Wednesday, June 8, 2011

-: साधन सूत्र-51 :-

-: साधन सूत्र-51 :-

जीवनोपयोगी संत-वचन (भाग-2)


साधन-सूत्र-50 में स्वामी शरणानन्द जी के जीवनोपयोगी कुछ वचन जो प्रश्नोत्तर के रूप में है, प्रस्तुत किया गया। उसी क्रम में साधन-पथ के लिए कुछ और सामग्री (पाथेय) प्रस्तुत है:-

1. मानव सेवा संघ दर्शन में हमने अनेक बार सुना है कि 'अपना कल्याण और सुन्दर समाज का निर्माण' या अपने को सुन्दर बनाओ सुन्दर समाज का निर्माण स्वत: होगा।' इस बिन्दु को स्वामी शरणानन्द जी ने निम्नलिखित प्रश्नोत्तर में इस प्रकार स्पष्ट किया है:-

प्रश्न्: मानव सेवा संघ का उद्देश्य क्या है?

उत्तर:  मानव  सेवा  संघ  का  उद्देश्य  मानव  का  अपना  कल्याण  और  सुन्दर समाज का निर्माण है। अपने कल्याण का अर्थ है अपनी प्रसन्नता के लिए 'पर' की आवश्यकता न रहे। सुन्दर समाज का अर्थ है ऐसे समाज का निर्माण जिसमें सभी के अधिकार सुरक्षित हों, किसी के अधिकार का अपहरण न होता हो। इस उद्देश्य की पूर्ति दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने अधिकार के त्याग से होती है। दूसरों के अधिकार की रक्षा करने से सुन्दर समाज का निर्माण और विद्यमान राग की निवृत्ति होती है और अपने अधिकार के त्याग से नवीन राग की उत्पत्ति नहीं होती है।

नोट: अपने नित्य अविनाशी रसरूप जीवन की प्राप्ति के लिए राग-रहित जीवन में साधन की अभिव्यक्ति होती है।

2. मानव सेवा संघ दर्शन में मानव की जो व्याख्या की गई है उसके अनुसार ''मानव किसी आकृति विशेष का नाम नहीं है। जो प्राणी अपनी निर्बलता एवं दोषों को देखने और उन्हें निवृत्त करने में समर्थ (तत्पर) है, वही वास्तव में 'मानव' कहा जा सकता है।'' फिर कहा गया है कि  प्रत्येक  मानव  की  सार्विक  (universal)  मांग   होती   है - शान्ति,स्वाधीनता और प्रेम की। एक साधक ने इसी की प्राप्ति के सम्बन्ध में स्वामी जी से प्रश्न् किया:


प्रश्न्: मांग कैसे पूरी हो सकती है?

उत्तर: मांग तीन प्रकार से होती है। कामना को लेकर,लालसा को लेकर तथा जिज्ञासा को लेकर। भोगों की कामना,सत्य की जिज्ञासा और प्रभु प्रेम की लालसा। जिज्ञासा कहते हैं जानने की इच्छा को,लालसा कहते हैं पाने की इच्छा को और कामना कहते हैं भोगों की इच्छा को। जिसमें भोग की कामना सत्य की जिज्ञासा और परमात्मा की लालसा होती है उसे 'मैं' कहते हैं। कामना भूल से उत्पन्न होती है,उसकी निवृत्ति हो सकती है। जिज्ञासा और लालासा स्वभाव से ही उत्पन्न है, उसकी पूर्ति हो जाती है। अत: कामना की निवृत्ति, जिज्ञासा की पूर्ति और परमात्मा की प्राप्ति मनुष्य को हो सकती है।

3. किसी साधक ने सेवा, त्याग, प्रेम के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रश्न् किया, वह और उसका उत्तर उध्दरित है:-

प्रश्न्: मानव सेवा संघ के दर्शन में सेवा, त्याग और प्रेम की बात कही जाती है। इसमें से किसी एक को लेकर चला जाय या तीनों को?

उत्तर: हर मानव को तीन शक्तियाँ विधान से मिली हैं:-

(1) करने की शक्ति (कर्तव्य)

(2) जानने की शक्ति (ज्ञान)

(3) मानने की शक्ति (विश्वास)

इन तीनों शक्तियों में से किसी एक शक्ति की प्रधानता होती है। अत: साधक में जिस शक्ति की प्रधानता हो उसको लेकर चलना चाहिये। शेष दोनों शक्तियों का विकास अपने आप हो जायेगा। साधक चाहे तो तीनों साथ साथ लेकर भी चल सकता है।

4. साधन-सूत्र-33 शीर्षक 'सेवा अर्थ और स्वरूप' में सेवा के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है। मानव सेवा संघ के ग्यारह नियमों में सातवाँ नियम है: निकटवर्ती जन समाज की यथाशक्ति क्रियात्मक रूप से सेवा करना।' एक साधक ने इसी के अर्थ के बारे में स्वामी जी से प्रश्न् किया-

प्रश्न्: निकटवर्ती जनसमाज की यथाशक्ति क्रियात्मक सेवा करने का क्या अर्थ है?

उत्तर: सेवा दो प्रकार की होती है-एक क्रियात्मक दूसरी भावात्मक। भावात्मक सेवा असीम होती है और अपनी शक्ति के अनुसार जिन व्यक्तियों से अपना माना हुआ सम्बन्ध है, उनकी क्रियात्मक सेवा की जा सकती है। अत: जो समाज हमारे समीप है यथाशक्ति उसकी क्रियात्मक सेवा करने की बात कही गई है। सबसे निकट हमारा शरीर है, उसके बाद परिवार के सदस्य अन्य सम्बन्धी, पड़ोसी इत्यादि आते हैं।

नोट: शरीर की सेवा का क्या अर्थ है, इसका उल्लेख साधन-सूत्र-15 शीर्षक 'साधक-साधन और साध्य' में किया गया है।

5. साधन-सूत्र-27 शीर्षक 'क्‍या सुख-भोग ही जीवन है' में यह चर्चा की गयी है कि दु:ख का भोग से बचने के लिए उन कामनाओं जिनकी अपूर्ति और जिन वासनाओं के कारण (जैसे नेत्र-हीन हैं तो देखने की वासना) दु:ख हो रहा है, उनका त्याग करना है। इसी को स्वामी जी ने एक प्रश्न् के उत्तर में बड़े सहज ढंग़ से स्पष्ट किया है:-

प्रश्न्: मानव  सेवा  संघ  की  पहली  प्रार्थना  में  यह  कहा जाता है कि दु:खियों के हृदय में त्याग का बल प्रदान करें। दु:खी बेचारा क्या त्याग करेगा?

उत्तर: जब मनुष्य कुछ चाहता है और उसका चाहा हुआ, नहीं होता है, तो वह दु:ख का अनुभव करता है। इससे सिध्द हुआ कि दु:ख का कारण 'चाह' है। अत: अगर दु:खी दु:ख से छुट्टी पाना चाहता है तो उसे चाह का त्याग कर देना चाहिये। चाह का त्याग करने में मानव मात्र स्वाधीन है।

नोट: इसी प्रकार के प्रश्न् के उत्तर में स्वामी जी ने कहा कि जब बचपन में मेरी ऑंखें चली जाने से जो दु:ख आया,उस मेरे दु:ख को सारी सृष्टि भी मिलकर दूर नहीं कर सकती थी,यदि मैंने देखने की वासना का त्याग नहीं किया होता।

6. प्रेम की प्राप्ति के लिए प्रभु को अपना मानने की बात कही गई है। अपना अपने को प्यारा लगता ही है। इसी विषय को स्वामी जी ने निम्नलिखित ढंग से भी समझाया है:-

प्रश्न:  प्रेम की प्राप्ति कैसे हो?

