Wednesday, April 27, 2011

-: साधन सूत्र-36 :-

-: साधन सूत्र-36 :-

'मैं' हूँ क्या?


पिछले कुछ साधन-सूत्रों में इस बात की चर्चा हो चुकी है कि 'मैं' देह नहीं हूँ और देह मेरी नहीं है। कोई कहे कि ठीक है,मैंने समझ भी लिया और स्वीकार भी कर लिया कि 'मैं' देह नहीं हूँ,पर यह प्रश्न् करना स्वाभाविक है कि देह नहीं हूँ तो फिर हूँ क्या?

पारम्परिक व्याख्याओं में इस सम्बन्ध में आत्मा-परमात्मा अथवा ब्रह्म-जीव की चर्चा होती है। परन्तु 'मैं' आत्मा हूँ या 'मैं' जीव हूँ का अनुभव नहीं है, सुनी हुई बात है। इसके विपरीत शरीर,परिस्थिति, अवस्था से परे 'मैं' कुछ हूँ इस मैंपन का भास का अनुभव हर व्यक्ति को होता है।

मानव सेवा संघ दर्शन में इस प्रकरण में तीन शब्दों का प्रयोग होता है,-यथा-'यह', 'मैं', और 'वह'। 'वह' को ही 'है' नाम से भी कहा जाता है। 'यह' उसे कहते हैं जो पर-प्रकाश्य है; जिसकी प्रतीति होती है। जो अविनाशी परम-सत्ता (किसी भी नाम से पुकारे-ईश्वर-परमात्मा-ब्रह्म) जो नित्य है उसी को 'है' कहते हैं। वही सर्व प्रतीतियों का प्रकाशक है, उसे ही 'वह' भी कहा है।

ब्रह्मनिष्ठ संत स्वामी शरणानन्द जी द्वारा प्रणीत मानव सेवा संघ के दर्शन में इस विषय की कैसे व्याख्या की गई है,नीचे प्रस्तुत है-

"मैं" ,'यह' और 'वह' तीनों सत्ताओं में यह और वह का सैध्दान्तिक विवेचन गौण रखकर 'मैं' का दार्शनिक विश्लेषण प्रमुख रूप से किया गया है। 'मैं' को ही 'यह' की प्रतीति होती है,'मैं' में ही 'वह' की जिज्ञासा और प्रिय-लालसा जगती है। अत: मानव सेवा संघ के दर्शन का प्रतिपादन व्यक्ति के अह्म रूपी अणु के अध्ययन से आरम्भ किया जाता है। असाधन-काल में व्यक्ति को जगत् सत्य और सुख रूप प्रतीत होता है। साधन-काल में उसी व्यक्ति के अह्म रूपी अणु में जब परिवर्तन आता है तो 'यह' की सत्यता और सुख-रूपता मिट जाती है। साधक जगत के आकर्षण से मुक्त होकर निर्मम,निष्काम होकर प्राप्त परिस्थिति का साधन-सामग्री के रूप में उपयोग करने लगता है। उसी साधक में जब शरीरों से असंग होने की सामर्थ्य आ जाती है,तब प्रतीत होने वाला जगत् नहीं रहता। 'यह' की प्रतीति लुप्त हो जाती है और 'वह' की विद्यमानता प्रत्यक्ष हो जाती है।........मानव सेवा संघ के प्रणेता ने मानव-दर्शन में 'मैं' के विवेचन को ही प्रधान अनिवार्य, उपयोगी और सर्वाधिक व्यवहारिक माना है। संघ के दर्शन के अनुसार-अह्मरूपी अणु में जगत् का बीज भी है,सत्य की खोज भी है और परम-प्रेम की लालसा भी है। तीनों ही तत्व अह्म रूपी अणु के अनिवार्य (component parts) पहलू हैं।

'मैं' क्या है,इसका विवेचन संघ के दर्शन में एक नवीन ढंग से हुआ है जो नीचे प्रस्तुत है:-

" 'मैं ब्रह्म हूँ','मैं अमर हूँ' यह वेदवाणी सुनी हुई है। 'मैं','यह' नहीं हूँ,यह जीवन को अनुभव है। जीवन के अनुभव को पहले मानो,तब वेद-वाणी सिध्द होगी। जीवन के अनुभव को माने बिना वेद-वाणी अपने लिए अनुभव सिध्द नहीं होगी। 'मैं' को 'यह' की प्रतीति हो रही है। जिसको प्रतीति हो रही है,वह स्वयं प्रतीति नहीं है, अर्थात् 'मैं' दृश्य नहीं हूँ। 'मैं' को ब्रह्म अथवा आत्मा अथवा जीव अथवा शरीर मानकर 'मैं' के स्वरूप की खोज भ्रममूलक है। हमें विचार करना चाहिए कि जो कामना-जनित विकारों में आबध्द है उसी में निर्विकारता की मांग है। निर्विकार में निर्विकारता की मांग हो नहीं सकती और पर-प्रकाश्य अनात्मा में आत्मा की जिज्ञासा हो नहीं सकती। जिसमें आत्मा की जिज्ञासा है, जिसमें ब्रह्म की खोज है वह स्वयं न ब्रह्म हो सकता है न आत्मा। अनात्मा की ममता और आत्मा की जिज्ञासा जो अपने में अनुभव कर रहा है,जिसने ममता की निवृत्ति और जिज्ञासा पूर्ति को अपना लक्ष्य बनाया है वह निर्विकार आत्मा अथवा पर-प्रकाश्य अनात्मा हो ही नहीं सकता। अत: 'मैं' न 'यह' है और न 'वह' है। मैं क्या है? इस समस्या पर विचार करने से स्पष्ट विदित होता है कि समस्या आत्मा और अनात्मा में नहीं है, समस्या ब्रह्म और जगत में नहीं है,समस्या उसी में है जो आत्मा-अनात्मा से मिलकर प्रकाशित होता है। आत्मा-अनात्मा से वही मिल सकता है जो न आत्मा है और न अनात्मा। उसी को सीमित अह्म भाव तथा 'साधक' के नाम से सम्बोधित करना चाहिए। वही 'मैं' है।....... मानव सेवा संध दर्शन के अनुसार 'मैं' कामना, जिज्ञासा और लालसा का पुंज है।"

नोट:- यदि कोई इस विषय को और विस्तार से समझना/पढ़ना चाहे वह मानव सेवा संध की पुस्तक ''मैं की खोज'' देख सकते हैं।



Tuesday, April 26, 2011

-: साधन सूत्र-35 :-

-: साधन सूत्र-35 :-

सत्संग का अर्थ और स्वरूप

सत्संग  का  शाब्दिक  अर्थ  तो  है  सत् (सत्य) का संग अर्थात् सत्य के संग होना। वास्तव में जब हम असत् का त्याग कर देते हैं तब हम सत् के संग हो जाते हैं,वैसे हम सत् से कभी अलग हो ही नहीं सकते, सत् के संग नित्य रहते ही हैं।

प्रचलित भाषा में सत्-चर्चा को ही लोग सत्संग कहते हैं। ''वक्ता और श्रोता मिलकर सत्य का विवेचन करते हैं। इस गोष्ठी को भी सत्संग कहते हैं। स्वामी शरणानन्द जी ने सत्य के विवेचन को सत्-चर्चा,सत्य के सम्बन्ध में सोचने-विचारने को सत्-चिन्तन कहा है और सर्व हितकारी कार्य को सत् कार्य कहा है। सत्-चर्चा,सत्-चिन्तन और सत्-कार्य सत्संग नहीं है। वे सत्संग के सहयोगी हो सकते हैं।"

स्वामी जी ने 'मूक-सत्संग एवं नित्य-योग नामक पुस्तक में सत्संग और सत्चर्चा-सत्चिन्तन के भेद को समझाया है। वह नीचे उध्दरित है:-

''सत् की चर्चा, उसके चिन्तन एवं सत् के संग में बड़ा भेद है। सत् की चर्चा तथा उसका चिन्तन श्रम साध्य है, किन्तु सत् का संग श्रम-रहित होने से ही सम्भव है। सत् की चर्चा तथा तथा चिन्तन करने के लिए मानव को शरीर इन्द्रिय,मन,बुध्दि आदि की अपेक्षा होती है; कारण कि श्रम का सम्पादन शरीरादि के बिना सम्भव नहीं है,किन्तु सत् का संग करने के लिए शरीर के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती। वह तो श्रम-रहित होने पर अपने आप हो जाता है। जब तक साधक उन्हीं प्रवृत्तियों को महत्व देता है,जिनके लिए उसे वस्तु,योग्यता,सामर्थ्य आदि की आवश्यकता होती है,तब तक विश्राम से साध्य सत् का संग नहीं होता।.......सत् की चर्चा तथा उसके चिन्तन से सत्संग की अभिरुचि जागृत होती है,सत् का संग नहीं होता,अर्थात् सत्संग की मांग सबल होती है। सत्संग की माँग में असत् के त्याग की सामर्थ्य निहित है।.......सत्संग का प्रभाव शरीर,इन्द्रिय,मन,बुध्दि आदि पर स्वत: होता है।"

''विवेचन और चिन्तन के बाद जब व्यक्ति असत् के संग का त्याग कर देता है और जीवन के सत्य को स्वीकार कर लेता है तब उसके व्यक्तित्व में आमूल परिवर्तन तत्काल हो जाता है। यही सत्संग का फल है।"

''मानव सेवा संघ मानव-समाज को इसी अर्थ में सत्संग को अपनाने की प्रेरणा देता है।'' एक प्रकार से सचेत किया गया है कि सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन को ही सत्संग मान लेने से सफलता नहीं मिलती।"

वास्तविक सत्संग क्या है इसे अनेक प्रकार से समझाया गया है-

- प्राप्त विवेक के प्रकाश में जाने हुए असत् का त्याग सत्संग है।

- जीवन के सत्य को स्वीकार करना सत्संग है।

- निज विवेक का आदर करना सत्संग है।

- भूल को भूल जानकर उसका त्याग कर देना सत्संग है।

- ज्ञान के आधार पर अकिंचन या अचाह होकर अप्रयत्न हो जाना सत्संग है।

 सत्संग का अर्थ है-विवेक विरोधी कर्म,विवेक विरोधी सम्बन्ध व विवेक विरोधी विश्वास का त्याग।

- आस्था के आधार पर सुने हुए प्रभु के अस्तित्व, महत्व एवं अपनत्व को स्वीकार करके निश्चिन्त तथा निर्भय हो जाना सत्संग है।

मानव सेवा संघ दर्शन में, ''सत्संग मानव का स्वधर्म बताया गया है। स्वधर्म के पालन में व्यक्ति सर्वदा समर्थ एवं स्वाधीन है। .....सत् के संग में व्यक्ति सदैव रहता है। सत् उसे नहीं कहते जो सदैव,सर्वत्र और सभी में न हो। सत् ही सर्व उत्पत्ति का आधार और सर्व प्रतीति का प्रकाशक है। अत: सत् से कोई व्यक्ति अलग नहीं हो सकता। अपने जाने हुए असत् के संग से उत्पन्न हुए विकारों के कारण व्यक्ति को नित्य विद्यमान सत् की विद्यमानता का आनन्दमय अनुभव नहीं होता।"

''मानव सेवा संघ ने असत् के संग-जनित विकारों के नाश को ही साधक का परम पुरुषार्थ बताया है। यह जीवन का सत्य है कि असत् के संग का त्याग कर देने पर, अर्थात् विवेक-विरोधी कर्म,सम्बन्ध और विश्वास का त्याग कर देने पर व्यक्ति के अह्म रूपी अणु में विद्यमान सत्य प्रत्यक्ष हो जाता है। असत् के त्याग में सत् का संग निहित है,मानव सेवा संघ के अनुसार सत्संग का यही अर्थ है।"

स्वामी शरणानन्द जी ने 'सत्संग' की व्याख्या इस प्रकार भी किया है:-

''सत्संग तीन प्रकार का होता है:-

(क) कर्तव्यनिष्ठ होने का सत्संग: इस सत्य को स्वीकार करो कि सभी अपने हैं-निज स्वरूप है; तो सुखी को देखकर प्रसन्न हो जाओगे,दु:खी को देखकर करुणित हो जाओगे। करुणा से भोग की रुचि का नाश व प्रसन्नता से नीरसता का नाश होगा।

