Saturday, May 21, 2011

-: साधन सूत्र-45 :-

-: साधन सूत्र-45 :-

मानव जीवन का अभिशाप-राग-द्वेष


ब्रह्मनिष्ठ क्रान्तदर्शी-प्रज्ञा-चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी द्वारा प्रणीत मानव सेवा संघ की द्वितीय प्रार्थना है - ''मेरे नाथ ! आप अपनी सुधामयी, सर्व-समर्थ, पतित पावनी, अहैतु की कृपा से मानव मात्र को विवेक का आदर तथा बल का सदुपयोग करने की सामर्थ्य प्रदान करें एवं हे करुणासागर! अपनी अपार करुणा से शीध्र ही राग-द्वेष का नाश करें। सभी का जीवन सेवा, त्याग प्रेम से परिपूर्ण हो जाय।"

प्रश्न् उठता है कि राग-द्वेष है क्या, और वह ऐसा क्या अवगुण है कि उसके नाश के लिए प्रभु की करुणा की दुहाई देकर उनसे प्रार्थना की गई है।

स्वामी शरणानन्द जी ने राग-द्वेष का अर्थ और उनसे छुटकारा पाने का उपाय अनेक प्रकार से समझाया है। मूल तथ्य यह है कि जीवन में राग-द्वेष रहते कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। वह साधन और असाधन साथ-साथ रहने के समान है। वास्तव में साधना का मूल आधार और प्रारम्भ (starting point) है ही राग-द्वेष का जीवन में अभाव।

स्वामी जी से एक साधन ने पूछा-

प्रश्न्- राग-द्वेष क्या है?

उत्तर- दोष मालूम होते हुए भी त्याग न करना राग है। गुण मालूम होते हुए भी ग्रहण न करना द्वेष है। राग त्याग नहीं होने देता व द्वेष प्रेम नहीं होने देता। त्याग व प्रेम से राग-द्वेष मिट जाते हैं सारी बुराइयाँ राग-द्वेष से होती है। सारी अच्छाइयाँ त्याग और प्रेम से होती है।''

एक ऐसे ही प्रश्न् कि '' राग-द्वेष का क्या अर्थ है '' उन्होंने इस प्रकार बताया-

उत्तर- भूल को भूल जानकर भी,करना अर्थात् यह जानते हुए भी कि कोई भी संसार में अपना नहीं है,फिर भी किसी को अपना करके,मानना राग है और जो वास्तव में अपना है,उसे अपना न मानना द्वेष है।

निम्नलिखित प्रश्न् और उत्तर से दूसरे ढंग से इस विषय पर प्रकाश मिलता है:-

प्रश्न्- मानव सेवा संघ में कहा जाता है कि या तो किसी को अपना मत मानो या सब को अपना मानो। इसका क्या अर्थ है?

उत्तर- किसी को अपना न मानने से राग की उत्पत्ति नहीं होती और सबको अपना मानने से द्वेष उत्पन्न नहीं होता। इस तरह दोनों मान्यताओं से राग-द्वेष से छुट्टी हो जाती है, जो मानव के विकास में सहायक है।

एक अन्य प्रसंग में मानव जीवन में निर्मलता का महत्व बतलाते हुए स्वामी जी ने कहा कि-

''........ अमानवता से मुक्त होने के लिए निर्मलता की ओर गतिशील होना अनिवार्य है। कारण कि निर्मलता के बिना कोई मानव, 'मानव' नहीं हो सकता।.... निर्मलता का वास्तविक स्वरूप क्या है?.... जिससे जातीय तथा स्वरूप की एकता नहीं है उसका अपने में आरोप कर लेना ही मलिनता है। उस मलिनता का त्याग करना ही वास्तविक निर्मलता है। वही वस्त्र निर्मल कहलायेगा, जिसमें वस्त्र से भिन्न और किसी वस्तु का समावेशन हुआ हो। यदि किसी कारण से वस्त्र में अन्य वस्तु का समावेश हो गया है, तो उसके निकाल देने पर ही वस्त्र निर्मल हो सकेगा।''

''उसी प्रकार हमारे जीवन में राग-द्वेष आदि का जो समावेश हो गया है, उनके निकालने पर ही हम निर्मल हो सकेंगे।''