उत्तर: ''यदि  भगवान  के  पास  कामना  लेकर  जायेंगे  तो भगवान संसार बन जायेंगे और संसार के पास निष्काम होकर जायेंगे तो संसार भी भगवान बन जायेगा। अत: भगवान के पास उनसे प्रेम करने के लिए जाएँ और संसार के पास सेवा के लिए,और बदले में भगवान और संसार दोनों से कुछ न चाहें तो दोनों से ही प्रेम मिलेगा। प्रेम के अतिरिक्त इस जगत में और कुछ सार वस्तु है ही नहीं।''

7. हम सब का अनुभव है कि हमें जीवन में रस की माँग है। जीवन में नीरसता जब होती है तब हम सांसारिक वस्तुओं में,भोग में रस ढूंढ़ते हैं। परन्तु इन्द्रिय सुख भले मिल जाये,रस नहीं मिलता और नीरसता,रस की तृष्णा वैसी ही बनी रहती है। स्वामी शरणानन्द जी ने बताया है कि रस कहाँ मिलेगा और कितने प्रकार का होता है:-''रस चार प्रकार के हैं- (क) उदारता का रस (ख) शान्ति का रस (ग) स्वाधीनता का रस और (घ) प्रेम का रस। दु:खी को देखकर करुणित होना और सुखी को देखकर प्रसन्न होना-यह उदारता का रस है। अचाह होकर शान्त होने में शान्ति का रस है। अपने में सन्तुष्ट होकर स्वाधीन होने में स्वाधीनता का रस है और प्रभु को अपना मानकर उनका प्रेमी होने में प्रेम का रस है।''

8. साधन-सूत्र-37 में व्यर्थ चिन्तन क्या है और उससे मुक्ति कैसे हो सकती है कि चर्चा की गई है। उसमें एक शब्द 'सार्थक चिन्तन भी आया था। स्वामी जी का इस विषय पर एक प्रश्नोत्तर प्रस्तुत है:-

प्रश्न्:  व्यर्थ-चिन्तन और सार्थक-चिन्तन क्या है?

उत्तर: जो वर्तमान का कार्य नहीं है बल्कि भूत का याद है, वही व्यर्थ चिन्तन है। प्राप्त के सदुपयोग के लिए जो भी कुछ किया जाता है वह सार्थक चिन्तन है। व्यर्थ चिन्तन से प्राणशक्ति क्षीण होती है और सार्थक-चिन्तन संसार के काम आता है। दोनों में जीवन नहीं है। स्मृति में जीवन है। चिन्तन और स्मृति अलग-अलग है। स्मृति में प्रियता उमड़ती है। जिसमें स्मृति जगती है तथा जिसकी होती है, वे दोनों एक हो जाते हैं। स्मृति में प्रेम का प्रादुर्भाव होता है। आनन्द बढ़ता ही जाता है। स्मृति का नाम ही भजन है।

एक साधक द्वारा पूछने पर कि व्यर्थ-चिन्तन का नाश कैसे हो, स्वामी जी ने बताया:-

''नीरसता का नाश होने पर व्यर्थ-चिन्तन का नाश हो जाता है। नीरसता का नाश असंगता, उदारता एवं प्रियता से हो जाता है।''

9. 'साधन' की चर्चाओं में अनेक बार 'असंगता' शब्द आया है जिसका अर्थ 'सम्बन्ध-शून्यता' बताया गया है। स्वामी जी के एक प्रश्नोत्तर से यह और स्पष्ट होता है:-

प्रश्न्:  असंगता किसे कहते हैं और उसकी प्राप्ति के क्या उपाय हैं?

उत्तर: असंगता का अर्थ है-जगत से अपने को अलग अनुभव करना (जो जगत का दृष्टा है वह जगत नहीं हो सकता)। सहयोग न देने से स्थूल शरीर से,इच्छा रहित होने से सूक्ष्म शरीर से और अप्रयत्न होने से कारण शरीर से असंगता प्राप्त होती है। तीनों शरीरों से असंग होते ही योग की सिध्दि हो जाती है, जो बोध और प्रेम से ओत-प्रोत है।

10. इसी प्रकार साधन की चर्चा में 'काम' शब्द आता है। 'काम' का व्यापक अर्थ क्या है इसको समझना आवश्यक है। नीचे एक प्रश्नोत्तर महत्वपूर्ण है:-

प्रश्न्:  'काम' का क्या अर्थ है और उसके नाश के क्या उपाय हैं?

उत्तर: ''वस्तु,व्यक्ति परिस्थिति एवं अवस्था के प्रति आकर्षण को 'काम' कहते हैं, अर्थात् 'नहीं' के आकर्षण का नाम ही 'काम' है।

'नहीं' के अस्तित्व को अस्वीकार करने से और 'है' (प्रभु) के अस्तित्व को स्वीकार करने से 'काम का नाश हो जाता है और राम मिल जाते हैं।''

11. साधन-सूत्र-29 शीर्षक 'दुख है क्या' में कहा गया था कि हमारे कर्मों से भाग्य बनता है,और भाग्य से परिस्थितियाँ बनती हैं। इसी को लेकर एक साधक ने प्रश्न् किया जिसका उत्तर स्वामी जी ने इस प्रकार दिया:-

प्रश्न्: जब  सभी  परिस्थितियाँ  भाग्य  से  निर्मित  हैं  तो मानव जीवन में कुछ करने का महत्व क्या है?

उत्तर: ''यह  सही  है  कि  सभी  परिस्थितियों  का  निर्माण  भाग्य से होता है परन्तु उनका सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करने की स्वाधीनता मानव मात्र को मिली है। दूसरी बात,हम किये बिना रह नहीं पाते,क्योंकि करने का राग हममें विद्यमान है। इस विद्यमान राग की निवृत्ति के लिए आवश्यक कार्य सद्भावना पूर्वक लक्ष्य पर दृष्टि रखते हुए, पूरी शक्ति लगाकर शुध्द भाव से करना चाहिये, जिससे करने के राग की निवृत्ति हो जाय।''

-: साधन सूत्र-50 :-

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जीवनोपयोगी संत-वचन भाग-1


मानव सेवा संघ के प्रणेता ब्रहम-निष्ठ,क्रान्त-दर्शी,प्रज्ञा-चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी द्वारा प्रदत्त दर्शन के कुछ उध्दरण नीचे प्रस्तुत हैं जो अनमोल रत्न के समान हैं जिन्हें धारण करके हम अपने जीवन को सुन्दर और आनन्दमय बना सकते हैं। इस साधन-सूत्र के पहले जीवन संबंधी अनेक विषयों पर साधन-सूत्र के रूप में जो चर्चा हुई है उनके लिये अब प्रस्तुत उध्दरण में से कई पूरक के रूप में उपयोगी होंगे और सभी वास्तविक नित्य,अविनाशी,रसरूप जीवन की प्राप्ति के लिये मार्गदर्शक और प्रेरणादायक सिध्द होंगे। अधिकांश प्रश्नोत्तर के रूप में हैं जिन्हें इस साधन सूत्र-50 और अगले साधन सूत्र-51 में उल्लेख किया जा रहा है:-

1. प्रश्न्: स्वामी जी बोध किसे कहते हैं?

उत्तर: यह सब सृष्टि, ब्रह्मा, विष्णु, महेश सब कुछ मैं ही हूँ। यह है बोध, यानि बोध में अहम विभू हो जाता है।

नोट: मानव जीवन की मांग या लक्ष्य, योग-बोध-प्रेम बताया गया है। उसी बोध शब्द का अर्थ स्पष्ट किया गया है।

2. प्रश्न्:  चेतना क्या है?