(ख) ज्ञानी का सत्संग: मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिये।

(ग) ईश्वर विश्वासी का सत्संग: प्यारे प्रभु मेरे अपने हैं,अपने में है और कण-कण में व्याप्त हैं। यह तीनों प्रकार का सत्संग स्वधर्म है।

सत्संग की तीन विधियां बतायी गई हैं:-

(क) मूक और व्यक्तिगत सत्संग-

''व्यक्ति सोकर जागते ही प्रात:काल ब्रह्म-मुहूर्त में शान्त होकर अपने सम्बन्ध में विचार करे,अपने लक्ष्य को स्पष्ट करे,वर्तमान में जो दोष दिखाई दें उनका त्याग करे,निर्दोषता की शान्ति में अहंकृति रहित होकर निवास करे। अहंकृति रहित होने से जीवन के मंगलमय विधान के अनुसार शरीरों से तादात्म्य तोड़ने की सामर्थ्य आ जाती है। अशरीरी जीवन का अनुभव हो जाता है।"

नोट-1: आदर्श समय तो यही है, परन्तु यदि अपनी अपरिहार्य दिनचर्या के कारण प्रात:काल यह सम्भव नहीं है तो रात्रि में सोने से पहले इसे अपनाया जा सकता है अन्यथा अपनी दिनचर्या के बीच जो निवृत्ति काल हो जब अपने को कुछ भी नहीं करना है,तब यह सत्संग अपनाया जा सकता है। मुख्य बात यह है कि यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि इस विधि पर कितना दृढ़ विश्वास है कि इससे मुझे नित्य अविनाशी रसरूप जीवन प्राप्त होगा और इस जीवन को प्राप्त करने के प्रति कितनी तीव्र उत्कण्ठा (भूख) है।

नोट-2: ऊपर शब्द आये हैं 'अहंकृति रहित होकर' । अहंकृति रहित होने का अर्थ है कर्तृत्व (कर्तापन) का अभिमान न हो-क्रिया जनित सुख का भोग न हो और कर्म के फल में आसक्ति न हो।

(ख) पारिवारिक सत्संग-

''पारिवारिक जीवन में चौबिस घंटे में कोई एक समय ऐसा निकालना चाहिए कि जिसमें परिवार के सभी सदस्य प्रेमपूर्वक एवं साथ बैठकर जीवन के सत्य पर विचार कर सकें। पारस्परिक पारिवारिक व्यवहार की कठिनाइयों एवं मतभेदों को दूर करने के लिए अपनी-अपनी भूलों को जान सकें और उनका त्याग करने का व्रत लें। प्रेमपूर्वक सर्व-हितकारी भाव से प्रार्थना करें। इस योजना से परिवार के भीतर गलतफहमी के कारण उत्पन्न होने वाले वैमनस्य का अन्त होता है और एक दूसरे के सह-संकल्प से शुभ विचारों को पुष्टि मिलती है,परिवार के अन्य सदस्यों के अधिकारों की रक्षा करने में अपनी-अपनी कर्तव्यनिष्ठा की पुष्टि होती है। ये सभी बातें आंतरिक और व्यवहारिक उन्नति में सहयोगी हैं।" तत्पश्चात् थोड़ी देर के लिये सभी लोग भीतर बाहर से शान्त हो जायें-मूक हो जायें। मूक होकर सत् के संग हों। (इसके सम्बन्ध में साधन-सूत्र-37 पढ़ें)

(ग) सामूहिक सत्संग-

''जब कभी हम सामूहिक सत्संग के लिए एकत्रित हो तो अनेक प्रकार की भिन्नता होते हुए भी साध्य की एकता के नाते मूक होकर सर्वात्मभाव की पुष्टि करें। प्रीति की एकता ही सामूहिक उन्नति की नींव है। मानव सेवा संघ ने इस प्रीति की एकता को सुरक्षित रखने पर बहुत जोर डाला है।"

अन्त में सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि-

''मानव के जीवन में सत्संग का महान फल होना बताया है। मानव सेवा संघ की पध्दति में शान्ति,मुक्ति,भक्ति को सत्संग से साध्य माना गया,अभ्यास से नहीं। सत्संग कर लेने पर साधन,ध्यान,भजन आदि स्वत: होने लगते हैं। इसके विपरीत सत्संग किये बिना किसी प्रकार की साधना का प्रयास असफल ही रहता है। क्रियात्मक साधना के अभ्यास से व्यक्ति की उस क्रिया विशेष में आसक्ति हो जाती है,उससे अपने वास्तविक जीवन की अभिव्यक्ति नहीं होती।"

ज्ञान के आधार पर किये हुए सत्संग का फल 'साधन' है और आस्था के आधार पर किये हुए सत्संग का फल 'भजन है'।"



-मानव सेवा संघ दर्शन पर आधारित एवं उध्दरित।





Monday, April 25, 2011

-: साधन सूत्र-34 :-

-: साधन सूत्र-34 :-

मानव सेवा संघ दर्शन में साधना का अर्थ और साधना-प्रणाली

साधना क्या है? साधना उसे कहते हैं जो साधक को साध्य से मिला दे। दूसरे,साधना की नहीं जाती बल्कि साधक के जीवन में इसकी अभिव्यक्ति होती है। साधना में श्रम और पराश्रय अपेक्षित नहीं है। यदि श्रम और पराश्रय अपेक्षित होता तो यह सबको समान रूप से उपलब्ध नहीं होता क्योंकि सब इसमें समान रूप से समर्थ नहीं होते। फिर वह साधना, साधना कैसी जो सबके लिए समान रूप से सुलभ न हो।

साधक-साधन-साध्य की सूक्ष्म चर्चा साधन-सूत्र-15 में की गयी थी। यहाँ थोड़ा विस्तार से प्रस्तुत है।

मानव सेवा संघ की परम कोटि की साधिका माँ दिव्य ज्योति (देवकी बहन) के दो लेख-''साधना कया है'' और ''मानव सेवा संघ की साधना-प्रणाली नाम से मानव सेवा संघ रजत ज्यन्ती स्मारिका में प्रकाषित हुए थे। उन्हीं से कुछ उध्दरण प्रस्तुत हैं जो इस विषय पर सहज और सटीक ढंग से प्रकाश डालेंगे।

''साधना साधक का जीवन और साध्य का स्वभाव है।..... साधक उसे कहते हैं जिसे अपनी वर्तमान दुर्बलताओं का पता हो, जो अपनी मांग को जानता हो और मांग की पूर्ति के लिए अपने दायित्व को पूरा करने में तत्पर हो।.....मांग की पूर्ति के लिए जो दायित्व साधक पर है उसको पूरा करना साधना का आधार है। मानव सेवा संघ के अनुसार साधना ऊपर से भरी नहीं जाती,प्रत्युत सत्संग के फलस्वरूप व्यक्ति के व्यक्तित्व में ही साधना की अभिव्यक्ति होती है। जैसे,जो सदा के लिए साथ नहीं रह सकता उसकी ममता और कामना रखना भूल है। मानव का निज अनुभव है कि दृश्य जगत की कोई भी वस्तु, व्यक्ति,अवस्था,परिस्थिति सदा के लिए साथ नहीं रह सकती। अत: इनकी ममता और कामना रखना भूल है। भूल को भूल जानकर उसका त्याग कर देना सत्संग है। ममता और कामना का त्याग करने से व्यक्तित्व में निर्विकारता आती है। यह निर्विकारता साधना है। बिना देखे,बिना जाने परमात्मा से आत्मीय सम्बन्ध की स्वीकृति से प्रिय की स्मृति जागृत होना साधना है। इस प्रकार भगवत-स्मृति,निष्कामता,निर्विकारता साधना है जो साधक के व्यक्तित्व में स्वत: ही अभिव्यक्त होती है।"

आगे बताया है कि ''जो साधना साधक में अभिव्यक्त होती है वह कभी खण्डित नहीं होती। वह साधना साधक को आत्मसात् करके साध्य की अभिन्न्ता में विलीन हो जाती है। साधना, साधक और साध्य के बीच भेद, भिन्नता और दूरी नहीं रहने देती।"

साधना के स्वरूप के सम्बन्ध में स्पष्ट किया है कि- ''साधना शरीर-धर्म नहीं है। यह साधक का स्व-स्वरूप और साध्य का स्वभाव है। साधक की अभिन्नता साधन से ही होती है,अर्थात् साधक साधना होकर साध्य से मिलता है। साधना माने क्या,साध्य की अगाध प्रियता। साधक का सम्पूर्ण अहम् साध्य की अगाध प्रियता में रूपान्तरित हो जाता है।''

ऊपर कहा गया है कि साधना शरीर धर्म नहीं है। उसी क्रम में आगे बताया गया है कि-

''साधना उसे नहीं कहते जो साधक को पराश्रित और पराधीन बना दे। जिस साधना से साध्य से अभिन्नता (मिलन अर्थात् Total identity) होती है वह साधना साधक के सूक्ष्माति-सूक्ष्म अहं का रूपान्तर है। इसलिए मानव सेवा संघ ने साधन करने की बात नहीं कही,'साधन-निर्माण' की बात कही। साधन-निर्माण का अर्थ क्या है?........ मानव सेवा संघ किसी भी विध्यात्मक साधना-प्रणाली का आग्रह या विरोध नहीं करता,परन्तु योग, बोध और प्रेम जो साधक मात्र के जीवन का लक्ष्य है उसकी अभिव्यक्ति के लिए मौलिक और अनिवार्य तथ्यों को अपनाने का परामर्श देता है। जैसे ईश्वरवादी साधक अपनी-अपनी रुचि के अनुसार साकार उपासना अथवा निराकार उपासना चाहे जैसा पसन्द करें कर सकते हैं। वे अपनी निष्ठा,अपनी पसन्दगी के अनुसार विध्यात्मक साधना में स्वाधीन हैं। परन्तु मानव सेवा संघ ने उपासना का अर्थ बताया-'साध्य से आत्मीय सम्बन्ध की स्वीकृति।' विश्वास-पथ के साधकों की साधना का मूल मंत्र है-जिस ईश्वर की सत्ता को आस्था,श्रध्दा,विश्वास के आधार पर स्वीकार किया गया,उससे आत्मीय सम्बन्ध को मानना और सब सम्बन्ध एक सम्बन्ध में,सब विश्वास एक विश्वास में विलीन कर देना अर्थात् अन्य सम्बन्धों तथा अन्य विश्वासों को छोड़ देना।......इस प्रकार सत्य की स्वीकृति के फलस्वरूप भगवत-स्मृति तथा अन्य की विस्मृति का अभ्यास नहीं करना पड़ता, यह सब स्वत: हो जाता है। मानव सेवा संघ ने इसी को भगवत्-भजन कहा है। साधक की सम्पूर्ण वृत्तियाँ इस स्मृति से एकाकार होकर साध्य के मिलन की उत्कट अभिलाषा का रूप धारण कर लेती हैं। इसको मानव सेवा संघ ने साधन-तत्व कहा है। साधक का अह्म प्रिय-मिलन की उत्कट अभिलाषा से भिन्न और कुछ नहीं रह जाता। तब उसी में उसका साध्य प्रकट होकर साधक को सदा-सदा के लिए अपना लेता है।"

''इस दृष्टि से विश्वास-पथ के साधक की साधना का मूल मंत्र है, साध्य के साथ आत्मीय सम्बन्ध की स्वीकृति। यह स्वीकृति शरीर धर्म नहीं है। यह स्वीकृति कोई अभ्यास या अनुष्ठान नहीं है। यह स्वीकृति साधक का स्वधर्म है।"

इस कारण इस बात पर बल दिया है-

''.......साधक...... जिस विध्यात्मक प्रणाली को स्वीकार करना चाहे कर सकता है, परन्तु 'स्व' के द्वारा साध्य से आत्मीय सम्बन्ध अवश्य स्वीकार करे,अन्यथा कोई भी विध्यात्मक साधना सजीव नहीं होगी।"
नोट-1: इस व्याख्या के दोनों विषय आपस में इतने जुड़े हैं कि इनके बीच कोई सीमा रेखा खींचना सम्भव नहीं है। इसलिए इनकी चर्चा में समिश्रण (overlapping) स्वाभाविक है।

