Saturday, May 21, 2011

-: साधन सूत्र-47 :-

-: साधन सूत्र-47 :-

प्रभु-प्रेम की प्राप्ति का सहज उपाय

मानव सेवा संघ दर्शन में मानव की मांग और जीवन का लक्ष्य शान्ति,स्वाधीनता और प्रियता-दूसरे शब्दों में योग-बोध-प्रेम कहा गया है। परन्तु अन्तिम लक्ष्य प्रभु प्रेम की प्राप्ति ही है। पिछले कई साधन-सूत्रों में प्रभु-प्रेम की चर्चा की गई है और उसकी प्राप्ति के लिए केवल उन्हें अपना मानना ही सहज उपाय कहा गया है।

एक साधक द्वारा पूछने पर स्वामी शरणानन्द जी ने बहुत ही सुन्दर ढंग से सहज सुस्पष्ट उपाय बताया है जो उध्दरित है:-

प्रश्न:  प्रेम की प्राप्ति कैसे हो?

उत्तर: सब दूसरी ममताओं को त्यागकर,केवल प्रभु को ही अपना मानो,इसी से प्रेम की प्राप्ति होगी। एक मात्र प्रभु को अपना मानना और कुछ नहीं चाहना-यही प्रेम प्राप्त करने का उत्तम साधन है। बहुत तप तथा यज्ञ करने से प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। तप तो हिरण्यकश्यपु और रावण ने बहुत किये थे,परन्तु उनको प्रेम की प्राप्ति नहीं हुई। एक सहस्त्र यज्ञ करके इन्द्र बनकर स्वर्ग का  राज  करता  है, किन्तु उसे भी प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। ध्यान और चिन्तन से भी प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। इससे तो चित्त की शुध्दि होती है।

उपर्युक्त सब बातें प्रेम की प्राप्ति में सहायक हैं परन्तु प्राप्ति का मुख्य साधन प्रभु से अपनी आत्मीयता का होना है। आत्मीयता होती है अन्य सभी ममताओं के त्याग से। धन भी मेरा और प्रभु भी मेरा-दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती।

अपना मान लेने पर प्रीति का प्रादुर्भाव होना अनिवार्य है। सब इस बात को जानते हैं। अपना शरीर रोगी हो तब भी प्यारा लगता है। अपना पुत्र काना हो तब भी प्यारा लगता है। अपना जीर्ण-शीर्ण मकान भी प्यारा लगता है। फिर प्रभु तो सर्वगुण सम्पन्न,सुख के भण्डार और सौन्दर्य की निधि हैं। हम भगवान को अपना मान लें और प्रीति जागृत न हो

-यह बात कैसे हो सकती है?

ऐसे ही एक और प्रश्न् का स्वामी शरणानन्द जी का उत्तर बहुत ही प्रासंगिक और उससे इस विषय के बारे में हर प्रकार का भ्रम का निवारण हो जाता है। उसका उध्दरण प्रस्तुत है:-

प्रश्न्: मानवता का स्वरूप क्या है और भगवान में मन कैसे लगे?

उत्तर: उदार होना,असंग होना और भगवान का होकर रहना अर्थात् जीवन में सेवा-त्याग-प्रेम का आ जाना ही मानवता का स्वरूप है। भगवान में आस्था,श्रध्दा,विश्वासपूर्वक आत्मीयता करने पर उनमें प्रीति होगी तब प्रभु की स्मृति जगेगी और सहज ही प्रभु में मन लग जावेगा। प्रभु की महिमा स्वीकार कर लेने पर,प्रभु से नित्य सम्बन्ध मानने पर,एक मात्र प्रभु का आश्रय ग्रहण कर लेने पर,मनुष्य के हृदय में प्रीति जागृत होगी और सहज ही मन भगवान में लग जायेगा।

उन्होंने आगे कहा है:-

जब तक हम संसार की ममता,आसक्ति और कामनाओं का त्याग नहीं करेंगे,तब तक संसार हमारी छाती पर चढ़ा ही रहेगा। हम चाहेंगे चिन्तन करना भगवान का,होगा संसार का। हाथ में माला व मुख से नाम लेते रहने पर भी मन संसार में भटकता रहेगा। यही तो संसार का छाती पर चढ़ा रहना है। भूल यह है कि हमने संसार को प्रभु का नहीं माना। यदि हम सच्चे हृदय से संसार को भगवान का मान लें फिर मन भगवान में न लगे-ऐसा हो नहीं सकता। जब तक कुटुम्ब का मोह,धन का लोभ और भोगों की आसक्ति बनी रहेगी तब तक सब कुछ सुनने व समझने के बाद भी न तो मन भगवान में लग सकेगा और न ही हमारा कल्याण ही हो सकेगा। अत: साधक को मोह,लोभ और आसक्ति का त्याग करके साधन करना चाहिए, सफलता अवश्य मिलेगी।

नोट: स्वामी जी के शब्दों में ''अपने कल्याण का अर्थ है,अपनी प्रसन्नता के लिए 'पर' की आवश्यकता न रहे।''

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