उत्तर: चेतना  सूर्य  के  समान  है  जो  स्वयं  प्रकाशित है और जिससे जड़ पदार्थ प्रकाशित होते हैं।

नोट: पहले एक प्रसंग में जड़ता का अर्थ लिखा गया था- अपने स्वरूप की विस्मृति' वही दूसरे शब्दों में-

3. प्रश्न्: जड़ क्या है,

उत्तर: जो  दूसरों  की  सत्ता  से  प्रकाशित  हो,  जो स्वाधीन न हो और जो पराधीन हो वह जड़ है।

4. प्रश्न्:  आनन्द क्या है?

उत्तर: जो होकर कभी मिटे नहीं। जिसके मिलने पर फिर कुछ और पाने की इच्छा न रहे, वही आनन्द है।
5. प्रश्न्: महाराज जी जीवन-मुक्त कौन है?

उत्तर: जो ईमानदार है और ईमानदार वही है जो संसार की किसी भी चीज को अपना नहीं मानता है।

6. प्रश्न्: जीवन मुक्ति का स्वरूप क्या है?

उत्तर: इच्छायें रहते हुए प्राण चले जायें, मृत्यु हो गई, फिर जन्म लेना पड़ेगा और प्राण रहते इच्छायें चली जायें,मुक्ति हो गई। जैसे बाजार गए पर पैसे समाप्त हो गए और जरूरत बनी रही तो फिर बाजार जाना पड़ेगा और यदि पैसे रहते जरूरत समाप्त हो जाये तो बाजार काहे को जाना पड़ेगा।

7. प्रश्न्: स्वाधीन जीवन से क्या तात्पर्य है?

उत्तर: जिस व्यक्ति को अपनी प्रसन्नता के लिये दूसरों की ओर देखना नहीं पड़ता, उसी का जीवन स्वाधीन है।

8. प्रश्न्: सबसे बड़ी बुराई क्या है?

उत्तर: पराधीनता को पसन्द करना सबसे बड़ी बुराई है। पराधीन बने बिना कोई भी सुख भोग नहीं सकता। अत: पराधीनता-जनित सुख का भोग सबसे बड़ी बुराई है,जिसका जन्म,जो अपना नहीं है उसको अपना मानने से और जो अपना है, उसे अपना न मानने से होता है।

नोट: एक अन्य अवसर पर उन्होंने इसी को दूसरे ढंग से समझाया है।

9. प्रश्न्: बुराई क्या है?

उत्तर: हमारे स्वाधीन होने में जो बाधक होवे,हमारे उदार होने में जो बाधा डाले और हमारे प्रेमी होने में जो बाधा डाले, वही बुराई।

10. प्रश्न्:  बुराई रहित होने का क्या उपाय है?

उत्तर: ईश्वर के नाते सभी को अपना मानना बुराई रहित होने का सुगम उपाय है, क्योंकि अपने के साथ कोई बुराई नहीं करता।

11. प्रश्न्: मरने से क्यों डर लगता है?

उत्तर: प्राण-शक्ति के नाश हो जाने और वासनाओं के शेष रह जाने का ही नाम मृत्यु है। यदि प्राण शक्ति के रहते सर्व वासनाओं का नाश हो जाये तो मरने से डर नहीं लग सकता हैं।

नोट: सर्व वासनाओं में जीने की चाह भी शामिल है। जब तक जीना है तब तक जीयेंगे ही, परन्तु चाह रहित होकर जीयेंगे तो मृत्यु का भय नहीं सतायेगा।

12. प्रश्न्: असत् क्या है?

उत्तर: असत्  वही  है  जिसे  आप  अपने  प्रति  नहीं करना चाहते। जब अपने साथी को बेईमान नहीं देखना चाहते तो हम जिसके साथ रहते हैं या व्यवहार करते हैं, उनके प्रति ईमानदार बनें।

13. प्रश्न: विवेक और बुध्दि में क्या अन्तर है?

उत्तर: विवेक  प्रकाश  है  और  बुध्दि  दृष्टि  है। जैसे चक्षु-इन्द्रिय सूर्य के प्रकाश में कार्य करती हे,वैसे ही बुध्दि विवेक के प्रकाश में कार्य करती है। विवेक का आदर करने से बुध्दि विवेकवती हो जाती है। उस बुध्दि की बड़ी महिमा है।

14. प्रश्न्: क्या साधन करने के लिए घर गृहस्थी आदि छोड़ना आवश्यक है?

उत्तर: साधन के निर्माण के लिए सत्संग करना आवश्यक है, किसी परिस्थिति विशेष का कोई अर्थ नहीं है। सत्संग करने में मानव मात्र हर परिस्थिति में समान रूप से स्वाधीन है।

15. प्रश्न्: गृहस्थ जीवन में रहते हुए साधन सम्बन्धी बातें बहुत कठिन मालूम पड़ती हैं, क्या किया जाय?

उत्तर: गृहस्थ  जीवन, वास्तविक  जीवन  की  एक  प्रयोगशाला  है। यदि हम दूसरों के अधिकारों की रक्षा करते हुए अपने अधिकार का त्याग कर दें तो पूरा गृहस्थ जीवन साधन-युक्त हो जायेगा और किसी प्रकार की कठिनाई मालूम नहीं पड़ेगी। परन्तु हम भूल के कारण अपने अधिकारों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं, फलत: गृहस्थ जीवन में कठिनाई मालूम होती है।

16. प्रश्न्: सर्व दु:खों की निवृत्ति कैसे हो सकती है?

उत्तर: इच्छा पूर्ति में सुख और अपूर्ति में दु:ख का अनुभव होता है। अत: इच्छा रहित होने से दु:ख की निवृत्ति हो जाती है जो विवेक का आदर करने से साध्य है।

17. प्रश्न्: दु:ख का आना मानव के लिए पतित अथवा पापी होने का परिचय है क्या?

उत्तर: दु:ख का आना पतित होने का फल नहीं है। दु:ख तो भोग की आसक्ति को मिटाने के लिए आता है।

18. प्रश्न्: भय और दरिद्रता का नाश कैसे हो?

उत्तर:  ममता छोड़ने से भय और कामना छोड़ने से दरिद्रता का नाश हो जाता है।

नोट: एक अवसर पर स्वामी जी ने कहा कि 'देहाभिमान में ही समस्त भय निहित है'।

19. प्रश्न्: लोभ और मोह का नाश कैसे हो?

उत्तर: मिले हुए को अपना और अपने लिए न मानने से लोभ और मोह का नाश होता है। मोह का नाश होने से भय का नाश होता है और लोभ का नाश होने से दरिद्रता का नाश होता है।

20. प्रश्न्: मिले हुए को अपना न मानने का क्या अर्थ है?

उत्तर: मिले हुए के द्वारा सुख भोगने की आशा न रखना अपितु उसके द्वारा दूसरों की सेवा करना।

21. साधन-पथ के लिए स्वामी जी द्वारा प्रदत्त एक अन्य महत्वपूर्ण सूत्र:-

(i) जिसके न होने की वेदना है, वह होने लगता है और जिसके होने की वेदना है, वह अपने आप मिट जाता है।

(ii) निर्बलताओं को मिटाने के लिए व्याकुलतापूर्वक प्रेम-पात्र से प्रार्थना करो।''

नोट: ''निर्बलताओं का अर्थ है जिस कारण से चाहते हुए भी जो करना चाहिये उसे करते नहीं, और जो नहीं करना चाहिये उसको छोड़ते नहीं।''

22. थोड़े शब्दों में जीवन का पूरा सिध्दान्त:-

(i) ''प्राप्त में ममता नहीं, प्राप्त का दुरुपयोग नहीं और अप्राप्त की कामना नहीं। बस, कर्तव्यपरायणता असंगता और स्थिरता आ जायेगी। विचार की दृष्टि से वस्तु मेरी नहीं,कर्म की दृष्टि से वस्तु का दुरुपयोग नहीं और भाव की दृष्टि से सब कुछ प्रभु का है।''