नोट-2: ऊपर कहा गया है कि ''अर्थात् अन्य सम्बन्धों तथा अन्य विश्वासों को छोड़ देना।" इससे भ्रम न हो जाये इसलिए इसका तात्पर्य समझना आवश्यक है। जिन व्यक्तियों और वस्तुओं से सम्बन्ध माना है और उन पर विश्वास किया है-उन व्यक्तियों/वस्तुओं को छोड़ने की बात नहीं है। व्यक्तियों की सेवा और वस्तुओं का सदुपयोग करना है। उनसे माने हुए सम्बन्ध और उन पर विश्वास को छोड़ना है।

क्रियात्मक साधना के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि-

''क्रियात्मक साधना अखण्ड नहीं हो सकती। शरीरों पर आधारित क्रियाओं के फलस्वरूप साधक के व्यक्तित्व में अलौकिक जीवन का अनुभव उद्भूत नहीं होता। क्रिया में जब साधक के अविनाशी ज्ञान और प्रेम का पुट रहता है तो आगे चलकर अविनाशी तत्व विकसित होते चले जाते हैं। उनकी सरसता में साधना का क्रियात्मक पक्ष गौड़ होता जाता है और अन्त में सब क्रियायें भाव में विलीन हो जाती हैं। तभी साधना सफल होती है।"

यह वास्तविकता कई बार दोहराई जा चुकी है कि साधना की नहीं जाती बल्कि साधक के व्यक्त्वि में इसकी स्वत: अभिव्यक्ति होती है। देव  की  बहन  जी  ने  'मानव सेवा संघ  की साधना-प्रणाली'  नामक व्याख्या में इसे पुष्ट करते हुए इस प्रकार कहा है-

''मानव सेवा संघ के अनुसार साधना की नहीं जाती, सत्संग के प्रभाव से साधना निर्मित होती है और व्यक्ति के व्यक्तित्व में से साधन-तत्व की अभिव्यक्ति होती है। साधक होने के लिए सत्संग करना अनिवार्य है। सत्संग क्या है? जीवन के सत्य को स्वीकार करना सत्संग है। जीवन का सत्य क्या है? देह मैं नहीं हूँ,'देह' मेरी नहीं है। यह जीवन का सत्य है। दृश्य-मात्र से मेरा नित्य सम्बन्ध नहीं है,यह जीवन का सत्य है। जिससे नित्य सम्बन्ध नहीं है, उसकी ममता और कामना के त्याग से अशान्ति और पराधीनता का नाश होता है,यह जीवन का सत्य है। प्राप्त सामर्थ्य के द्वारा पर-पीड़ा में हाथ बटाने से उदारता और करुणा का रस बढ़ता है जो अह्म की शुध्दि में हेतु है,यह जीवन का सत्य है। जिससे नित्य सम्बन्ध है,उस बिना देखे,बिना जाने परमात्मा में आस्था,श्रध्दा,विश्वास-पूर्वक आत्मीय सम्बन्ध स्वीकार करने से उस नित्य प्राप्त की प्रीति जागृत होती है,यह जीवन का सत्य है। अपने जाने हुए असत् के त्याग से असाधनों का नाश स्वत: होता है और जीवन के सत्य को स्वीकार करने से व्यक्ति के व्यक्तित्व में विद्यमान अलौकिक तत्वों का विकास होता है। मानव सेवा संघ में इन्हीं दो बातों को साधक का परम पुरुषार्थ बताया गया है।"

''साधक होने के लिए व्यक्ति को किसी बाह्य वस्तु,व्यक्ति,अवस्था, परिस्थिति की अपेक्षा नहीं है। व्यक्ति के व्यक्तित्व मं ही विद्यमान भाव-शक्ति,विचार-शक्ति और कार्य-क्षमता के आधार पर साधना का निर्माण होता है। कार्य-क्षमता के आधार पर साधना क्या है? प्राप्त बल का दुरुपयोग न करना एवं निकटवर्ती जन-समुदाय की यथाशक्ति क्रियात्मक सेवा करना साधना है। मन से,वचन से,कर्म से बुराई-रहित होकर सद्भाव-पूर्वक सभी को सहयोग देना कर्म-क्षेत्र की साधना है। इसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप है दु:खी मात्र के दु:ख से करुणित होना एवं सुखी मात्र के सुख से प्रसन्न होना। करुणा और प्रसन्नता उदारता है। उदारता साधन-तत्व है,इसी के आधार पर कर्तव्यनिष्ठ साधक को विश्व-प्रेम प्राप्त होता है।, जो साधना की सफलता है।"

''विचार-शक्ति के आधार पर दृश्य जगत में 'मेरा कुछ नहीं है' और 'मुझे कुछ नहीं चाहिए' ऐसा जानकर किये हुए सर्व हितकारी कर्म के फल तथा कर्तापन के अभिमान को छोड़ना साधना है। निर्मम,निष्काम होने से स्वत: ही शरीरों से असंगता होती है। अकिंचन अचाह होकर अप्रयत्नपूर्वक अहंकृति-रहित होना विचारक साधक की साधना है। असंगता से चिर-विश्राम और स्वाधीनता आती है; ये साधन-तत्व हैं, ये साधन तत्व व्यक्ति के व्यक्तित्व में से ही अभिव्यक्त होते हैं और इन्हीं के द्वारा साधक दिव्य-चिन्मय जीवन से अभिन्न हो जाता है।"

''भाव-शक्ति के आधार पर बिना देखे,बिना जाने, परमात्मा से आत्मीयता को स्वीकार किया जाता है। इस स्वीकृति से जो अपने ही में विद्यमान हैं,उसकी मधुर-स्मृति जागृत होती है। मधुर-स्मृति का जागृत होना विश्वासी साधक की साधना है। इस स्मृति के जागृत होते ही साधक के जीवन की निरसता का नाश होता है। प्रिय की मधुर-स्मृति विश्वासी साधक के सम्पूर्ण अह्म को प्रेम की धातु में रूपान्तरित कर देती है। विश्वासी साधक प्रेम होकर प्रेमास्पद से अभिन्न हो जाता है,यह उसकी साधना की सफलता है।"

''उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो गया कि मानव सेवा संघ ने व्यक्ति के व्यक्तित्व के तीनों पहलुओं पर आधारित तीन साधना प्रणाली का प्रतिपादन किया है। कार्य-क्षमता के आधार पर कर्तव्य-पथ,विचार शक्ति के आधार पर ज्ञान-पथ एवं भाव शक्ति के आधार पर भक्ति-पथ-इन तीनों ही साधन-प्रणालियों को समान रूप से महत्वपूर्ण माना गया है। किसी प्रणाली को सहज और किसी को कठिन नहीं माना गया है।"

''भाव, विचार और कर्म एक ही व्यक्तित्व के अनिवार्य पहलू (component parts) हैं। फलस्वरूप कर्तव्य-पथ,ज्ञान-पथ और भक्ति-पथ में परस्पर विरोध नहीं है,प्रत्युत तीनों ही एक दूसरे के सहायक हैं। कर्तव्य-पथ के साधक में सही प्रवृत्ति के बाद सहज निवृत्ति की शान्ति स्वत: अभिव्यक्त होती है। मानव सेवा संघ के सिध्दान्त में कर्तव्य-विज्ञान का उत्तर पक्ष योग बताया गया है। योग में बोध एवं बोध में प्रेम स्वत: अभिव्यक्त होता हैं। योग-बोध-प्रेम में जीवन की पूर्णता है। विचार-पथ की प्रणाली से भी वही सत्य मिलता है जो विश्वास पथ की प्रणाली से मिलता है।"

परन्तु जीवन में असाधन रहते हुए कोई भी प्रणाली सफलता प्रदान नहीं कर सकती क्योंकि-

''असाधन के साथ-साथ किया गया साधन सफल नहीं होता। इस कारण साधक-समाज को असाधनों के नाश का पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिए,उदाहरणार्थ-बल का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए,विवेक का अनादर नहीं करना चाहिए,ईश्वर-विश्वास में विकल्प नहीं करना चाहिए, प्राप्त गुणों एवं साधन के फल का अभिमान लेकर अह्म को पोषित नहीं होने देना चाहिए,श्रध्दा में तर्क और तर्क में श्रध्दा नहीं मिलाना चाहिए। .........असाधन उत्पन्न करने वाली भूलों का त्याग कर देने पर साधक के लिए साधना सहज स्वाभाविक हो जाती है। असाधनों का त्याग ऐसी अपरिहार्य साधना है कि संघ के प्रणेता श्री महाराज जी ने अनेक स्थानों पर कहा है कि-साधना माने क्या? बुराई रहित होना।"

मानव सेवा संघ की साधना-प्रणाली की चर्चा करते हुए देवकी बहिन जी ने बताया है कि इसमें ''मूक-सत्संग विशेष महत्वपूर्ण स्थान रखता है। मूक हो जाना अर्थात् कुछ न चाहना,कुछ न करना एवं अप्रयत्न हो कर अहंकृति-रहित होना।"

साधना के सम्बन्ध में देवकी बहिन जी ने एक विशेष बात कहा है जो बहुत ही मार्मिक है-

''साधना सम्बन्धी सबसे ऊॅंची और अन्तिम बात है साध्य से अभिन्न होने की तीव्र मांग की जागृति। श्री महाराज जी ने कहा है कि साध्य से मिलने के लिए अत्यन्त व्याकुल हो जाना सबसे बड़ी साधना है।"

देवकी बहिन जी के इन दोनों लेखों यथा-साधना क्या है-और मानव सेवा संघ की साधना-प्रणाली,में विस्तार से व्याख्या की गई है। यह चर्चा बहुत लम्बी न हो जाये,इसलिए कुछ खास-खास बिन्दुओं को ऊपर प्रस्तुत किया गया है।

जिस स्मारिका (पुस्तक) में ये लेख छपे थे, वह out of print है। विस्तार से इस व्याख्या को पढ़ने और समझने के इच्छुक पाठकों को दृष्टि में रखकर इन  दोनों  लेखों  की  फोटो प्रतियां संलग्नक (क) और (ख) के रूप में प्रस्तुत है।

Thursday, April 21, 2011

-: साधन सूत्र-33:-


-: साधन सूत्र-33:-

सेवा का अर्थ और स्वरूप


पर हित की दृष्टि से समाज में अनेकों लोग व्यक्तिगत रूप से, निजी संगठनों (Private institution) के माध्यम से अथवा गैर सरकारी संस्थाओं (NGO) के माध्यम से रोगियों,अशिक्षित वर्ग,शारीरिक रूप से अक्षम व निर्धनों आदि के लिए विभिन्न प्रकार के परोपकारी कार्य करते हैं। पर क्या उनमें से सभी लोग नि:स्वार्थ भाव से,करुणावशया समाज के प्रति दायित्व या समाज से जो पाया है वह ऋृण चुकाने के भाव से प्रेरित होकर ऐसे हितकारी कार्य करते हैं? अपने अन्दर झांक कर देखना होगा कि कहीं हमारे दिल के एक कोने में स्वार्थ भाव तो नहीं छिपा है कि इससे हमें ख्याति प्राप्त होगी,मान सम्मान मिलेगा,दानियों/परोपकारियों की लिस्ट में नाम आयेगा,जिनकी सेवा कर रहे हैं उनकी कृतज्ञता प्राप्त होगी या और कुछ नहीं तो वोट बैंक बनेगा या पुण्य कमायेंगे। यदि है तो ऐसी प्रवृति परोपकार और पुण्य भले ही हो,परन्तु सेवा की संज्ञा नही बनेगी।

सेवा उसे कहते है जो मानव कहें अथवा साधक कहें के द्वारा जीवन के वास्तविक लक्ष्य-नित्य अविनाशी रसरूप जीवन की अथवा योग-बोध-प्रेम की ईश्वरवादी हैं तो प्रभु प्रेम की-एक शब्द में अपने साध्य की प्राप्ति हेतु, उसके साधन निर्माण में सहायक हो।

