-: साधन सूत्र-37 :-
व्यर्थ-चिन्तन क्या है और उससे कैसे छुटकारा मिले
ब्रह्मनिष्ठ,क्रांत-दर्शी,प्रज्ञा-चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी द्वारा प्रणीत मानव सेवा संघ के ग्यारह नियमों में ग्यारहवाँ नियम है:-
''व्यर्थ-चिन्तन का त्याग तथा वर्तमान के सदुपयोग द्वारा भविष्य को उज्ज्वल बनाना।"
प्रश्न उठता है कि व्यर्थ-चिन्तन है क्या जिसे उज्ज्वल भविष्य के लिए त्यागने की बात कही गई है और मानव जीवन की पूर्णता हेतु प्रतिपादित इन ग्यारह नियमों में उसे शामिल किया गया है।
व्यर्थ-चिन्तन का अर्थ स्वामी जी ने इस प्रकार बताया है-
''व्यर्थ-चिन्तन का अर्थ क्या है? मेरे भाई! जो आपके न चाहने पर होता है,आप के न करने पर होता है,ऐसा जो चिन्तन है,वह व्यर्थ-चिन्तन है। एक बात। दूसरी बात यह है कि जिसकी प्राप्ति कर्म-सापेक्ष है,उसका चिन्तन व्यर्थ-चिन्तन है। तीसरी बात यह है कि जिसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है,उसका चिन्तन व्यर्थ-चिन्तन है।"
आगे उन्होंने कहा है कि-
''इस व्यर्थ-चिन्तन से सभी साधकों को चाहे वे भौतिकवादी हो,चाहे वे अध्यात्मवादी हों, चाहे वे ईश्वरवादी हों,बचना है। क्यों बचना है? इसलिए कि व्यर्थ-चिन्तन के रहते हुए न तो शान्ति मिलती है और न स्वाधीनता मिलती है। इतना ही नहीं, मिली हुई सामर्थ्य का ह्रास भी होता है और यह बड़ी भारी क्षति है। क्या आप जानते नहीं कि प्राकृतिक-विधान के अनुसार जिस भाई को जो सामर्थ्य मिली है,जो योग्यता मिली है,जो परिस्थिति मिली है, वह उसकी आवश्यकता के अनुसार ठीक-ठीक ही मिली है,अधिक नहीं मिली है,कम नहीं मिली। जितनी योग्यता से हमारा विकास हो सकता है,जितनी सामर्थ्य से हमारा विकास हो सकता है,जिस परिस्थिति से हमारा विकास हो सकता है,हमें वही सब मिला है। मानव सेवा संध के दर्शन में मिले हुए का आदरपूर्वक स्वागत करना है,उससे खीजना नहीं है।.......इसलिए भाई मेरे,व्यर्थ-चिन्तन में प्रधान कारण है-प्राप्त परिस्थिति का आदरपूर्वक स्वागत न करना। यदि आप प्राप्त परिस्थिति का आदरपूर्वक स्वागत नहीं करते हैं,तो कभी व्यर्थ चिन्तन से मुक्त नहीं हो सकते। जीवन का बहुत बड़ा भाग इसी चिन्ता में निकल जाता है-ऐसा क्यों हुआ? ऐसा होता तो अच्छा होता। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा होता तो ठीक होता और ऐसा जो हम कहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? इसके मूल में दु:ख का भय छिपा रहता है,सुख का प्रलोभन छिपा रहता है। दु:ख का भय और सुख का प्रलोभन को रखते हुए,क्या होना चाहिए-इसका निर्णय करना कभी भी सम्भव नहीं है। इसलिए भाई,जो मिला है-रुचि योग्यता,सामर्थ्य,वस्तु,परिस्थिति, अनुकूलता, प्रतिकूलता-कुछ लोग उसी से जीवन में आनन्द पाते हैं।"
''व्यर्थ चिन्तन का एक और भी कारण है। वह क्या है? जो मिला है वह सुरक्षित बना रहे। यह व्यर्थ-चिन्तन में हेतु है।" ऊपर जो सलाह दी गई है उसको दृढ़ता के साथ अपनाने से जो व्यर्थ-चिन्तन हम करते हैं,उससे अवश्य छुटकारा मिल जायेगा। स्वामी जी से किसी ने प्रश्न् किया था-वही प्रश्नोत्तर नीचे प्रस्तुत है जो इस विषय पर और प्रकाश डालता है।-
प्रश्न्: व्यर्थ-चिन्तन क्या है?
उत्तर: व्यर्थ-चिन्तन वह चिन्तन है जिसका सम्बन्ध वर्तमान क्रिया से नहीं है।
प्रश्न्: व्यर्थ-चिन्तन का त्याग कैसे किया जाये?