(ii) ''बुराई रहित हो जाओ, भलाई होने लगेगी। ममता, कामना छोड़ दो, शान्ति मिल जायेगी। अह्म का अभिमान गला दो,स्वाधीन जीवन मिल जायेगा। प्रभु को अपना मान लो, ध्यान-भजन-पूजन स्वत: होगा।

23. मानव सेवा संघ दर्शन पर आधारित एक सूत्र:-

हमें अपने बारे में पूरा ज्ञान होता है,परन्तु दूसरों के बारे में हमारा ज्ञान हमेशा अधूरा रहता है। इसलिये अधूरे ज्ञान के आधार पर किसी को बुरा मान लेने का हमें अधिकार नहीं है।

-: साधन सूत्र-49 :-

-: साधन सूत्र-49 :-

क्‍या चाह और कामना के अभाव में निष्क्रियता आ जायेगी


नहीं ऐसा नहीं होता विचार करने की बात है कि यदि कोई ऐसा सोचता है कि कर्म के लिए चाह या कामना आवश्यक है तो उस दशा में भगवान श्री कृष्ण द्वारा मानव जाति के लिए प्रदत्त कर्मयोग और निष्काम-कर्म का सारा ज्ञान वृथा हो जायेगा।

यदि किसी कर्म के पीछे प्रेरक, कामना या चाह है तो सबसे पहले यह मानना होगा कि हम अपनी कामना चाह की पूर्ति हेतु गलत/अवांछनीय तरीके भी अपना सकते हैं। दूसरे किसी की सभी कामनाएँ कभी पूरी नहीं होतीं अत: कामना/चाह की अपूर्ति में दु:ख और निराशा प्राप्त होगी।

साधन-सूत्र-33 शीर्षक 'सेवा का अर्थ एवं स्वरूप में स्वामी शरणानन्द जी के शब्दों का उल्लेख किया गया है कि सेवा करने के लिए राग अपेक्षित नहीं है, अपितु उदारता की अपेक्षा है।

एक साधक ने स्वामी जी से प्रश्न् किया कि बिना इच्छा के कर्म कैसे हो सकता है। इसका समाधान स्वामी जी ने इस प्रकार किया:-

''देखो। कर्म और चीज है, सेवा और चीज है। कर्म तो होता है अपने सुख के प्रलोभन को लेकर और सेवा होती है दूसरों के हित को लेकर। आपकी इच्छायें अपने सुख को लेकर न उठें,हमारी पीड़ा को लेकर उठें। हे भगवान तुमने मुझे ऑंखें दी हैं, मैं अन्धे के काम आ जाऊॅं। हे भगवान तुमने मुझे धन दिया है, मैं निर्धन के काम आऊॅं। हे भगवान तुमने मुझे बल दिया है, मैं निर्बल के काम आऊॅं।''

''आप इच्छाओं का रुख बदल दीजिये, इच्छायें मिट जायेंगी। परन्तु दु:ख की बात यह है कि आपको जो कुछ मिलता है आप उसे से सुख लेना चाहते हैं। आप समाज व परिवार को कुछ देना नहीं चाहते, उनसे सुख की अपेक्षा करते हैं। इच्छा यह उठे कि मैं दूसरों के काम आ जाऊॅं। जब आपकी यह मांग सबल हो जायेगी, इच्छायें मिट जायेंगी। भगवान ने आपको इतना सुन्दर बनाया है कि आप चाहो तो सारे संसार के काम आ जाओ।''

''आप कहें कि कैसे आ जायें, हमारे पास तो थोड़ा सा बल है, और संसार बहुत बड़ा है। मानव सेवा संघ कहता है कि मन, वाणी कर्म से बुराई रहित हो जाओ, संसार के काम आ जाओगे। बुराई मत करो, भलाई करो या न करो।''

कोई प्रश्न् कर सकता है कि यदि किसी व्यक्ति-उदाहरणार्थ एक विद्यार्थी में कोई महत्वाकांक्षा (ambition) और चाह (desire) नहीं होगी तो वह पढ़ाई ठीक से करने के लिए कैसे उत्प्रेरित होगा। यहीं पर हम लोगों से भूल होती है कि हम बच्चों के ऊपर अपनी इच्छाओं/कामनाओं का बोझ लाद देते हैं कि तुम्हें कक्षा में अव्वल आना है,तुम्हें आई0ए0एस0/डाक्टर/इन्जीनियर आदि बनना ही है। कभी-कभी बच्चे स्वयँ भी गलत धारणाओं के कारण अपने लिए targets fix कर लेते हैं कि मुझे यह position लाना ही है अमुक पद पाना ही है। इसका नतीजा होता है कि बच्चा तनाव (Stress/tension) में रहता है। और यदि संकल्प (expectation) के अनुरूप सफलता नहीं मिलती है तो हताशा से ग्रसित हो जाता है और अखबारों में अक्सर समाचार आते हैं कि अमुक छात्र ने आत्म-हत्या कर लिया।

अत: बच्चों में चाह/कामना के बजाय कर्तव्यपरायणता का बीज बोना चाहिये। छात्र जीवन में ठीक से पढ़ाई करना छात्र का कर्तव्य है। कर्तव्य-निष्ठा का भाव ठीक से पढ़ाई करने के लिए उत्प्रेरक होना चाहिए। लेखक के एक मित्र पढ़ाई में इसी भाव से सत्र (session) प्रारम्भ होने के पहले ही दिन से regular पढ़ाई करते थे। परिणाम भी अच्छे आते थे। उन्हें जो उपलब्धि हुई उसे उन्होंने कभी लक्ष्य (target) नहीं बनाया। बिल्कुल शान्त मन से कर्तव्य की दृष्टि से पढ़ाई करते थे। बी0एस0सी0 की फाइनल परीक्षा के पूर्व उनके पिताजी इलाहाबाद होस्टल में मिलने आये थे। उन्होंने अपने बेटे से पूछा कि कैसा डिवीजन आयेगा। उन्होंने संकोच (humility) वश धीरे से कहा कि प्रथम डिवीजन आना चाहिये। इस पर पिता जी ने पूछा कि तुमने पढ़ाई ठीक से किया है कि नहीं। उनके हाँ कहने पर पिता जी ने कहा कि तुमने अपनी डयूटी पूरा किया है तो यदि तुम फेल भी हो जाओ तो मुझे कोई शिकायत नहीं होगी। मेरे मित्र ने कोई targets fix नहीं किया था,परन्तु फिर भी इन्टर साइन्स के तीनों विषयों में डिस्टिन्कशन प्राप्त किया था और बी0एस0सी0 में top किया।

यही बात कर्म के हर क्षेत्र में लागू होती है। ऊपर उध्दरण में अंकित है कि स्वामी जी ने सलाह दिया है कि ''इच्छाओं का रुख बदल दीजिये, इच्छायें मिट जायेंगी।'' देखिये, एक व्यक्ति यह इच्छा रखता है कि मैं डाक्टर बनूँगा, खूब पैसे अर्जित करुँगा, बड़ा मकान बनवाऊॅंगा, बड़ी-बड़ी मोटर गाड़ियाँ होंगी, खूब ऐशो-आराम करुँगा। दूसरा व्यक्ति इस भाव से डाक्टर बनना चाहता है कि डाक्टर बनकर मरीजों की खूब सेवा करुँगा। बात वही है, पर एक की प्रेरणा चाह और स्वार्थ है, जबकि दूसरे की प्रेरणा सेवा-वृत्ति है।

एक अन्य उदाहरण लें। एक वैज्ञानिक कैन्सर की दवा निकालने के लिए रिसर्च में लगा हुआ है। वह सोचता है कि मैं सफल हो गया तो उसे पेटेन्ट करा लूँगा, खूब धन कमाऊॅंगा, खूब ख्याति होगी और नोबेल प्राइज मिलेगा। दूसरा वैज्ञानिक कैन्सर के भयावह परिणामों को सोचता है कि मरीज कितना शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलता है, उसके परिवार को कितना मानसिक कष्ट और आर्थिक कठिनाई झेलनी पड़ती है। मरीज बचा नहीं तो परिवार उजड़ गया और यदि मरीज ही कमाऊ (earning member) था तो आर्थिक विपदा भी भोगना पड़ता है। वह किसी अपनी चाह से नहीं बल्कि करुणा से प्रेरित होकर रिसर्च में जुटा रहता है। ऐसा सुना है कि यदि भाव शुध्द हो तो ईश्वरीय सहायता (divine help) भी मिलती है।

किसी ने प्रश्न् किया कि ईश्वर प्रेम की प्राप्ति अथवा अपने नित्य,अविनाशी रसरूप जीवन की प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य बताया गया है। इसके लिए चाह और कामना होगी तब ही तो इसकी प्राप्ति होगी। अन्यथा कैसे होगी?