अत: सेवा का अर्थ और उसका स्वरूप क्या है कि विवेचना उपयुक्त होगी।

ब्रह्मनिष्ठ,क्रांतदर्शी प्रज्ञा-चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी द्वारा प्रणीत मानव सेवा संघ की पुस्तक ''साधन-त्रिवेणी'' में 'सच्चा साघक कौन' शीर्षक के अन्तर्गत स्वामी जी की वाणी है:-

''अब सेवा का अर्थ क्या है? सेवा का अर्थ है कि जिसके बदले में हम सुख का भोग न करें। जैसे-आपने कोई सेवा की और मन में ऐसा प्रतीत हुआ कि हम बड़े उदार आदमी हैं। हमने बड़ी सेवा की है। यह किया,वह किया,अब आपने इससे बड़ा सुख लिया तो सेवा नहीं भोग हो गया।"

''.......सेवा होती है दूसरों के हित के लिये- अगर हम सुख का भोग करेंगे तो मोह और आसक्ति में आबध्द हो ही जायेंगे। अगर सेवा करेंगे तो बोध और प्रेम से अभिन्न हो जायेंगे।"

''सेवा कैसे करनी चाहिए इस सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिए। सामर्थ के अनुसार विवेक के अनुसार सेवा करनी है। ज्ञान और सामर्थ्य के अनुसार ही सेवा की जाती है।"

''ज्ञान विरोधी सेवा करनी नहीं है और सामर्थ्य विरोधी सेवा कर ही नहीं सकते आप। सेवा का अर्थ होता है अपना सुख बाँटना। किसी की आवश्यकता को पूरा करना तो अपने हाथ में है नहीं,अपना सुख्या बाँटना हाथ में है। तो हमारने पास जो सुख की वस्तु हो-शरीर का सुख है तो शरीर से सेवा करना मन से सद्भाव रखना,बुराई रहित होना। यह सेवा कहलाती है। मन,वाणी,कर्म से अगर हम बुराई रहित हो जाएँ,तो यह विश्व की सेवा कहलाती है और ज्ञान और सामर्थ्य के अनुसार दूसरों के काम आ जाएँ,यह समाज सेवा कहलाती है और यदि अचाह हो जाएँ तो यह अपनी सेवा कहलाती है। यदि हम प्रभु की प्रियता प्राप्त करलें तो यह प्रभु की सेवा कहलाती है।"

हममें से बहुत लोग शरीर बल,धन बल,बुध्दि बल अथवा परिस्थिति वश औरों की अपेक्षा कम समर्थ होते हैं। ऐसे लोगों के लिए स्वामी की नीचे प्रस्तुत वाणी बहुत उत्साहवर्धक है:-

''सेवा में यह नहीं कहा जाता कि जिसके पास विशेष सामर्थ्य होगी उसकी सेवा का विशेष फल होगा और अल्प सामग्री से जो सेवा की जायेगी उसका फल अल्प होगा। ऐसा नहीं होता। सेवा का फल समान होता है। चाहे किसी तृषावन्त (प्यासे) को अपनी सामर्थ्य के अनुसार एक गिलास पानी पिला दो और चाहे सम्पत्तिशाली होकर वाटर वर्कस बना दो। चाहे एक विद्यार्थी की सेवा कर दो और चाहे एक विश्वविद्यालय बनवा दो। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता।"

एक दृष्टान्त पर्याप्त होगा, इसे समझने के लिए महात्मा गाँधी के आश्रम में एक कुष्ठ रोगी रहा करते थे। प्रात:कालीन टहलने के उपरान्त गाँधी जी स्वयं अपने हाथों से उनके घावों को साफ करके मरहम पट्टी करते थे। केवल यही नहीं,वे आश्रम के शौचालयों की सफाई में भी सहयोग करते थे।

सेवा दो प्रकार की होती है-क्रियात्मक और भावात्मक। इस बारे में अर्थात् सेवा के स्वरूप के बारे में स्वामी जी ने कहा है कि-

''सुखमय परिस्थिति में आपको क्रियात्मक सेवा करनी चाहिए और दु:खमय परिस्थिति में भावत्मक सेवा करनी चाहिए। जो क्रियात्मक सेवा का फल होता है वही भावात्मक सेवा का फल होता है। लेकिन आप यह कहें कि सुखमय परिस्थिति होगी तो हम बहुत सा दान करेंगे,बहुत सा काम करेंगे,उससे हमें बड़ा लाभ होगा। तो बड़ा लाभ नहीं होगा। लाभ उतना ही होगा जितना अल्प से होगा।"

विशेष महत्व का है:-

"आप जानते हैं कि बचने का क्या अर्थ होता है? जो न कर सकें, उसको तो करने की सोचें और जो कर सकें उससे जान बचायें। क्या बतायें महराज! धन होता तो, दान दे देते! हमने कहा भले आदमी,उसमी से कितना दे दिया जो पास में है? जो है,उसमें से कितना दे दिया।"

सेवा करने के लिए क्या बात अपेक्षित है, इसको स्वामी जी ने इस प्रकार स्पष्ट किया है:-

''अब कोई यह कहे कि राग के बिना हम अपने प्रियजनों की सेवा कैसे करेंगे? तो कहना होगा कि सेवा करने के लिए राग अपेक्षित नहीं है,अपितु उदारता की अपेक्षा है। कारण कि,उदारता आ जाने पर पराया दु:ख अपना दु:ख बन जाता है और फिर अपना सुख वितरण करने में लेश मात्र भी संकोच नहीं रहता। इतना ही नहीं,सुख भोग की आसक्ति का अन्त हो जाता है। यही सेवा का वास्तविक सार्थकता है। सेवा का अन्त किसी वस्तु, पद आदि की प्राप्ति में नहीं है। सेवा का अन्त तो त्याग में और त्याग का अन्त प्रभु-प्रेम में होता है।"........

.....''वास्तविक सेवा क्रियात्मक रूप से भले ही सीमित हो,किन्तु भावरूप से असीमा ही होती है। क्योंकि सेवा का जन्म ही होता है स्वार्थ भाव के मिट जाने पर। अर्थात् रोग रहित हो जाने पर, जिन साधनों से क्रियात्मक सेवा की जाती है,वे सीमित ही होते हैं। इस कारण सेवक का कर्म सीमित होता है। किन्तु जिस सर्वहितकारी सद्भावना से सेवा की जाती है, वह भाव असीम ही होता है।"

'' यह नियम है कि जो कर्म जिस भाव से किया जाता है। अन्त में कर्ता उसी भाव में विलीन हो जाता है। इस दृष्टि से सेवक का सीमित कर्म भी सेवक को असीम प्रेम से अभिन्न कर देता है।"

प्रथम पृष्ठ पर सेवा को जीवन के लक्ष्य (साध्य) की प्राप्ति हेतु साधन-निर्माण में सहायक कहा गया है। इस बिन्दु पर स्वामी जी का कथन बड़ा स्पष्ट है-

''मानव जीवन में सेवा का व्रत एक महत्वपूर्ण साधन है क्योंकि सेवा प्रेम का क्रियात्मक रूप है और त्याग प्रेम का विवेकात्मक रूप है। प्रेम तत्व में ही जीवन की पूर्णता है। जब तक प्रेम तत्व से अभिन्नता नहीं होती तब तक जीवन पूर्ण नहीं होता। प्रेम तत्व की प्राप्ति के लिए सेवा और त्याग साधन है। सेवा के बिना और त्याग के बिना प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। तो दु:ख का प्रभाव हमें त्याग की प्रेरणा देता है और सुख हमें सेवा की प्रेरणा देता है।"

सेवा का अर्थ तथा स्वरूप को और स्पष्ट करने के लिए स्वामी जी ने इस प्रकार कहा है-

''सेवा का आरम्भ जो होता है वह बुराई-रहित होने से, मध्य में सुखद घड़ियों में यथाशक्ति भलाई से और अन्त में अचाह होने से। अगर भलाई का फल चाहेगा तो सेवा नहीं हो सकती; बुराई रहित नहीं होगा तो सेवा नहीं हो सकती। तो भलाई का फल मत चाहो और बुराई रहित हो जाओ यही तो सेवा का स्वरूप है। सभी के प्रति सद्भाव यह सेवा है,यथाशक्ति सहयोग यह सेवा है।.................. ''लेकिन दु:ख की बात तो यह है कि कुछ लोग सोचते हैं कि पैसा खर्च कर दो सेवा हो गई। कुछ लोग समझते हैं कि शरीर से कार्य कर दो तो सेवा हो गई। कर्म में और सेवा में भेद है। कर्म अपने सुख की भावना से प्रेरित होकर किया जाता है और सेवा पर-हित की दृष्टि से की जाती है। तो जो सभी का हित चाहता है वह सेवा कर सकता है।"

स्वामी जी ने एक और बात के प्रति सचेत किया जो संक्षेप में यह है कि साधन के साथ-साथ असाधन भी होगा तो बात नहीं बनेगी। जिस साधन से सेवा करें वह न्यायपूर्वक अर्जित हो अन्यथा वह उसी प्रकार का हो जायेगा जैसे एक तरफ तो गलत धंधा करके धन बटोरा और दूसरी ओर मंदिर धर्मशाला आदि बनवा दिया। पाप-पुण्य का लेखा-जोखा भले ही बराबर होता रहे पर यह सेवा की संज्ञा में नहीं आयेगा।

अन्त में सारे कथन का सारांश के रूप में स्वामी जी के ही शब्दों में-

''क्रियात्मक सेवा निकटवर्ती प्रिय जनों की करो और भावात्मक सेवा सारे संसार की करो। किसी का बुरा मत चाहो, यह भावात्मक सेवा हो गई और यथाशक्ति किसी की मदद कर दो यह क्रियात्मक सेवा हो गई। यथाशक्ति किसी की सहायता कर दी,यह क्रियात्मक सेवा हो गई। किसी को बुरा मत समझो,यह भावात्मक सेवा हो गई। बुराई न करना,यह क्रियात्मक सेवा हो गई। बुराई न चाहना, यह भावात्मक सेवा हो गई।"

Wednesday, April 20, 2011

-: साधन सूत्र-32 :-

-: साधन सूत्र-32 :-

मानव जीवन में निवृत्ति काल का सदुपयोग


मानव जीवन के प्रसंग में प्रवृत्ति और निवृत्ति दो शब्द आते हैं। अपने व्यवसाय अथवा कार्यक्षेत्र से सम्बन्धित आवश्यक कर्तव्य-कर्म तथा परिवार के प्रति दायित्वों को निष्ठापूर्वक,कर्तव्य-परायणता के भाव से निबटाने को प्रवृत्ति कहते हैं। वैसे तो प्रत्येक कार्य जिसमें श्रम और पराश्रय अपेक्षित है वह प्रवृत्ति की ही श्रेणी में आता है। परन्तु आवश्यक कार्य को सही ढंग से पूरा करने के उपरान्त सहज निवृत्ति आती है जब यह महसूस होता है कि मुझे अब कुछ नहीं करना है। पर यह स्थिति तब ही आती है जब हम कार्य को निष्ठापूर्वक,मेहनत से लक्ष्य पर दृष्टि रखते हुए,निष्काम भाव से सम्पादित करते हैं। अन्यथा कार्य पूरा हो जाने के बाद भी किये हुए कर्म की,और आगे का चिन्तन बना रहता है। यह वह निवृत्ति नहीं है जिसके सदुपयोग की यहाँ चर्चा की जा रही है। वास्तव में वह निवृत्ति सही माने में हुई ही कहाँ जब हम आगे पीछे के चिन्तन में व्यस्त हैं।

यहाँ पहले चर्चा ऐसे लोगों से सम्बन्धित की जा रही है जो अब सक्रिय सेवा-काल (नौकरी आदि) से अवकाश पा चुके हैं (retired from active phase of life-service etc.)।

