-: साधन सूत्र-25 :-
मन की चंचलता
बेचारा मन, इसका स्वतन्त्र अस्तित्व है ही नहीं, फिर भी अपयश पाता है, इसकी निन्दा होती है कि मन बड़ा चंचल है, निकृष्ट है, इधर उधर भटकता रहता है, हमें स्थिर नहीं होने देता, ईश्वर से जुड़ने नहीं देता, इत्यादि।
मन के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न अवसरों पर लोगों ने स्वामी शरणानन्द जी से प्रश्न् किये। उन प्रश्नों और उनके उत्तर को ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया जा रहा है:
1. प्रश्न् : जब मैं मानव सेवा संघ की बैठक में आता हूँ और जितनी देर मैं बैठा रहता हूँ,उतनी देर तक मेरा मन शान्त रहता है,परन्तु जब मैं बैठक समापन के बाद घर पहुँचता हूँ तो फिर मुझे मन की चंचलता सताने लगती है। क्या उपाय किया जाय कि मन की चंचलता मिट जाय?
उत्तर : मानव सेवा संघ के दर्शन के अनुसार मन का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। जो चीज़ हमें नापसन्द होती है,उस ओर मन कभी नहीं जाता। यदि हमने मन को अब तक जहाँ लगा रखा था,उस स्थान से हटाकर भगवान में लगा दें तो मन अमन हो जायेगा और अपने आप शान्त,शुध्द एवं स्वस्थ हो जायेगा। परिस्थिति बदलने से मन की चंचलता थोड़ी देर के लिये दब जाती है,मिटती नहीं। मन दर्पण की भाँति अपनी दशा का यथार्थ ज्ञान कराता है,अत: उसे बुरा समझना या उसकी निन्दा करना उचित नहीं है।
2. प्रश्न् : मन रूकता नहीं है,इधर उधर घूमता रहता है। इसका क्या कारण है?
उत्तर: मन के न रूकने का दु:ख नहीं है। मन को रोकना आवश्यक है। देखा जाता है कि कोई आवश्यक कार्य पूरा न होने पर मनुष्य को बेचैनी होती है।
धन के अभाव में दु:ख होता है। प्रिय के वियोग में दु:ख होता है। खाना-पीना भी अच्छा नहीं लगता है। दु:ख भुलाने के लिये गलत मार्ग भी स्वीकार करते हैं-जैसे मादक पदार्थों का सेवन आदि,परन्तु दु:ख नहीं मिटता। यह परिस्थिति तो साधारण दु:ख की है। यदि किसी को मन न रूकने का इतना दु:ख हो जावे कि जब तक मन न रूके,दूसरी कोई बात अच्छी न लगे,तीव्र व्याकुलता हो जावे,चैन न पड़े तो मन रूक सकता है। एक साथ दो काम करने की आदत भी मन को स्थिर नहीं होने देती। देहाभिमान भी मन को स्थिर नहीं होने देता। सब ओर से हट जाने को ही मन की स्थिरता कहते हैं। संसार से हटा लेने पर भगवान में मन अपने आप लग जाता है।
3. प्रश्न् : मन को वश में करने का क्या उपाय है?
उत्तर : (1) मन के ऊपर से अपनी ममता का बोझ हटा लो।
(2) अपनी पसन्द को बदल डालो। जहाँ मन लगाना चाहते हो उसे पसन्द कर लो और जहाँ से मन को हटाना हो उसे नापसन्द कर दो।
(3) ज़रूरी काम को पूरा करो और ग़ैर ज़रूरी काम को छोड़ दो।
(4) जो नहीं करना चाहिये और जिसे नहीं कर सकते हो,उसको मत करो और जिसे करना चाहिए और जिसे कर सकते हो,उसे कर डालो।
(5) केवल प्रभु को ही अपना मानो।
(6) अपनी सबसे बड़ी आवश्यकता को अनुभव करो। मन शान्त तथा शुध्द हो जायेगा।
4. प्रश्न् : मन की चंचलता को कैसे रोका जाय?