विचार करने की बात है कि चाह और कामनाएँ शरीर और संसार को लेकर उठती हैं। जिसने अपने को साधक स्वीकार किया उसके जीवन में शान्ति,स्वाधीनता और प्रियता/योग, बोध, प्रेम की मांग होती है और माँग 'स्व' में होती है। अपना दायित्व पूरा करने पर मांग की पूर्ति स्वत: होती है।

पर यदि कोई प्रभु प्रेम की प्राप्ति के सम्बन्ध में चाह और कामना शब्द का प्रयोग करना ही चाहता है तो उसका अर्थ सांसारिक वस्तुओं,परिस्थितियों की प्राप्ति,नहीं होगा बल्कि भाव की दृष्टि से वह प्रभु-प्रेम की लालसा के ही अर्थ में आयेगा।

यह अर्थ उसी दशा में सत्य होगा जब हमने प्रभु को अपना साध्य माना है न कि सांसारिक उपलब्धियों के लिए साधन बनाया है। स्वामी जी कहते थे कि यदि प्रभु से कोई चाह हो,तो यही होना चाहिए कि प्रभु तुम मुझे प्यारे लगो। यह चाह उस 'चाह' से भिन्न है जिसे लेकर जीवन में 'अचाह' होने के लिए संतो द्वारा,अपने धार्मिक ग्रंथों द्वारा, सलाह दी गई है।

अत: चाह/कामना रहित होकर हम निष्क्रिय नहीं होंगे बल्कि हम से जो भी कर्म होंगे वे अति सुन्दर होंगे,कर्म के अन्त में सन्तोष और प्रसन्नता होगी,फल जो भी हो। ऐसे व्यक्ति को इस बात का पूर्ण ध्यान रहता है कि उसका रोल कर्म करना है-फल उसके हाथ में नहीं है-फल तो विधान से बनता है।



Monday, June 6, 2011

साधन सूत्र-48 :-

-: साधन सूत्र-48 :-

मंगलकारी प्रभु का मंगलमय विधान


ईश्वर ने सृष्टि की रचना की और उसका एक विधान बना दिया। उसी विधान की मर्यादा में सारी सृष्टि चल रही है। प्रभु मंगलकारी हैं और उनका विधान भी मंगलमय है। स्वामी शरणानन्द जी ने 'मंगलमय विधान' नाम से एक पुस्तक लिखवाया, जो मानव सेवा संघ वृन्दावन से प्रकाशित है। विधान की मंगलमयता के सम्बन्ध में एक प्रश्न् और स्वामी जी का उत्तर आगे प्रस्तुत है-

प्रश्न: प्रभु का हर विधान मंगलमय है-यह बात कैसे समझ में आये?

उत्तर: ''यह श्रध्दा का विषय है। साधक को आस्था और पूर्ण विश्वास हो जाने से एक बड़ा लाभ यह होता है कि उसे प्रभु का बल मिलता है। प्रभु परम दयालु हैं, क्रूर नहीं, परम शान्त हैं,क्रोधी नहीं। प्रभु सदा सजग हैं,वहाँ भूल नहीं होती। हमारी भलाई का जितना हमें ज्ञान है,उन्हें उससे अधिक ज्ञान है। जो काम नहीं करना है उसे भी हम कर लेते हैं और चाहते यह हैं कि ईश्वर से सब प्रकार की सुविधा मिले। जैसे-सूर्य का प्रकाश, श्वाँस लेने के लिए वायु,पीने के लिए जल और धरती माता का आश्रय हमें निरन्तर मिल रहा है। जो इतने उदार व कृपालु हैं, वे हमारे लिये कठोर विधान कैसे बना सकते हैं।''

''इस प्रकार चिन्तन करते रहने से उनके मंगलमय विधान में श्रध्दा उत्पन्न हो जाती है। विधान में तीन बातें होती हैं-जानना, मिलना और होना, यदि हम जाने हुए का आदर, मिले हुए का सदुपयोग करने लग जायें तो जो होने वाला है वह मंगलमय ही होगा। करने में सावधान रहने से होने में प्रसन्न रहने की योग्यता आ जाती है।''

प्रो0 देवकी जी, जिनको स्वामी शरणानन्द जी ने कालान्तर में उनके साधन-पथ की मंजिल पार करने पर नया नाम दिव्य-ज्योति प्रदान किया, ने 'मंगलमय विधान' पुस्तक में परिचय (preface) में स्वामी जी के सम्पर्क में आने के पूर्व की अपनी दशा और स्वामी जी की प्रेरणा से साधन पथ पर चल पड़ने के उपरांत की अपनी दशा का वर्णन इस प्रकार किया है:-

''एक समय था जब सृष्टि का विधान मुझे अपनी जरुरत के सर्वथा विपरीत प्रतीत होता था। घटना-चक्र का आशातीत गति से घूमते रहना,अनुकूलता का प्रतिकूलता में बदल जाना, प्रिय संयोग के सुख का दुस्सह वियोग के दु:ख में बदल जाना..... और अपना वह विवश चित्र-ठगी ठगी सी हत्बुध्दि हो देखते का देखते रह जाना-बड़ा ही क्रूर प्रतीत होता था। कोमल हृदय की कोमल भावनायें नियति के कठोर थपेड़ों से चकनाचूर हो जातीं और घायल हृदय के विवश क्षोभ की आवाज सुनाई देती-कौन है सृष्टि का मालिक? कौन है मेरा निर्माता? क्या मजा आता है उसको सृष्टि बनाने में और व्यक्ति को इतना विवश और दु:खी करके रखने में कि वह जो चाहता है सो होता नहीं,जो होता है सो भाता नहीं और जो भाता है वह रहता नहीं? यह भी कोई लीला है जिसमें कोई तड़प-तड़प कर जीने के लिए बाध्य हो और किसी का खेल चले?''