ऐसी आयु के अधिकांश लोगों के सामने यह समस्या होती है कि समय (निवृत्ति वाला जब सब आवश्यक कार्य पूरा कर चुके होते हैं) कैसे कटे और इसके लिए निरर्थक प्रवृत्तियों में लगे रहते हैं। उनके लिये समय बोझ स्वरूप हो जाता है। परन्तु समय तो अमूल्य है, उसे किसी प्रकार निष्प्रयोज्य कार्यों में नष्ट तो नहीं करना है। (Time is precious and it is not meant to be killed) उसका तो सदुपयोग करना है अपने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु। लक्ष्य तो है,शान्ति,स्वाधीनता और प्रियता,दूसरे शब्दों में योग,बोध और प्रेम की प्राप्ति। आत्म-साक्षात्कार या प्रभु-मिलन (self realization-God realization) भी कह सकते हैं।

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो जीवन के सक्रिय चरण से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् समाज-सेवा,परोपकारी प्रवृत्तियों और आवश्यकतानुसार अर्थ अर्जन के लिए किसी उद्यम, व्यवसाय आदि में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों के जीवन में प्रवृत्तियों के पश्चात्,(भले ही कम अवधि के लिए) निवृत्ति की अवस्था आती ही है जब यह भाव आता है कि अब कुछ नहीं करना है।  अत: जो तथ्य निवेदित हैं, वे उन पर भी वैसे ही लागू होते हैं।

जानकारी न होने से या इस बात में विश्वास न होने के कारण कि ''न करने में ही वास्तविक जीवन है", हम लोग आवश्यक कार्य सही ढंग से पूरा करने के पश्चात् जो सहज निवृत्ति होती है,उस निवृत्ति काल में कुछ भी न करके अन्दर बाहर से शान्त होकर अचिन्त की दशा प्राप्त करने के बजाय,कुछ व्यर्थ चिन्तन करते रहते हैं,या कुछ न कुछ करते रहते हैं,टी0वी0 के चैनल घुमाते रहेंगे,अखबार चाटेंगे,कोई पत्रिका उलटते-पलटते रहेंगे (सिर्फ समय काटने के लिए)।

ऐसा करने से बेहतर है भगवत् चिन्तन, भगवान की लीला कथाओं का पठन, ऐसे भजन-गीत सुनना या गाना या ऐसी creative hobbies जो हमें निजानन्द और शान्ति प्रदान करें। वे हमारे मानसिक और अध्यात्मिक स्तर को ऊपर उठायें (elevate करें) और आन्तरिक प्रसन्नता (elation) प्रदान करें।

परन्तु यह भी अखण्ड नहीं हो सकता। इनके पश्चात् भी कुछ न करने की स्थिति में आयेंगे ही क्योंकि इस प्रकार की प्रवृत्ति में क्रिया और पराश्रय होना ही है। इसलिए कुछ समय पश्चात् विराम आयेगा ही।

मानव सेवा संघ के प्रणेता ब्रह्मलीन संत स्वामी शरणानन्द जी ने 'मूक-सत्संग एवं नित्य योग' का  दर्शन  प्रतिपादित  किया  है । इस नाम की पुस्तक मानव सेवा संघ वृन्दावन से प्रकाशित है।

इस विषय की चर्चा अलग से होगी। संक्षेप में-मूक का अर्थ है अन्दर बाहर से शान्त हो जाना। सत्संग का अर्थ है सत् का संग। योग का अर्थ है जुड़ना। सत्य से जुड़ने को ही योग कहते हैं।

जब हम निवृत्ति काल में कुछ 'न करने' की स्थिति में होते हैं तब हम सत्य के संग होते हैं। अत: निवृत्ति काल में कुछ 'न करने' वाली स्थिति के लिए हमें अन्दर बाहर से शान्त हो जाना है। शरीर द्वारा कोई क्रिया नहीं और अपनी ओर से कोई चिन्तन नहीं। ऐसी दशा में अपने आप अपने मनस-पटल पर अपने किये और जो करना चाहते हैं का चित्र सिनेमा रील की भाँति आयेगा। मानव सेवा संघ दर्शन में इसे भुक्त और अभुक्त का प्रभाव कहते हैं जो उभर कर आता है। भुक्त और अभुक्त का अर्थ है जो हम भूतकाल में भोग चुके हैं या जिसे भोगना चाहते थे और नहीं भोग सके ;और भविष्य में जो करना चाहते हैं। ये दृश्य की भाँति जो अपने आप आते हैं,वे हमारे एक प्रकार से चित्र हैं।

अब यदि अपना कोई कुरूप चित्र आया तो उसका न तो विरोध करें और न ही किसी सार्थक चिन्तन द्वारा दबाने का प्रयास करें। इसी प्रकार यदि कोई सुन्दर चित्र आता है तो उसका समर्थन न करें और उसमें रस न लें। इन चित्रों का केवल इतना महत्व है कि यदि कुरूप चित्र आता है तो मानव सेवा संघ के नियम संख्या-2 के अनुसार की हुई भूल को पुन: न दोहराने क व्रत लें। हमारा वर्तमान (living present) निर्दोष होता है, अत: भूतकाल की भूलों के आधार पर अपने को दोषी न समझे और न इससे क्षुभित हों। भविष्य का कोई चित्र आता है तो मनोराज्य में लिप्त न हों,बल्कि जो आवश्यक कार्य भविष्य के लिए है उन्हें नोट कर लें, उसका प्रभाव समाप्त हो जायेगा।
 
सृष्टि में जो भी चीज उत्पन्न होती है उसका नाश भी होता है। इसलिए जो चित्र मानस पटल पर आते हैं वे भुक्त-अभुक्त के अंकित प्रभाव नाश होने के लिए उत्पन्न होते हैं। परन्तु हम उनका विरोध करके, उनमें रस लेकर या सार्थक चिन्तन द्वारा दबाने का प्रयास करके उन्हें सत्ता प्रदान कर देते हैं और वे बार-बार और वेग से आते हैं।

इसलिए हमें निर्लिप्त दृष्टा के रूप में मात्र असहयोग रखना है। जब हम राग और द्वेष रहित होकर निष्काम भाव से जो भी कार्य करेंगे उनके नवीन प्रभाव अंकित नहीं होंगे। पुराने अंकित प्रभावों का नाश हो जाने पर हम जब भी अन्दर बाहर से शान्त होकर बैठेंगे तो अचिन्त (thoughtlessness) की दशा और शान्ति होगी।

इसी शान्ति में विचार का उदय होता है और योग की भी प्राप्ति होती है। इस दशा में यदि रमण न करने लगे तो आगे अपने आप 'बोध' और प्रेम की प्राप्ति होगी। इन सब में रस ही रस है और रस में आनन्द ही आनन्द है। ऐसा जीवन किसे पसन्द नहीं आयेगा।

यह सारी चर्चा अवकाश प्राप्त व्यक्तियों को दृष्टि में रख कर किया गया। परन्तु यह उन लोगों के लिए भी है जो अवकाश प्राप्त नहीं है। ऐसे लोगों के भी जीवन में रोज की दिनचर्या में आवश्यक निजी,पारिवारिक और व्यवसाय/सेवा (service) सम्‍बन्‍धी आवश्यक कार्य (प्रवृत्ति) सही ढंग से पूरा करने के पश्चात्, चाहे थोड़ी ही देर के लिए सही, निवृत्ति काल आता है। कार्य के मध्य में भी यह स्थिति आती है। एक कार्य के अन्त और दूसरे कार्य के आदि- के बीच भले ही क्षणिक हो,पर निवृत्ति काल होता है। मानव सेवा संघ की सलाह है कि यदि हम इस छोटी अवधि में भी अन्दर बाहर से शान्त होने की आदत बना लें तो कार्य सम्पादन के पश्चात् थकित नहीं होंगे और कार्य कुशलता भी बढ़ जायेगी। जिस प्रकार विश्राम से पुन: शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है उसी प्रकार मानसिक रूप से शान्त हो जाने पर उसी शान्ति में सामर्थ्य की प्राप्ति होती है और विचार का उदय होता है। मानसिक शक्ति (energy) की बैटरी रिचार्ज (recharge) हो जाती है। समस्याओं और प्रश्नों का हल अपने आप निकल आता है।

अन्त में,इस सत्य में दृढ़ आस्था आवश्यक है कि कुछ न करने में ही जीवन है। शेष,करना तो सेवा और कर्तव्य पालन का ही अंग है अथवा उसी का रूप है।

Tuesday, April 19, 2011

-: साधन सूत्र-31 :-

-: साधन सूत्र-31 :-

जीवन में अशान्ति से छुटकारा-एक अन्‍य दृष्टि-कोण


साधन-सूत्र 30 में यह उल्लेख किया गया है कि जीवन में अशान्ति के मूल में देहाभिमान है जो देह से तादात्म्य का परिणाम है। इसलिए यह आवश्यक है कि इस मान्यता को दृढ़तापूर्वक अपनाएँ कि 'मैं' शरीर नहीं हूँ और शरीर मेरा नहीं है। परन्तु यदि कोई यह कहे कि मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि ' मैं शरीर नहीं हूँ-इससे कुछ अलग हूँ,' तो ऐसी स्थिति में भी शरीर और संसार के सम्बन्ध में सोच बदलने से काम बन जायेगा। इसके बारे में परम संत स्वामी शरणानन्द जी का कथन प्रस्तुत है।

''....शरीर आदि से तद्रूप होने पर तो विश्व का दर्शन होता है। अथवा यो कहो कि शरीर उसी विश्व रूपी सागर की एक बूँद जान पड़ता है, और कुछ नहीं। शरीर और विश्व का विभाजन सम्भव नहीं है।............शरीर से तद्रूप होने पर मैं का अर्थ समस्त विश्व हो जाता है.............।"

'' क्या विश्व के साथ एकता होने वाली मान्यता हमारे जीवन में कुछ अर्थ रखती है ? यदि रखती है,तो कहना होगा कि जिस प्रकार हम समस्त विश्व से उपेक्षा-भाव रखते हैं,उसी प्रकार हमें शरीर से भी उपेक्षा रखनी होगी। अथवा जिस प्रकार शरीर के प्रति आत्मीयता रखते हैं,उसी प्रकार समस्त विश्व के प्रति आत्मीयता करनी होगी। शरीर के प्रति उपेक्षा होने पर भी मोह जैसी कोई वस्तु शेष नहीं रहती और समस्त विश्व के प्रति आत्मीयता होने पर सीमित प्यार जैसी कोई वस्तु शेष नहीं रह सकती। मोह तथा सीमित प्यार का अन्त होते ही अविवेक तथा सब प्रकार के राग का अन्त स्वत: हो जाता है। अविवेक का अन्त होते ही नित्यज्ञान से अभिन्नता और राग का अन्त होते ही नित्य-योग की प्राप्ति स्वत: हो जाती है।"

आगे स्वामी जी ने बाताया है कि ''मैं और विश्व एक है,यह मान्यता भी साधनरूप मान्यता हो सकती है।......विश्व से एकता स्वीकार करते ही सामूहिक सुख-दु:ख अपना सुख-दु:ख हो जाता है,जो हृदय में करुणा और प्रसन्नता प्रदान

करने में समर्थ है। करूणा,भोग-प्रवृत्ति को और प्रसन्नता,भोग-वासनाओं को खा लेती है,ऐसा होते ही समस्त कामनाओं का अन्त हो जायेगा। कामनाओं का अन्त होते ही निर्दोषता आ जायेगी और गुणों का अभिमान गल जायेगा.....।

इस प्रकार ऐसे व्यक्ति को भी वही जीवन प्राप्त होगा जो उस व्यक्ति को मिलता है जिसकी मान्यता है कि ''मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर मेरा नहीं है।'' और उस जीवन में अशान्ति होने का प्रश्न ही नहीं है।

नोट 1: ऊपर जो शब्द 'अविवेक' आया है उसका अर्थ है विवेक का अनादर। विवेक का अनादर ही अविवेक है।

नोट 2: नित्य ज्ञान जो शब्द आया है उसका अर्थ निम्नलिखित से स्पष्ट हो जायेगा:-

''इन्द्रियों का ज्ञान पूरा ज्ञान नहीं है, अल्प ज्ञान है और बुध्दि का ज्ञान भी अनन्त ज्ञान नहीं है,सीमित है। इन्द्रिय ज्ञान से बुध्दि-ज्ञान भले ही विशेष हो,परन्तु अविवेक का अन्त होने पर जिस ज्ञान से अभिन्नता (total identity) होती है,वह तो अनन्त और नित्य ज्ञान है,सीमित तथा परिवर्तनशील नहीं।"



Tuesday, April 12, 2011

-: साधन सूत्र-30 :-

-: साधन सूत्र-30 :-
जीवन में अशांति क्‍यों


यह प्रश्न् इसीलिए उठता है कि अशान्ति किसी भी मानव को पसन्द नहीं है; किसी को अच्छा नहीं लगता है। सब को शान्ति प्रिय है। मानव की जीवन में सर्वत: (universally) मांग ही होती है शान्ति, स्वाधीनता और प्रियता की। और यह प्राप्य भी है; फिर भी हमसे क्या त्रुटि होती है कि जीवन में अशान्ति आती ही है?

