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति होती है, निर्दोष जीवन में ही निस्सन्देहता के लिए विचार का उदय होता है और निर्दोष जीवन में ही प्रेम का प्रादुर्भाव होता है।''

व्यक्ति का ''सर्वतोमुखी विकास एक मात्र निर्दोष जीवन में ही निहित है और उसका उपाय है-की हुई भूल को न दोहराना, जानी हुई बुराई को न करना, अपने दोषों को देखना और निर्दोषता की स्थापना कर निश्चिन्त और निर्भय हो जाना।''

-ब्रह्मलीन संत स्वामी शरणानन्द जी महाराज

नोट: अभिन्नता का अर्थ है मैं और मेरी निर्दोषता का एकरूप हो जाना।