"पर धन्‍य है सृष्टि का करूणामय विधायक और धन्‍य है उसका मंगलमय विधान। मुझमें विद्रोह उठता रहा और उसमें प्यार उमड़ता रहा, जिसका मिठास मैं आज अनुभव कर रही हूँ......।''

पुस्तक के 'परिचय' में उन्होंने थोड़े में ईश्वर के विधान की मंगलमयता का जो वर्णन किया है उसके कुछ उध्दरण प्रस्तुत हैं:-

''वस्तुत: जो व्यक्ति का किया हुआ नहीं है, विधान से स्वयं हो रहा है, वह किसी भी प्रकार किसी के लिए अहितकर नहीं है।.....उदाहरार्थ निम्नलिखित स्वत: होने वाली वैधानिक बातों पर विचार करें-

प्रत्येक उत्पत्ति का विनाश हो रहा है।

प्रत्येक संयोग वियोग में बदल रहा है।

प्रत्येक जन्म मृत्यु में बदल रहा है।

प्रत्येक प्रवृत्ति से सामर्थ्य का हा्रस हो रहा है।''

''सारांश में यह कि प्रतीति में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। इसका कर्ता कोई व्यक्ति नहीं है। यह सब किसी विधान से स्वत: हो रहा है। जिस विधान से यह सब हो रहा है उसी विधान से व्यक्ति को विवेक का प्रकाश मिला है। उस प्रकाश में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि जो प्रतीत हो रहा है उसमें अनवरत गति है। अत: उसका अस्तित्व सिध्द नहीं होता। फिर भी हम यदि प्रतीति का आश्रय लेकर जीना चाहते हैं तो यह विवेक का अनादर है। यह अपनी भूल है। 'प्रतीति में स्थायित्व नहीं है',इस वैधानिक तथ्य के प्रति सजग होते ही विचारों और भावों का प्रवाह चलने लगता है। प्रतीति से अतीत जीवन की खोज तथा प्रतिपल नये-नये रूप धारण करने वाले दृश्यों की लुभावनी कलाकृति के कुशल कलाकार में आस्था आरम्भ हो जाती है। खोज के द्वारा उससे अभिन्न होकर,आस्था के द्वारा उसकी प्रीति होकर मानव कृतकृत्य हो जाता है। अत: जो कुछ हो रहा है मंगलमय विधान से ही हो रहा है।''

कोई यह प्रश्न् कर सकता है कि आखिर ईश्वर ने ऐसा विधान ही क्यों बनाया जिसमें प्रत्येक उत्पत्ति का विनाश हो रहा है,प्रत्येक जन्म मृत्यु में बदल रहा है आदि ?परन्तु यह प्रश्न्कर्ता को भी स्पष्ट होगा,थोड़ा विचार करने पर कि यदि यह विधान नहीं बना होता और जन्म ही जन्म होता मृत्यु न होती तो पृथ्वी पर जन्म लेने वालों को पैर रखने की भी जगह नहीं मिलती। 'प्रतीति' में स्थायित्व होता तो सब कुछ घिसा-पिटा,नीरस और उबाऊ होता (Stale and uninteresting)।

इसलिए देवकी बहन जी ने कहा है कि ''उत्‍पत्ति के मूल में किसी का संकल्‍प है।इस दृष्टि से भी अव्‍यक्‍त जब व्‍यक्‍त हुआ है, तो इस व्‍यक्‍त रूप का नयापन बना रहे, अविछिन्‍नता(continuity) बना रहे, इसके लिए निरन्‍तर परिवर्तन अनिवार्य हैा परिवर्तन की अनिवार्यता पर दृष्टि जाते ही 'जो हो रहा है' वह स्‍वाभाविक लगने लगता है्.....।''

पुस्तक में विधान के मंगलमय होने के अनेक चमत्कारिक उदाहरणों का होना बताते हुए उन्होंने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है:

''मानव के जीवन में सामर्थ्य के सदुपयोग से जो विकास होता है, असमर्थता की पीड़ा से भी वही विकास होता है। कैसा अनुपम विधान है जिसमें सामर्थ्यवान और असमर्थ दोनों का हित समान रूप से निहित है।''

मानव जीवन के एक अन्य पहलू को लेकर पुस्तक के 'परिचय' में उन्होंने कहा है कि- ''व्यक्तिगत भिन्नता एक प्राकृतिक तथ्य है।..... साथ ही माँग की दृष्टि से मानव-मात्र एक है,इसलिए कि शान्ति,स्वाधीनता और प्रेम सभी को चाहिये।इस माँग की पूर्ति का ऐसा अद्भुत विधान है कि रुचि,योग्यता एवं परिस्थितियों की भिन्नता कोई अर्थ नहीं रखती,कारण कि माँग की पूर्ति श्रम-रहित होने में है। श्रम करने में सभी एक दूसरे से भिन्न हैं,परन्तु श्रम-रहित होने पर सभी एक हैं। इस दृष्टि से जीवन की माँग की पूर्ति में सभी समान रूप से स्वाधीन एवं समर्थ हैं। जिस विधान से उन्हें यह स्वाधीनता एवं सामर्थ्य मिली है वह मंगलमय है''

इसी पुस्तक में स्वामी जी का कथन है कि-

''आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति मंगलमय विधान से स्वत: होती है। कर्तव्यनिष्ठ के लिए आवश्यक सामर्थ्य और जिज्ञासा-पूर्ति के लिए विचार का उदय एवं शरणागत में प्रीति का उदय स्वत:मंगलमय विधान से होता है। प्राप्त सामर्थ्य का दुरुपयोग करने पर ही मानव असमर्थता में आबध्द होता है। सामर्थ्य का सदुपयोग करने पर आवश्यक सामर्थ्य बिना ही माँगे प्राप्त होती है। इतना ही नहीं,असमर्थता की व्यथा में भी विकास निहित है,यह मंगलमय विधान है।''

अन्त में देवकी बहन जी ने एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। उन्होंने लिखा है:-

''जो व्यक्ति का किया हुआ नहीं है, अपने आप ही हो रहा है, जिसका सामना करने के लिए व्यक्ति बाध्य है,उसके सम्बन्ध में जिज्ञासा स्वाभाव से ही होती है। जो विधान से हो रहा है,उसका ठीक अभिप्राय न समझने के कारण अनेक भ्रमात्मक धारणायें उसके सम्बन्ध में व्यक्ति बना लेता है, विधान और विधायक को कोसता है और अपने विकास में अपने को विवश मान लेता है। इससे उसका जीवन निष्फल हो जाता है। अत: अपने जीवन के विधान के सम्बन्ध में स्पष्ट परिचय सभी के लिए अत्यन्त आवश्यक है।''

मंगलकारी प्रभु का विधान मंगलमय होना ही है। ऐसे महान करुणामय प्रभु की हम सभी शरणागति अपनायें, इसी में हमारा कल्याण है।

Saturday, May 21, 2011

-: साधन सूत्र-47 :-

-: साधन सूत्र-47 :-

प्रभु-प्रेम की प्राप्ति का सहज उपाय

मानव सेवा संघ दर्शन में मानव की मांग और जीवन का लक्ष्य शान्ति,स्वाधीनता और प्रियता-दूसरे शब्दों में योग-बोध-प्रेम कहा गया है। परन्तु अन्तिम लक्ष्य प्रभु प्रेम की प्राप्ति ही है। पिछले कई साधन-सूत्रों में प्रभु-प्रेम की चर्चा की गई है और उसकी प्राप्ति के लिए केवल उन्हें अपना मानना ही सहज उपाय कहा गया है।

एक साधक द्वारा पूछने पर स्वामी शरणानन्द जी ने बहुत ही सुन्दर ढंग से सहज सुस्पष्ट उपाय बताया है जो उध्दरित है:-

प्रश्न:  प्रेम की प्राप्ति कैसे हो?

उत्तर: सब दूसरी ममताओं को त्यागकर,केवल प्रभु को ही अपना मानो,इसी से प्रेम की प्राप्ति होगी। एक मात्र प्रभु को अपना मानना और कुछ नहीं चाहना-यही प्रेम प्राप्त करने का उत्तम साधन है। बहुत तप तथा यज्ञ करने से प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। तप तो हिरण्यकश्यपु और रावण ने बहुत किये थे,परन्तु उनको प्रेम की प्राप्ति नहीं हुई। एक सहस्त्र यज्ञ करके इन्द्र बनकर स्वर्ग का  राज  करता  है, किन्तु उसे भी प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। ध्यान और चिन्तन से भी प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। इससे तो चित्त की शुध्दि होती है।

उपर्युक्त सब बातें प्रेम की प्राप्ति में सहायक हैं परन्तु प्राप्ति का मुख्य साधन प्रभु से अपनी आत्मीयता का होना है। आत्मीयता होती है अन्य सभी ममताओं के त्याग से। धन भी मेरा और प्रभु भी मेरा-दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती।

अपना मान लेने पर प्रीति का प्रादुर्भाव होना अनिवार्य है। सब इस बात को जानते हैं। अपना शरीर रोगी हो तब भी प्यारा लगता है। अपना पुत्र काना हो तब भी प्यारा लगता है। अपना जीर्ण-शीर्ण मकान भी प्यारा लगता है। फिर प्रभु तो सर्वगुण सम्पन्न,सुख के भण्डार और सौन्दर्य की निधि हैं। हम भगवान को अपना मान लें और प्रीति जागृत न हो

-यह बात कैसे हो सकती है?