विचार करने पर मालूम होता है कि सबसे पहली भूल यह होती है कि हम जीवन का अर्थ ही नहीं समझते। जन्म से मृत्यु तक जो समय अवधि (time) है उसे ही जीवन मानते हैं। परन्तु जीवन तो नित्य, अविनाशी रसरूप तत्व है।

दूसरी भूल होती है कि हम अपने बारे में विचार ही नहीं करते कि 'मैं' हूँ क्या,-क्या मैं मात्र शरीर हूँ या शरीर से भिन्न अपना कोई अस्तित्व है।

सच्चाई यह है कि ''मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर मेरा नहीं है''। यह मानने में बाधा क्या है? हम शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से कोल्हू के बैल की तरह निरन्तर चलते ही रहते हैं (अर्थात् हर समय कुछ न कुछ करते रहते हैं और कुछ न कुछ आगे पीछे का चिन्तन करते रहते हैं।) कोई ठहराव है ही नहीं जब हम शान्त होकर आत्म-चिन्तन कर सकें।

यदि हम शान्त होकर अपने बारे में विचार करें तो यह सहज समझ में आयेगा और अनुभव करेंगे कि मैं शरीर नहीं हूँ। क्यों,क्योंकि यदि मैं शरीर होता तो शरीर का दृष्टा नहीं हो सकता था। हमारा अनुभव है कि हम दृष्टा के रूप में देखते है कि मन क्या चाह रहा है,बुध्दि क्या सोच कह रही है,विवेक क्या कह रहा है,चित्त खिन्न या प्रसन्न है, आदि। तब यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि मैं शरीर से अलग कुछ हूँ।

मानव सेवा संघ के प्रणेता स्वामी शरणानन्द जी का इस विषय पर व्याख्या/प्रतिपादन यहाँ प्रस्तुत है जिस से उपर्युक्त तथ्य और स्पष्ट हो जायेंगे:-

''आप सोचिये जो शरीर आपको मिला है उसको आप मैं कहते हैं क्या? मेरा शरीर कहते हैं कि मैं शरीर कहते हैं?.......जिसको यह कहते हैं उसको 'मैं' कह सकते हैं क्या?......अपने ज्ञान के प्रकाश में..... ऐसा लगता है कि शरीर को हम 'यह' करके अनुभव करते हैं। अच्छा तो जो 'यह' है उसका नाम 'मैं' नहीं हो सकता और जिस पर मेरा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है, वह मेरा नहीं हो सकता.....।''

होता यह है कि जब हम देह से अपने को मिला देते हैं अर्थात् शरीर में ही जीवन बुध्दि हो जाती है- अपने को शरीर ही मानते हैं, तब अपने में अनेक उपाधियाँ जोड़ लेते हैं; मैं अमुक हूँ, मेरा 'यह' आदि। ''देश, जाति, मत, सम्प्रदाय, पद, कुटुम्ब और कार्यक्षेत्र के अनुरूप अनेक मान्यताओं से अपने को मिला लेते हैं,पर सभी मान्यताओं की भूमि केवल देह है।'' यही देहाभिमान का रूप ले लेता है। अपने को देह मानने से भोग की ही रुचि उत्पन्न होती है जो सब प्रकार से अहितकर है। इसलिए देहाभिमान कैसे उत्पन्न होता है और उसका नाश होना क्यों आवश्यक है इस पर विस्तृत विचार आवश्यक है।

इस संबंध में मानव सेवा संघ दर्शन से उध्दरण विचार हेतु प्रस्तुत है:-

''देह के तादात्म्य (identity) से ही देह का अभिमान उत्पन्न होता है और देह के अभिमान से ममता और कामनाओं का जन्म होता है। देह अभिमान का परिणाम है-ममता और कामना।''

''ममता और कामना है क्या और उनका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। मानव सेवा संघ दर्शन के अनुसार ''ममता सुख लेने का एक उपाय मात्र है। जिससे जितना ज्यादा सुख लेंगे,उससे ममता तोड़ना उतना ही कठिन होगा। अपना मानना ही ममता है।''

ममता कैसे टूटे? मानव सेवा संघ दर्शन का उध्दरण बताता है कि-

''साधक को ममता रहित होना है। ममता शब्द का क्या अर्थ समझा आपने? अगर सभी को अपना मानो तो ममता नहीं कहलाती। और किसी को अपना मानो और किसी को अपना मत मानो,इसका नाम ममता है। यह कैसे छूटे?......जिसके साथ मेरा नित्य सम्बन्ध नहीं रह सकता उसको अपना नहीं मानना चाहिए। उसकी सेवा करनी चाहिए।..... तो सेवा करना और अपना न मानना,इससे ममता नाश हो जाती है। और इसका फल होता है कि मनुष्य को निर्विकारता प्राप्त होती है। उसके चित्त में किसी प्रकार का विकार नहीं रहता।'' ...... ''निर्विकारता बिना निर्ममता के प्राप्त नहीं होती।''

नोट:- जिसके चित्त में किसी प्रकार का विकार नहीं होगा,उसके जीवन में अशान्ति का प्रश्न ही नहीं।

आगे उध्दरण से ज्ञात होगा कि जीवन में,ममता रहने से क्या कुपरिणाम होता है:-

''देश काल की ममता सीमित बनाती है तथा वस्तु और व्यक्ति की ममता लोभ और मोह में आबध्द करती है। .....लोभ की उत्पत्ति जड़ता में और मोह की उत्पत्ति वियोग के भय में आबध्द करती है। ......वस्तुओं की ममता अपने को संग्रही बनाती है और समाज में दरिद्रता उत्पन्न करती है जो विप्लव का हेतु है। व्यक्तियों की ममता अपने को मोही बनाकर आसक्त कर देती है और जिनसे ममता की जाती है उनमें अधिकार लालसा जागृत करती है। मोह और आसक्ति कर्तव्य का ज्ञान नहीं होने देते और अधिकार लालसा, की हुई सेवा तथा प्रीति का दुरुपयोग कराती है और तृष्णा में आबध्द करती है।''

अगला प्रश्न् होता है कि ममता और कामना छूटने से जीवन पर क्या प्रभाव आता है? मानव सेवा संघ दर्शन से उध्दरण इसे स्पष्ट करता है:-

''.... देखिये, वस्तु हमारे हृदय को दूषित नहीं करती, लेकिन वस्तु की ममता हृदय को दूषित करती है, वस्तु की कामना हृदय को दूषित करती है। वस्तु की ममता से तो जड़ता आ जाती है और वस्तु की कामना से अशान्ति आ जाती है। अगर वस्तु की ममता न रहे और वस्तु की कामना न रहे; मेरा कुछ नहीं है, ममता गई, मुझे कुछ नहीं चाहिए,कामना गई। तो मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिए,इन दो बातों से हृदय में न तो जड़ता रहती है और न अशान्ति रहती है.......ममता जाने से जड़ता गई,कामना जाने से अशान्ति गई।"

नोट:- 1. ''मेरा कुछ नहीं है, यह बात मानने का अर्थ होता है कि शरीर भी मेरा नहीं है।"

2. जड़ता का अर्थ होता है अपने स्वरूप की विस्मृति

3. 'हृदय' का अर्थ इस प्रसंग में ''व्यक्ति के मनोभावों का केन्द्र से है। उसमें

प्रेम का भी उदय होता है।"

कामनापूर्ति के फेर के बारे में मानव सेवा संघ दर्शन कहता है कि-

''कामनापूर्ति के जीवन में प्रवृत्ति है, परन्तु प्राप्ति कुछ नहीं है,कारण कि अनेक बार कामनाओं की पूर्ति होने पर भी अभाव का अभाव नहीं होता,अपितु

जड़ता परतन्त्रता एवं शक्ति हीनता में ही आबध्द होना पड़ता है जो स्वभाव से ही प्रिय नहीं है।....कामना पूर्ति के जीवन में श्रम है,विश्राम नहीं; गति है स्थिरता नहीं; भोग है; योग नहीं; अशान्ति है, चिर शान्ति नहीं.........।"
उपर्युक्‍त उद्धरणों से यह स्‍पष्‍ट है कि जीवन में सारी विकृत्तियों का आरम्‍भ यहीं से होता है जब हम शरीर को ही 'मैं' मान लेते हैं। परिणाम यह होता है कि शरीर के नाते ही हम किसी को अपना और किसी को गैर मानते हैं और मिले हुए को अपना और अपने लिए मानते हैं।

इस भूल के कारण हम इन्द्रियों द्वारा विषय भोग को ही जीवन का उद्देश्य और शरीर की आवश्यकताओं को जीवन की मांग समझ बैठते हैं। ऐसी मान्यताओं से उत्पन्न विभिन्न प्रकार की विकृत्तियों यथा लोभ,मोह,स्वार्थ,राग द्वेष आदि में हम जकड़ जाते हैं। सांसारिक उपलब्धियों को ही जीवन का उद्देश्य और जीवन की सफलता मानते हैं। उसके पीछे पागल की तरह (mad race) दौड़ते रहते हैं परन्तु मृगतृष्णा की तरह वह दौड़ाता ही रहता है।

यह हमें समझने की बात है कि देहाभिमान अर्थात शरीर में जब तक जीवन बुध्दि रहेगी तब तक निर्मम,निष्काम नहीं हो सकते। निर्मम,निष्काम नहीं होंगे तो कर्तव्य-परायण नहीं हो सकते, कर्तव्य-परायण नहीं होंगे तो कर्तव्य-कर्म के पश्चात् सहज निवृत्ति और शान्ति नहीं पा सकेंगे।

कामनाओं के रहते हुए,कामना-पूर्ति के सुख और कामना-आपूर्ति के दु:ख में फॅंसे रहेंगे। कामना पूर्ति नवीन कामनाओं को जन्म देती है और सभी कामनाएं किसी की पूरी होती नहीं, सो फिर दु:ख और परिणामत: अशान्ति।

जब तक कामनाएँ रहेंगी,उनकी पूर्ति हेतु प्रयास में श्रम और पराश्रय रहेगा ही। श्रम और पराश्रय के रहते हम पराधीन ही रहेंगे। कामनाओं के रहते हम अपने में सन्तुष्ट नहीं होंगे। अपने में सन्तुष्ट नहीं होंगे तो स्वाधीन नहीं होंगे। सो पराधीनता के रहते शान्ति कहाँ।

हम चाहते तो यह है कि जीवन में अशान्ति न रहे,परन्तु साथ ही देहाभिमान भी नहीं छोड़ते। देहाभिमान के कारण ही हमें क्षोभ होता है,क्रोध आता है,ममता और कामनाओं का जन्म होता है। ''देहाभिमान जो होता है, वह अपनी रुचि के विरुध्द बात सुन नहीं सकता।

अत: यदि  हम  चाहते हैं  कि  जीवन  में अशान्ति न हो तो हमें देहाभिमान से छुटकारा पाना ही होगा। देहाभिमान होता है देह से तादात्म्य (identity) के कारण। सो देह से तादात्म्य टूटना आवश्यक है। एक प्रश्नकर्ता के उत्तर में स्वामी शरणानन्द जी ने इसका सहज उपाय बताया है:-

उत्तर: (1) ज्ञान पूर्वक यह अनुभव करें कि 'मैं' शरीर नहीं हूँ अथवा शरीर मेरा नहीं है, देह से तादात्म्य का नाश हो जाता है।

(2) दूसरों को सहयोग देने से स्थूल शरीर से, इच्छारहित होने से सूक्ष्म शरीर से और अप्रयत्न होने से कारण शरीर से असंगता प्राप्त होती है। तीनों शरीरों से असंगता प्राप्त होते ही देह से तादात्म्य का नाश हो जाता है।