उत्तर : मानव-सेवा-संघ के दर्शन के अनुसार मन की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। अपनी पसन्द के प्रभाव का समूह ही मन है। जो चीज़ हम पसन्द करते हैं वहाँ मन लग जाता है और जिसको नापसन्द करते हैं,वहाँ से मन हट जाता है।
(1) अत:मन को जहाँ लगाना चाहते हैं उसे पसन्द कर लें और जहाँ से हटाना चाहते हैं,उसे नापसन्द कर दें। मन की चंचलता का भास तभी मिलता है जब हम पसन्द तो संसार को करते हैं और मन भगवान में लगाना चाहते हैं।
(2) दूसरा उपाय यह है कि मन पर से अपनी ममता का भार हटा कर उसको भगवान के हवाले कर दें। वे उसे शुध्द,स्वस्थ एवं शान्त कर देंगे। फलत:मन की चंचलता समाप्त हो जायेगी।
(3) मन एक प्रकार का दर्पण है जो वस्तुस्थिति का बोध कराता है,मन को बुरा न समझें,न उसकी निन्दा करें,बल्कि विवेक के प्रकाश में अपनी वस्तुस्थिति का अध्ययन करें और अपने में जो कमियाँ दिखाई पड़ें,उन्हें सत्संग के प्रकाश में दूर करने का उपाय करें। इससे भी मन की चंचलता दूर होती है। जो नहीं कर सकते और जो नहीं करना चाहिये उसके न करने से तथा जो करना चाहिये और कर सकते हैं,उसके कर डालने से मन शान्त हो जाता है।
-संतवाणी (प्रश्नोत्तर) से उध्दरित
राँची में एक गांधीवादी सज्जन ने श्री महाराज जी (स्वामी शरणानन्द जी) से कहा- ''महाराज जी, मन को मारने का क्या उपाय है?''
श्री महाराज जी ने कहा ''राम,राम,गांधी जी के शिष्य होकर,मारने की बात करते हो! गांधी जी ने तो असहयोग का मार्ग अपनाया था। आप मन से असहयोग कर दो,मन समाप्त हो जायेगा।''
एक अन्य अवसर पर ऋषिकेश (गीता भवन) में प्रवचन से पूर्व एक संत ने स्वामी जी से पूछा-
''महाराज,मन बड़ा चंचल है,इसको एकाग्र करने की टेक्नीक बतायें''
श्री महाराज जी कहने लगे-
''मन किसी टेक्नीक से एकाग्र नहीं होता। सम्बन्ध एक से रखो और उसके नाते सेवा अनेक की करो। मन तो वहाँ जाता है जहाँ आपने अपना सम्बन्ध जोड़ रखा है। मन को एकाग्र करने का प्रयास मत करो, अपना सम्बन्ध बदल डालो।''
-संत-जीवन-दर्पण से उध्दरित
अत:संत की सलाह मान कर,मन को दोषी न बता कर,अपनी पसन्दगी बदलना होगा,प्रभु को पसन्द करना होगा जिससे कि मन उन्हीं में लग जाय और हमारे छुटाये से भी न छूटे।
कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो कहें कि हम ईश्वर को तो मानते नहीं,फिर हम क्या करें। ऐसे लोगों पहले यही नेक सलाह होगी कि भइया,ज़िद्द को छोड़कर ईश्वर को मान लो उसी प्रकार से जिस प्रकार से बिना तर्क के मान लेते हो कि यह मेरा भाई है,बहिन है,माता हैं,पिता हैं।
इसके बावजूद यदि कोई ईश्वर को न मानने पर ही अडिग है,तो इसमें कोई बाधा या पराधीनता तो नहीं है कि हम अपनी पसन्दगी सुख-भोग से हटा कर पर हित और पर सेवा में लगा दें। अपनी पसन्दगी अपनी निर्दोषता और बुराई रहित तथा अभाव रहित जीवन के प्रति कर दें। स्वार्थ,लोभ और द्वेष से हटा कर उदारता,सबके प्रति सद्भाव और स्नेह की एकता के प्रति कर दें।
मान-सेवा-संघ दर्शन के अनुसार उदारता का अर्थ है 'दुखियों को देखकर करूणित होना और सुखियों को देखकर प्रसन्न होना।' और उदारता में रस है। सुख-भोग से मन हट गया तो पराधीनता मिट गई, स्वाधीन हो गये;स्वाधीनता में भी रस है। आगे चल कर प्रियता का अगाध-अनन्त रस भी मिल जायेगा।
अत: मन को दोष न देकर,अपनी पसन्दगी बदलना अनिवार्य है।
-मानव सेवा संघ दर्शन पर आधारित