ऐसे ही एक और प्रश्न् का स्वामी शरणानन्द जी का उत्तर बहुत ही प्रासंगिक और उससे इस विषय के बारे में हर प्रकार का भ्रम का निवारण हो जाता है। उसका उध्दरण प्रस्तुत है:-

प्रश्न्: मानवता का स्वरूप क्या है और भगवान में मन कैसे लगे?

उत्तर: उदार होना,असंग होना और भगवान का होकर रहना अर्थात् जीवन में सेवा-त्याग-प्रेम का आ जाना ही मानवता का स्वरूप है। भगवान में आस्था,श्रध्दा,विश्वासपूर्वक आत्मीयता करने पर उनमें प्रीति होगी तब प्रभु की स्मृति जगेगी और सहज ही प्रभु में मन लग जावेगा। प्रभु की महिमा स्वीकार कर लेने पर,प्रभु से नित्य सम्बन्ध मानने पर,एक मात्र प्रभु का आश्रय ग्रहण कर लेने पर,मनुष्य के हृदय में प्रीति जागृत होगी और सहज ही मन भगवान में लग जायेगा।

उन्होंने आगे कहा है:-

जब तक हम संसार की ममता,आसक्ति और कामनाओं का त्याग नहीं करेंगे,तब तक संसार हमारी छाती पर चढ़ा ही रहेगा। हम चाहेंगे चिन्तन करना भगवान का,होगा संसार का। हाथ में माला व मुख से नाम लेते रहने पर भी मन संसार में भटकता रहेगा। यही तो संसार का छाती पर चढ़ा रहना है। भूल यह है कि हमने संसार को प्रभु का नहीं माना। यदि हम सच्चे हृदय से संसार को भगवान का मान लें फिर मन भगवान में न लगे-ऐसा हो नहीं सकता। जब तक कुटुम्ब का मोह,धन का लोभ और भोगों की आसक्ति बनी रहेगी तब तक सब कुछ सुनने व समझने के बाद भी न तो मन भगवान में लग सकेगा और न ही हमारा कल्याण ही हो सकेगा। अत: साधक को मोह,लोभ और आसक्ति का त्याग करके साधन करना चाहिए, सफलता अवश्य मिलेगी।

नोट: स्वामी जी के शब्दों में ''अपने कल्याण का अर्थ है,अपनी प्रसन्नता के लिए 'पर' की आवश्यकता न रहे।''

-: साधन सूत्र-46 :-

-: साधन सूत्र-46 :-

गुरु के अनेक शरीर


साधन-सूत्र-20, शीर्षक 'साधन-पथ में गुरु' में यह चर्चा की गई थी कि साधन-पथ के लिए शरीरी गुरु अनिवार्य नहीं है। साथ ही यह भी कहा गया था कि संतों से सुना है कि हममें यदि साधन-पथ पर चलने की,सत्य से अभिन्न होने की तीव्र लालसा है और शरीरी गुरु की आवश्यकता है तो हमें उन्हें नहीं ढूढ़ना पड़ेगा,सद्गुरु हमें स्वयँ ही ढूँढ़ लेंगे और आवश्यक मार्ग-दर्शन करा देंगे।

संतशिरोमणि स्वामी शरणानन्द जी के जीवन का उनका स्वयं का अनुभव, इस प्रकरण में प्रासंगिक है। वही यहाँ प्रस्तुत है:-

''स्वामी शरणानन्दजी के साधना-काल में उनके सद्गुरु का शरीर शान्त होने का समय आया। स्वामी जी महाराज ने सद्गुरु से कहा-'आपका शरीर कुछ काल और रह जाता तो मेरी साधना के लिए अच्छा रहता।' यह सुनकर श्री गुरुदेव ने उत्तर दिया कि ''ऐसा क्यों सोचते हो? मेरे अनेकों शरीर है, तुम्हें जब आवश्यकता होगी मैं मिल जाऊॅंगा।''

''सद्गुरु के सद्शिष्य ने गुरुवाणी को गाँठ बाँध लिया। उसके बाद अनेकों बार का अनुभव उन्होंने निज श्री मिख से हमें सुनाया है कि साधन की दृष्टि से  जब-जब  स्वामी जी  के दिल  में  कोई  प्रश्न्  उठता, तत्काल कोई न कोई संत मिल जाते और समाधान कर जाते। श्री महाराज जी को यह पक्का अनुभव हो गया कि उनके सद्गुरु के अनेकों शरीर हैं और किसी न किसी रूप में वे मार्गदर्शन कर देते हैं। इतना निश्चय होते ही स्वामी जी महाराज निश्चिन्त हो गये।''

''एक समय एक समस्या को लेकर गंगा जी के तट पर अकेले बैठै थे। गुरुदेव की याद आई। श्री स्वामी जी ने तुरन्त सोच लिया कि जब अनेकों शरीर गुरुदेव के हैं तो यह शरीर भी तो उन्हीं का है। किसी भी शरीर के माध्यम से जब वे मार्ग दिखा सकते हैं,तो यह शरीर भी तो उनका ही अपना है। इसके माध्यम से भी वह मेरी मदद कर सकते हैं। इतनी बात ध्यान में आने भर की देर थी कि समस्या हल होने में देर नहीं लगी।''?

''फिर तो गुरु-तत्व को अपने ही में विद्यमान जानकर, ब्राह्य गुरु की आवश्यकता को ही उन्होंने समाप्त कर दिया। शरीर के लिए संसार का आश्रय तो वे पहले ही छोड़ चुके थे,अब गुरु-तत्व को स्वयँ में ही विद्यमान जानकर इस दिशा में भी वह सर्वथा स्वाधीन हो गये। भीतर बाहर परमानन्द छा गया।''

गुरु के सम्बन्ध में एक प्रश्नोत्तर भी महत्वपूर्ण है। एक साधक ने पूछा:-

प्रश्न्: गुरु की पूजा करनी चाहिए क्या?

उत्तर: पूजा-प्रार्थना सब परमात्मा के साथ करने वाली बात है। गुरु परमात्मा का बाप हो सकता है,परमात्मा नहीं। हाँ,गुरु-वाक्य,ब्रह्म-वाक्य हो सकता है। गुरु श्रध्दास्पद हो सकता है,प्रेमास्पद नहीं। व्यक्ति को यदि परमात्मा मानना है तो सबको मानो। सब में परमात्मा है। गुरु साधन रूप हो सकता है, साध्य नहीं।

-: साधन सूत्र-45 :-

-: साधन सूत्र-45 :-

मानव जीवन का अभिशाप-राग-द्वेष


ब्रह्मनिष्ठ क्रान्तदर्शी-प्रज्ञा-चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी द्वारा प्रणीत मानव सेवा संघ की द्वितीय प्रार्थना है - ''मेरे नाथ ! आप अपनी सुधामयी, सर्व-समर्थ, पतित पावनी, अहैतु की कृपा से मानव मात्र को विवेक का आदर तथा बल का सदुपयोग करने की सामर्थ्य प्रदान करें एवं हे करुणासागर! अपनी अपार करुणा से शीध्र ही राग-द्वेष का नाश करें। सभी का जीवन सेवा, त्याग प्रेम से परिपूर्ण हो जाय।"

प्रश्न् उठता है कि राग-द्वेष है क्या, और वह ऐसा क्या अवगुण है कि उसके नाश के लिए प्रभु की करुणा की दुहाई देकर उनसे प्रार्थना की गई है।

स्वामी शरणानन्द जी ने राग-द्वेष का अर्थ और उनसे छुटकारा पाने का उपाय अनेक प्रकार से समझाया है। मूल तथ्य यह है कि जीवन में राग-द्वेष रहते कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। वह साधन और असाधन साथ-साथ रहने के समान है। वास्तव में साधना का मूल आधार और प्रारम्भ (starting point) है ही राग-द्वेष का जीवन में अभाव।

स्वामी जी से एक साधन ने पूछा-

प्रश्न्- राग-द्वेष क्या है?