इस पूरी व्याख्या को मानव सेवा संघ ने संक्षेप में इस प्रकार कहा है:-

''जीवन के सत्य को स्वीकार करना सत्संग है। जीवन का सत्य क्या है? देह 'मैं' नहीं हू्ँ, देह मेरी नहीं है,यह जीवन का सत्य है। दृश्य-मात्र से मेरा नित्य सम्बन्ध नहीं है,यह जीवन का सत्य है। जिससे नित्य सम्बन्ध नहीं है उसकी ममता और कामना के त्याग से अशान्ति और पराधीनता का नाश होता है, यह जीवन का सत्य है।"

अत: मात्र  इस  सत्य  को  स्वीकार करने से  अशान्ति  से  छुटकारा  निश्चित  है।

अन्त में- ईश्वर के शरणागत मानव के जीवन में अशान्ति नहीं होती।

- ब्रह्मलीन संत स्वामी शरणानन्द द्वारा

प्रदत्त मानव सेवा संघ दर्शन से।

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Friday, April 8, 2011

-: साधन सूत्र-29 :-

-: साधन सूत्र-29 :-

दु:ख है क्या


वास्तव में कामना अपूर्ति दु:ख है और कामना पूर्ति सुख है। सुख दु:ख परिस्थिति मात्र है-अनुकूल परिस्थिति सुख है और प्रतिकूल परिस्थिति दु:ख है। यहाँ चर्चा केवल दु:ख की,की जा रही है।

हम सभी के जीवन में किसी न किसी अंश में कभी न कभी दु:ख अनिवार्य रूप से आता ही है,इसलिये यह प्रश्न् उठता है कि आखिर दु:ख है क्या? जब वह हमारे जीवन में आता है तो हम विह्नल हो जाते हैं,अधीर होते हैं और अपने को अभागा कहते है। भाग्य को कोसते है या ईश्वर को कोसते हैं-उन्हें निष्ठुर और हृदयहीन कहते हैं।

परन्तु भाग्य स्वयँ में तो कुछ है नहीं। हमारे कर्मों से प्रारब्ध कहें या भाग्य कहें,बनता है। इसलिये भाग्य का क्या दोष है? दोष तो हमारा और हमारे कर्मों का ही है।

कभी कभी लोग ऐसा भी कहते हैं कि हमने तो जाने अनजाने कोई गलत कार्य नहीं किया,किसी को सताया नहीं-तो फिर हमारे साथ ऐसा क्यों हुआ। यहाँ हमसे भूल हो जाती है कि हमारा प्रारब्ध केवल इसी जन्म के कर्मों का फल नहीं,बल्कि पूर्व के जन्म जन्मान्तर के संचित कर्मों का फल है। उसी के अनुसार अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमारे जीवन में आयेंगी ही।

यदि हम दु:ख को ईश्वर द्वारा प्रदत्त सजा कहें,तो वह भी उचित नहीं है। ईश्वर ने अपनी मौज में सृष्टि बनायी और उसका एक विधान बना दिया। उसी विधान से समस्त सृष्टि संचालित हो रही है। प्रभु मंगलकारी हैं और उनका विधान भी मंगलमय है-इसलिये न तो उन्हें दोष दे सकते हैं और न ही उनके विधान को।

मानव सेवा संघ दर्शन के प्रतिपादक ब्रह्मनिष्ठ,क्रांत-दर्शी,प्रज्ञा-चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी ने इस बात को इस प्रकार स्पष्ट किया है ''कुछ लोग सुख और दु:ख को कर्मों का फल मानते हैं। परन्तु वास्तव में कर्मों का फल सुख दु:ख नहीं है। कर्मों के फल के रूप में तो परिस्थिति प्राप्त होती है। उनमें सुख और दु:ख तो मनुष्य के भावानुसार होते हैं।''

''विवेकशील मनुष्य भयंकर परिस्थिति में दु:खी नहीं होता अपितु उसको अपनी उन्नति का हेतु समझकर उसका सदुपयोग करता है तथा सब प्रकार की परिस्थितियों को परिवर्तनशील अनित्य और अपूर्ण समझकर परिस्थितियों से ऊपर का जीवन प्राप्त करने के लिये,उनसे असंग हो जाता है।''

उन्होंने दु:ख के सम्बन्ध में विशेष रूप से एक नवीन सिध्दान्त बताया। उन्होंने दो अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किया-दु:ख का भोग और दु:ख का प्रभाव ।

जीवन में दु:ख आया और उससे हम विकल हो गये,अधीर हो गये,अपने को अभागा कहने लगे और ईश्वर पर दोष मढ़ने लगे तो यह ''दु:ख का भोग'' है और यदि उसके आने पर उसकी यथार्थता और सृष्टि का अनिवार्य स्वरूप समझ कर सजग और सचेत हो जाते हैं तो इसे ''दु:ख का प्रभाव'' कहा है। अनिवार्य स्वरूप यों कि उदाहरण के लिये यदि किसी का संयोग है तो आगे पीछे किसी न किसी समय वियोग होगा ही-किसी का शरीर अमर नहीं होता। सृष्टि में जो कुछ भी उत्पन्न होता है उसका नाश भी होता ही है।

यदि दु:ख के भोगी हैं तो दु:ख अभिशाप है। पर यदि उसके प्रभाव को अपनाते हैं तो वह वरदान है। इससे हमारा उत्तारोत्तार विकास होता है और सुख-दु:ख से अतीत जीवन में प्रवेश पाते हैं। दु:ख के मांगलिक पक्ष को ''दु:ख का प्रभाव'' कहा है।

इसे सुनकर सामान्यत:हम चौंकेंगे और कहेंगे कि दु:ख वरदान या मांगलिक कैसे हो सकता है। परन्तु है यह सत्य।

स्वामी शरणानन्द जी जब नौ(9)वर्ष के बालक थे तो उनकी दोनों ऑंखें चली गईं। घोर दु:ख हुआ। उनके मन में प्रश्न् उठा कि क्या ऐसा भी कोई सुख है जिसमें दु:ख नहीं होता। उत्तार मिला-हाँ साधुओं का जीवन ऐसा होता है। बस साधु होने की धुन चढ़ गई-उन्नीस(19) वर्ष की आयु में गृह त्याग कर अपने सद्गुरू के साथ चल दिये और विधिवत सन्यास ले लिये।

ऑंखों की रोशनी जाने का जो दु:ख आया वही उनके जीवन का turning point बन गया। उन्होंने स्वयँ अपना कल्याण तो किया ही अनगिनित लोगों को जीवन की सही राह दिखा कर उनका कल्याण किया और उनके शरीर त्याग के बाद भी उनके द्वारा प्रतिपादित दर्शन अनेकों अनेकों लोगों का कल्याण कर रहा है और युगों युगों तक करता रहेगा।

उन्होंने 'दु:ख का प्रभाव' नाम से एक पुस्तक लिखवाया जो मानव जो मानव सेवा संघ वृन्दावन द्वारा प्रकाशित है। हम जैसे लोगों के हितार्थ परमपूज्या माँ दिव्यज्योति(देवकी बहिन जी) ने,जिन्होंने मानव सेवा संघ दर्शन को पूर्णरूपेण आत्मसात् किया,संक्षेप में ''दु:ख-एक विवेचन'' नाम से व्याख्या किया है।


जब कोई दु:ख को आने से रोक नहीं सकता,वह जब आना है तब आयेगा ही,कोई बच नहीं सकता,तो बुध्दिमत्ता इसी में है कि दु:ख के प्रभाव को अपनाया जाय।

-मानव सेवा संघ दर्शन पर आधारित







Thursday, April 7, 2011

-: साधन सूत्र-28 :-

-: साधन सूत्र-28 :-

साधन रूपी पारम्परिक प्रवृत्तिायों का मानव सेवा संघ दर्शन में अर्थ


प्रभु प्राप्ति अथवा अपने नित्य,अविनाशी,चिन्मय,रसरूप जीवन की प्राप्ति हेतु,साधना के रूप में कुछ प्रवृत्तिायों का नाम आता हैं। मानव सेवा संघ के दर्शन के अनुसार इस हेतु जो भी प्रवृत्तिा अपनायी जाये वह सब के लिये सहज और सुलभ हो। यदि उसमें श्रम और पराश्रय अपेक्षित होगा तो वह सबके लिये सहज नहीं होगा क्योंकि सबकी सार्मथ्य अलग-अलग होती है। इसके अतिरिक्त ऐसी साधना अखण्ड नहीं होगी। मानव सेवा संघ के अनुसार अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये हमारा पूरा जीवन ही साधनमय होना आवश्यक है। कुछ देर साधन ओर शेष समय असाधन,इससे काम नहीं बनने वाला।

मानव सेवा संघ के अनुसार साधन किया नहीं जाता अपितु साध्य की प्राप्ति हेतु साधक का पूरा जीवन ही साधनमय हो जाना आवश्यक है। जीवन के सत्य को 'स्व' द्वारा स्वीकार करने और विवेक के प्रकाश में अपनी जानी हुई बुराईयों को निकाल देने पर,साधक के जीवन में साधन की अभिव्यक्ति होती है। साधक साधन होकर साध्य से अभिन्न हो जाता है।

पारम्परिक ऐसे साधन प्रवृत्तिायों का अर्थ और स्वरूप मानव सेवा संघ के प्रणेता बह्मलीन संत,परमपूज्य स्वामी शरणानन्द जी ने समय समय पर साधकों के प्रश्न् के उत्तर में स्पष्ट किया है। उन्हीं का संकलन नीचे प्रस्तुंत है।

1. प्रश्न्- पूजा का क्या अर्थ है?

उत्तर- संसार को भगवान मानकर,उन्हीं की प्रसन्नार्थ संसार से मिली हुई वस्तुओं को संसार की सेवा में लगा देना पूजा है।

एक अन्य प्रश्नकर्ता के उत्तर में उन्होने बताया कि ''पूजा का वास्तविक अर्थ है-भगवान के नाते और उन्हीं की प्रसन्नता के लिये संसार की सेवा करना।''

इसी को इस प्रकार भी कहा है कि प्रभु के नाते किया हुआ प्रत्येक कार्य पूजा है।

2. प्रश्न- स्तुति, उपसना तथा प्रार्थना का क्या अर्थ है?

उत्तर- प्रभु के अस्तित्व एवं महत्व को स्वीकार करना ही स्तुति है। प्रभु से अपनत्व का सम्बन्ध स्वीकार करना उपासना है और प्रभु प्रेम की आवश्यकता अनुभव करना प्रार्थना है।
एक अन्य प्रश्नकर्ता के उत्तर में बताया कि साधक की साध्य में अगाध प्रियता ही सच्ची उपासना है और प्रभु से नित्य एवं आत्मीय सम्बन्ध स्वीकार करने से उपासना की अभिव्यक्ति होती है।

3. प्रश्न- भजन क्या है ?

उत्तर- सेवा,त्याग और प्रेम तीनों इकट्ठे हो गये,भजन हो गया। भजन में सेवा भी है,त्याग भी है और प्रेम भी है। जब तक भगवान को अपना नहीं मानोगे,भगवान प्यारा लगेगा नहीं और जब भगवान प्यारा लगेगा नहीं तब तक उसकी याद आयेगी नहीं और जब तक याद नहीं आयेगी भजन होगा नहीं।

एक अन्य प्रश्न् के उत्तर में उन्होने स्पष्ट किया कि ''अपने में प्रीति स्वयं होती है और जिससे प्रीति होती है उसकी स्मृति भी स्वत: होती है। अत: स्वत: स्मृति का होना ही सच्चा भजन है। जब तक ममता,कामना और आसक्ति का त्याग नहीं करोगे भजन होगा ही नहीं.......''

अन्यत्र उन्होने इसी बात को इस प्रकार कहा-''है'' कि अखण्ड स्मृति ही सच्चा भजन है। अखण्ड स्मृति जिसमें पैदा होती है और जिसके प्रति होती है,दोनों के लिये रसरूप होती है।''

4.प्रश्न्- व्रत,तप प्रायश्चित व प्रार्थना का क्या अर्थ है ?