''अब विचार यह करना है कि राग-द्वेष की उत्पत्ति क्यों होती है? तो कहना होगा जिससे मानी हुई एकता और जातीय तथा स्वरूप की भिन्नता हो, उसी से राग होता है और किसी एक से राग होने पर ही किसी दूसरे से द्वेष होने लगता है। अथवा यों कहो कि जातीय भिन्नता होने पर भी हम किसी को अपना मान लेते हैं तथा अपने का मान लेते हैं। तो इस दृढ़ता से ही राग की उत्पत्ति होती है। इसका जन्म  निज  ज्ञान  के  अनादर  से होता है। अर्थात् देह 'मैं' हूँ अथवा देह 'मेरी' है, ऐसी मान्यता ही राग उत्पन्न कर देती है।''

इसी को और स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने आगे कहा है कि- ''यह सभी का अनुभव है कि जिसको हम 'यह' कहते हैं, उसे 'मैं' कहना प्रमाद (भूल) के अतिरिक्त कुछ नहीं है। शरीर इन्द्रिय, मन, बुध्दि आदि को 'यह' कहकर अथवा 'मेरा' कहकर सम्बोधन करते हैं इस अनुभूति के आधार पर शरीर को अपना स्वरूप नहीं कह सकते। जब शरीर के साथ ही 'मैं' पन सिध्द नहीं हो सकता, तो किसी अन्य के साथ 'मैं' लगाना कहाँ तक सही सिध्द हो सकता है? अर्थात् कदापि नहीं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सीमित 'मैं' और सीमित 'मेरा' ही राग-द्वेष का मूल है, जो वास्तव में अविवेक है।''

राग-द्वेष की यथार्थता के सम्बन्ध में स्वामी जी का कथन है कि- ''राग-द्वेष का मानव जीवन में कोई स्थान ही नहीं है, क्योंकि राग से पराधीनता और द्वेष सेर् ईष्या आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। और मानव जीवन मिला है-निर्दोषता के लिए। अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि राग-द्वेष रहित होने पर ही मानव वास्तवक 'मानव' हो सकता है।''

स्वामी जी  के  कथनानुसार  जो  अति  स्पष्ट  और अनुभव सिध्द है- अपने सुख-दु:ख का कारण अन्य को मानना बड़ी भूल है। जिनको अपने सुख का कारण मानते हैं, उनके प्रति राग होता है और जिनको अपने दु:ख का कारण मानते हैं उसके प्रति द्वेष होता है। और राग-द्वेष के रहते हम निर्मलता। निर्दोषता से कोसों दूर रहेंगे। बिना निर्मलता/निर्दोषता के साधन पथ पर हम अग्रसर हो ही नहीं सकते। इन्हें स्वामी जी ने दिव्यता कहा है। इनके अभाव में साधन का निर्माण नहीं हो सकता और हमारे जीवन के लक्ष्य-योग-बोध-प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती।

इसीलिए मानव सेवा संघ की द्वितीय प्रार्थना में राग-द्वेष के नाश पर बल दिया गया है। और प्रथम पृष्ठ पर स्वामी जी के प्रश्नोत्तर के अनुसार त्याग व प्रेम अपने जीवन में अपनाने से राग-द्वेष का नाश हो जायेगा। वास्तव में राग-द्वेष और त्याग-प्रेम एक दूसरे के अन्योन्य (reciprocal) हैं- अन्यत्र स्वामी जी ने कहा है कि ज्यों-ज्यों हृदय राग-द्वेष रहित होता जायेगा, त्यों-त्यों त्याग-प्रेम स्वत: बढ़ता जायेगा।

इसी क्रम में आगे कहा है कि- ''किसी से ममता न रहे, यही त्याग है। त्याग राग को खा लेता है। सभी में अपना दर्शन हो, यही प्रेम है। प्रेम-द्वेष को खा लेता है । त्याग से असंगता-निवार्सना स्वत: आ जाती है। यही वास्तव में मुक्ति है। प्रेम से अभिन्नता और अभिन्नता से एकता आ जाती है। यही वास्तव में भक्ति है। भक्ति और मुक्ति दोनों ही तुम्हारे निज-स्वरूप की दिव्य छटा है। भोग-वासना ने तुम्हें इनसे विमुख किया है। अत: उनका विवेक पूर्वक अन्त कर दो बस, बेड़ा पार है।''

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