उत्तर- दोष मालूम होते हुए भी त्याग न करना राग है। गुण मालूम होते हुए भी ग्रहण न करना द्वेष है। राग त्याग नहीं होने देता व द्वेष प्रेम नहीं होने देता। त्याग व प्रेम से राग-द्वेष मिट जाते हैं सारी बुराइयाँ राग-द्वेष से होती है। सारी अच्छाइयाँ त्याग और प्रेम से होती है।''

एक ऐसे ही प्रश्न् कि '' राग-द्वेष का क्या अर्थ है '' उन्होंने इस प्रकार बताया-

उत्तर- भूल को भूल जानकर भी,करना अर्थात् यह जानते हुए भी कि कोई भी संसार में अपना नहीं है,फिर भी किसी को अपना करके,मानना राग है और जो वास्तव में अपना है,उसे अपना न मानना द्वेष है।

निम्नलिखित प्रश्न् और उत्तर से दूसरे ढंग से इस विषय पर प्रकाश मिलता है:-

प्रश्न्- मानव सेवा संघ में कहा जाता है कि या तो किसी को अपना मत मानो या सब को अपना मानो। इसका क्या अर्थ है?

उत्तर- किसी को अपना न मानने से राग की उत्पत्ति नहीं होती और सबको अपना मानने से द्वेष उत्पन्न नहीं होता। इस तरह दोनों मान्यताओं से राग-द्वेष से छुट्टी हो जाती है, जो मानव के विकास में सहायक है।

एक अन्य प्रसंग में मानव जीवन में निर्मलता का महत्व बतलाते हुए स्वामी जी ने कहा कि-

''........ अमानवता से मुक्त होने के लिए निर्मलता की ओर गतिशील होना अनिवार्य है। कारण कि निर्मलता के बिना कोई मानव, 'मानव' नहीं हो सकता।.... निर्मलता का वास्तविक स्वरूप क्या है?.... जिससे जातीय तथा स्वरूप की एकता नहीं है उसका अपने में आरोप कर लेना ही मलिनता है। उस मलिनता का त्याग करना ही वास्तविक निर्मलता है। वही वस्त्र निर्मल कहलायेगा, जिसमें वस्त्र से भिन्न और किसी वस्तु का समावेशन हुआ हो। यदि किसी कारण से वस्त्र में अन्य वस्तु का समावेश हो गया है, तो उसके निकाल देने पर ही वस्त्र निर्मल हो सकेगा।''

''उसी प्रकार हमारे जीवन में राग-द्वेष आदि का जो समावेश हो गया है, उनके निकालने पर ही हम निर्मल हो सकेंगे।''

''अब विचार यह करना है कि राग-द्वेष की उत्पत्ति क्यों होती है? तो कहना होगा जिससे मानी हुई एकता और जातीय तथा स्वरूप की भिन्नता हो, उसी से राग होता है और किसी एक से राग होने पर ही किसी दूसरे से द्वेष होने लगता है। अथवा यों कहो कि जातीय भिन्नता होने पर भी हम किसी को अपना मान लेते हैं तथा अपने का मान लेते हैं। तो इस दृढ़ता से ही राग की उत्पत्ति होती है। इसका जन्म  निज  ज्ञान  के  अनादर  से होता है। अर्थात् देह 'मैं' हूँ अथवा देह 'मेरी' है, ऐसी मान्यता ही राग उत्पन्न कर देती है।''

इसी को और स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने आगे कहा है कि- ''यह सभी का अनुभव है कि जिसको हम 'यह' कहते हैं, उसे 'मैं' कहना प्रमाद (भूल) के अतिरिक्त कुछ नहीं है। शरीर इन्द्रिय, मन, बुध्दि आदि को 'यह' कहकर अथवा 'मेरा' कहकर सम्बोधन करते हैं इस अनुभूति के आधार पर शरीर को अपना स्वरूप नहीं कह सकते। जब शरीर के साथ ही 'मैं' पन सिध्द नहीं हो सकता, तो किसी अन्य के साथ 'मैं' लगाना कहाँ तक सही सिध्द हो सकता है? अर्थात् कदापि नहीं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सीमित 'मैं' और सीमित 'मेरा' ही राग-द्वेष का मूल है, जो वास्तव में अविवेक है।''

राग-द्वेष की यथार्थता के सम्बन्ध में स्वामी जी का कथन है कि- ''राग-द्वेष का मानव जीवन में कोई स्थान ही नहीं है, क्योंकि राग से पराधीनता और द्वेष सेर् ईष्या आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। और मानव जीवन मिला है-निर्दोषता के लिए। अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि राग-द्वेष रहित होने पर ही मानव वास्तवक 'मानव' हो सकता है।''

स्वामी जी  के  कथनानुसार  जो  अति  स्पष्ट  और अनुभव सिध्द है- अपने सुख-दु:ख का कारण अन्य को मानना बड़ी भूल है। जिनको अपने सुख का कारण मानते हैं, उनके प्रति राग होता है और जिनको अपने दु:ख का कारण मानते हैं उसके प्रति द्वेष होता है। और राग-द्वेष के रहते हम निर्मलता। निर्दोषता से कोसों दूर रहेंगे। बिना निर्मलता/निर्दोषता के साधन पथ पर हम अग्रसर हो ही नहीं सकते। इन्हें स्वामी जी ने दिव्यता कहा है। इनके अभाव में साधन का निर्माण नहीं हो सकता और हमारे जीवन के लक्ष्य-योग-बोध-प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती।

इसीलिए मानव सेवा संघ की द्वितीय प्रार्थना में राग-द्वेष के नाश पर बल दिया गया है। और प्रथम पृष्ठ पर स्वामी जी के प्रश्नोत्तर के अनुसार त्याग व प्रेम अपने जीवन में अपनाने से राग-द्वेष का नाश हो जायेगा। वास्तव में राग-द्वेष और त्याग-प्रेम एक दूसरे के अन्योन्य (reciprocal) हैं- अन्यत्र स्वामी जी ने कहा है कि ज्यों-ज्यों हृदय राग-द्वेष रहित होता जायेगा, त्यों-त्यों त्याग-प्रेम स्वत: बढ़ता जायेगा।

इसी क्रम में आगे कहा है कि- ''किसी से ममता न रहे, यही त्याग है। त्याग राग को खा लेता है। सभी में अपना दर्शन हो, यही प्रेम है। प्रेम-द्वेष को खा लेता है । त्याग से असंगता-निवार्सना स्वत: आ जाती है। यही वास्तव में मुक्ति है। प्रेम से अभिन्नता और अभिन्नता से एकता आ जाती है। यही वास्तव में भक्ति है। भक्ति और मुक्ति दोनों ही तुम्हारे निज-स्वरूप की दिव्य छटा है। भोग-वासना ने तुम्हें इनसे विमुख किया है। अत: उनका विवेक पूर्वक अन्त कर दो बस, बेड़ा पार है।''