उत्तर- लक्ष्य की प्राप्ति का संकल्प व्रत है,उसमें आने वाले कष्टों को हर्षपूर्वक सहन करना तप है,की हुई भूल को न दोहराना प्रायश्चित है तथा लक्ष्य की अपूर्ति के दु:ख से दु:खी होकर व्यथित हृदय की पुकार प्रार्थना है।

जप के सम्बन्ध में स्वामी जी कहा करते थे कि तुम्हारा बेटा कहीं दूर गया है। तुम्हें प्यारा लगता है सो उसकी याद आती है। माला लेकर उसका नाम तो नहीं जपते हो। उसी प्रकार ईश्वर को अपना मानों,प्यारा लगेगा सो उसकी नित्य स्मृति स्वत: जगेगी। प्रभु स्मृति ही जप है।

5. प्रश्न- ध्यान कैसे किया जाता है? ध्यान पर बैठ जाते है पर मन लगता नहीं।

उत्तर- मैं निवेदन करता हूँ,जब तक ध्यान करेंगे तब तक ध्यान कभी होगा ही नही।...........फिर भी एक हवा बह रही है। विचार कीजिये,पानी का ध्यान,करने से आयेगा या अपने आप आयेगा? उत्तर-प्यास लगने से आयेगा। पानी के ध्यान का मूल कारण हुआ 'प्यास'। अच्छा,आपको अपने परिवार का ध्यान आता है-मूल कारण है 'अपनापन'।
तो आवश्यकता और अपनापन ध्यान का मूल है। ऑंख बन्द करके बैठना अथवा अकड़ कर बैठना ध्यान का मूल नहीं है.........।

ध्यान के सम्बन्ध में कुछ और प्रश्नोत्तर प्रस्तुत है-

प्रश्न- ध्यान क्या है ?

उत्तर- 'है' की प्रियता में डूब जाना ही सच्चा ध्यान है।

नोट:-'है' से तात्पर्य नित्य विद्यमान,आदि अन्त रहित अविनाशी तत्व जिसे हम लोग ईश्वर-प्रभु आदि कहते हैं से है।

प्रश्न- ध्यान की सिध्दि कैसे हो ?

उत्तर- अपने को सभी विषयों से हटा लेने से ही ध्यान की सिध्दि होती है।

प्रश्न- ध्यान में विध्न क्या है ?

उत्तर- व्यर्थ चिन्तन ध्यान का सबसे बड़ा विघ्न है।

6. प्रश्न - योग क्या है।

उत्तर- चित्ता का शुध्द एवं शान्त हो जाना ही योग है। दूसरों को सहयोग देने और उनके प्रति सदभावना रखने से चित्ता शुध्द होता है,और बदलें में कुछ न चाहने से शान्त हो जाता है। परिश्रम और पराश्रय को छोड़कर विश्राम और हरिआश्रय को अपनाना योगविद होने का अचूक उपाय है। अब यदि कोई कहे कि मैं हरि-आश्रय नहीं ले सकता तो वह स्व का आश्रय ले ले और निर्मम तथा निष्काम होकर राग रहित हो जाए। यदि कोई कहे कि मुझे अपनेपन का बोध नहीं है तो वह कर्तव्य में तो विश्वास कर सकता है। अपने अधिकार का त्याग और दूसरों के अधिकार की रक्षा से भी राग की निवृत्तिा होती है। राग की निवृत्ति होते ही योग की प्राप्ति स्वत: होती है।

नोट:- ऊपर परिश्रम और पराश्रय छोड़ने की बात कही गई है उसका अर्थ कोई अकर्मण्यता न समझे। मानव सेवा संघ के दर्शन में कर्तव्यपरायणता पर बहुत बल दिया गया है। यदि कर्तव्य पूरा नहीं करेंगे तो शान्ति पाही नहीं सकते।

स्वामी जी का कहना था कि योग का अर्थ होता है जुड़ना। प्रभु से,उस नित्य,अविनाशी तत्व से जुड़ना ही योग है। परन्तु आजकल तो योग के नाम पर बौध्दिक और शारीरिक जिम्नास्टिक कराया जाता है। लक्ष्य तो प्रभु मिलन है,इसलिये योग का सही अर्थ और स्वरूप समझना आवश्यक है।


प्रश्न- योग में बाधा क्या है ?

उत्तर- भोग की रूचि ही योग की सबसे बड़ी बाधा है। अब प्रश्न् आता है 'साधना' का इसके सम्बन्ध में प्रस्तर-2  में संक्षेप में उल्लेख है। इसकी विस्तार से चर्चा अलग से होगी। मात्र इतना कहना पर्याप्त होगा कि साधना शारीरधर्म नहीं है। यह स्व धर्म है।

-मानव संवा संघ दर्शन पर आधारित एवं उध्दरित

Monday, April 4, 2011

-: साधन सूत्र-27 :-

-: साधन सूत्र-27 :-

क्या सुख-भोग ही जीवन हैं

नहीं,सुख-भोग जीवन हो ही नहीं सकता,क्यों ? क्योंकि सुख हमेशा बना नहीं रह सकता। जीवन तो उसे कहते हैं जो नित्य,अविनाशी है,रसपूर्ण है।

सुख है क्या? सुख एक परिस्थिति मात्र है और परिस्थिति हमेशा एक जैसी नहीं रहती-प्राकृतिक नियम के अनुसार निरन्तर बदलती रहती है। जहाँ सुख होगा,वहाँ दु:ख को भी होना ही है। संयोग का सुख है तो वियोग का दु:ख होगा ही,उससे बचा नहीं जा सकता। इसीलिये कहा है कि सुख रोकने पर भी चला जाता हैं और दु:ख बिना बुलाये चला आता है। या यूँ कहें कि कोई भी सुख को जाने से और दु:ख को आने से नहीं रोक सकता।

सुख,दु:ख है क्या? अनुकूल परिस्थिति सुख है,प्रतिकूल परिस्थिति दु:ख है। कामनापूर्ति सुख है और कामना अपूर्ति दु:ख है। ऐसी होता ही नहीं कि किसी की सभी कामनाएँ पूरी हों और किसी की एक भी कामना पूरी न हुई हो। सभी की कुछ कामनाएँ पूरी होती है और कुछ नहीं पूरी होती। राजा दशरथ की भी तो कामना पूरी नहीं हुई- वह राम को युवराज बनाना चाहते थे और हुआ क्या? राम वन को चौदह वर्ष के लिये गये।

यह जीवन का अकाटय सत्य है कि सुख और दु:ख का क्रम हर एक के जीवन में रहेगा ही। अत:यदि हम सुख-भोग को ही जीवन मान लेंगे तो दु:ख भी भोगना ही पड़ेगा।

तो प्रश्न उठता है कि सुख आया तो उसका भोग न करें तो क्या करें और क्या सुख दु:ख से अतीत भी कोई जीवन है? है,और उसकी प्राप्ति बहुत सहज है। सिर्फ दृष्टिकोण बदलना है जो हर एक के लिये सम्भव है।

मानव सेवा संघ की प्रथम प्रार्थना में है-

'' मेरे नाथ,..............................दु:खी प्राणियों के हृदय में त्याग का बल और सुखी प्राणियों के हृदय में सेवा का बल प्रदान करें....................................।''


मानव सेवा संघ दर्शन के अनुसार सुख-दु:ख मात्र साधन सामग्री है। उनका सदुपयोग करके हम वास्तविक रस रूप जीवन को प्राप्त करते है।

यदि हम सुख का भोग करेंगे अर्थात सुख में जीवन बुध्दि होगी तो दु:ख भोगना ही पड़ेगा। अन्यथा ''जो सुख का दास नहीं है वह दु:खी नहीं होता। इसलिये दु:ख से बचने के लिये सुख काल में सुख की वासना का त्याग अनवार्य है।''

सुख-दु:ख का सदुपयोग है क्या? दु:ख का भोग से बचने के लिये उन कामनाओं जिनकी आपूर्ति और जिन वासनाओं के कारण (जैसे नेत्रहीन है तो देखने की वासना) दु:ख हो रहा है उनका त्याग करना है और सुख का भोग न करके सुखद परिस्थिति का सदुपयोग सेवा में करना है। कोई भी सर्वांश में न तो दु:खी होता है और न हीं सर्वांश मे सुखी। अत: जिस अंश में दु:ख है तो त्याग अपनायें और जिस अंश में सुख है तो सेवा करें। यही सुख दु:ख का सदुपयोग है।

सुखद परिस्थिति में सेवा क्या है,इसके बारे में बड़ा भ्रम है। जब तक हम उदार नहीं होंगे सेवा हो ही नहीं सकती। उदार का यह अर्थ नहीं है कि मंदिर में पंखे टंगवा दिये और तीन पुश्त का ब्लेड पर नाम लिखवा दिया। प्याउ तो लगाया,परन्तु वहाँ अपने नाम का बड़ा बैनर लगा दिया।

उदारता का अर्थ होता है दु:खियों को देखकर करूणित होना और सुखियों को देखकर प्रसन्न होना। जब यह हमारे जीवन में उतर जायेगा तब हमसे स्वत: स्वभावत: सेवा होगी। शरीर का सुख बल है तो निर्बलों के काम आयेंगे-धन बल है तो निर्धनों के काम आयेंगे आदि।

स्वामी शरणानन्द जी एक बार अकेले ट्रेन से बलरामपुर जा रहे थे। उसी डिब्बे में एक मुसलमान जज साहेब बैठे थे। उन्हें जब मालूम हुआ कि स्वामी जी बलरामपुर जा रहे है। तो उन्होने उनसे पूछा कि गोण्डा में आप ट्रेन कैसे बदलेंगे? स्वामी जी ने सहज भाव से कहा कि मेरी आंखे नहीं है तो क्या,आपकी तो हैं। जज साहेब इतने प्रभावित हुए कि वे स्वयं उन्हें ले जाकर बलरामपुर की ट्रेन में बैठाये।


जिन साधनों से हम सेवा करते हैं उन्हें सेव्य की ही धरोहर मान कर करेंगे तब तो सच्ची सेवा होगी और अपने विकास के लिए हितकारी होगी अन्यथा हम कर्तिृत्व के अभिमान में फंस जायेंगे।

मानव सेवा संघ की एक सूक्ति इस प्रकरण में उल्लेखनीय है-''जो सुख को बनाये रखने का प्रयत्न करता है,सुख उससे छिन जाता है और जो सुख को बाँट देता है उसे आनन्द मिल जाता है।''

जब हम सुख-दु:ख का सदुपयोग करके सुख-दु:ख से अतीत जीवन में प्रवेश पाते है तब भगवान राम की तरह युवराज पद(सुख) से न हर्ष होता है और वनवास (दु:ख) से न विषाद। हम समता में रहते हैं।

इस प्रश्न् 'क्या सुख भोग ही जीवन है' का बहुत सहज, स्पष्ट और सुन्दर उत्तर मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा लिखी कहानी 'ईदगाह' के नायक बालक हामिद ने दिया है जिसने ईद के मेले में गुब्बारों,मिठाई और खिलौनों के प्रति बाल सुलभ आकर्षण पर विजय प्राप्त करते हुए अपनी दादी माँ के लिये लोहे का एक चिमटा खरीदा। क्यों? क्योंकि उसकी ऑंखों के सामने तो तवे पर रोटी सेंकते समय चिमटे के अभाव में दादी माँ की उंगलियों के जलने का दृश्य तैर रहा था। अधिकांश लोगों ने यह कहानी पढ़ी होगी। जिन्होने न पढ़ा हो वह अवश्य पढ़ें-जीवन का अर्थ और जीने की सही राह मिल जायेगी।

प्रश्नगत् शीर्षक का उत्तर इसमें भी निहित है कि हम सिर्फ अपने लिये जी रहें हैं,या दूसरों के लिये। अपने लिये जी रहें है तो भोग,दूसरों के लिये जी रहें है तो सेवा।

एक बात और,जिसने Joy of Sharing का रसास्वादन कर लिया है वह सुख का भोगी हो ही नहीं सकता।

-मानव सेवा संघ दर्शन पर आधारित एवं उध्दरित