उत्तर: व्यर्थ-चिन्तन को व्यर्थ करके जानना उसके त्याग में हेतु है। अपने न करने पर यदि ऐसा चिन्तन होता है तो उससे भयभीत न होना। बल्कि यह जानकर कि जिसको हम कर नहीं रहे हैं,फिर भी वह हो रहा है,तो उसका उत्तरदायित्व हमारा नहीं है। वह हो रहा है-मिटने के लिए। उस चिन्तन का न तो विरोध किया जाय और न उससे सहयोग। बस, उसके कर्ता होने का अपने पर आरोप न किया जाये।
''मूक-सत्संग एवं नित्य-योग पुस्तक में स्वामी जी ने व्यर्थ-चिन्तन का बहुत ही वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। उस ग्रन्थ के प्राक्कथन में परम कोटि की साधिका दिव्यज्योति (देवकी बहन जी) ने उसका निचोड़ संक्षेप में लिखा है। उसका उध्दरण नीचे प्रस्तुत है।-
''जब हम अपनी ओर से कार्य करना बन्द करते हैं, तो मस्तिष्क में आगे पीछे का व्यर्थ-चिन्तन आरम्भ होता है। यह व्यर्थ-चिन्तन क्या है?
(क) यह भुक्त-अभुक्त का प्रभाव है। हम जो कर चुके हैं,भोग चुके हैं और जो करना तथा भोगना चाहते हैं,उसका प्रभाव मस्तिष्क पर अंकित है।
(ख) यह अनुस्मृति (memory) मात्र है। इसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
(ग) अहंकृति-काल में जो किये हुए का प्रभाव अंकित है,वह स्पष्ट रूप से विदित नहीं होता,परन्तु रहता है। जिस प्रकार दबा हुआ रोग विदित नहीं होता,उसी प्रकार कार्य में लगे रहने पर,जो कर चुके हैं अथवा जो करना चाहते हैं,उसका प्रभाव प्रतीत नहीं होता। अहंकृति-रहित होते ही वह प्रकट होता है-मिटने के लिए।
(घ) मस्तिष्क को व्यर्थ की बातों से मुक्त करने की यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया (natural process) है। मस्तिष्क में जमा हुए प्रभावों को यदि अभिव्यक्त होने का अवसर मिलता है तो वे प्रकट होकर मिट जाते हैं। परन्तु इस प्राकृतिक तथ्य को न जानने के कारण व्यर्थ-चिन्तन को साधक मनोविकार एवं मन की चंचलता मानता है और उससे क्षुब्ध होकर जल्दी-से-जल्दी उसे रोकने में बल का प्रयोग करता है। स्पष्ट है कि जो क्रिया मस्तिष्क को स्वस्थ एवं शान्त करने के लिए आरम्भ होती है,उसको रोककर हम व्यर्थ-चिन्तन के नाश में बाधक बनते हैं तथा विश्राम से वंचित रहते हैं। अत: व्यर्थ-चिन्तन के नाश के लिए हमें कुछ करना नहीं है। क्योंकि किसी कृति-विशेष से किसी कृति के प्रभाव का नाश नहीं होता, उसका नाश विश्राम से ही होता है।
(ड़) प्राकृतिक नियमानुसार कोई उत्पत्ति ऐसी होती ही नहीं जो स्वत: नष्ट न हो जाये। व्यर्थ-चिन्तन उत्पन्न हुआ है, इसलिए वह अपने आप नष्ट भी होता है।"
मानव (साधक) द्वारा अपने नित्य,अविनाशी,रसरूप वास्तविक जीवन की प्राप्ति हेतु विश्राम अत्यन्त महत्वपूर्ण है एवं मानव-मात्र की स्वाभाविक मांग भी है। जब हम भीतर-बाहर से शान्त हो जाते हैं,अर्थात! अपनी ओर से कुछ भी नहीं करते हैं तब उस विश्राम काल में क्या होता है वह आगे उध्दरित है-
''उस विश्राम काल में मानसिक हलचल कुछ अधिक मालूम होती है। भूतकाल की घटनाओं की याद,वर्तमान की दुविधायें और भविष्य की कल्पनाओं का ऐसा ताँता बंधता है कि व्यक्ति घबरा उठता है।''
''इन मानसिक क्रियाओं के प्रति साधारणत: व्यक्ति निम्नलिखित प्रतिक्रियाएं करता है:-
(1) उस हलचल की दशा को नापसन्द करना तथा सुखद मनोराज्यों का रस लेना।
(2) बलपूर्वक उन मानसिक क्रियाओं को रोकने का प्रयास करना
(3) किसी सार्थक चिन्तन द्वारा व्यर्थ-चिन्तन को दबाना।
(4) असफलताओं से क्षुभित होना और विश्राम से निराश होना।
ये सभी प्रतिक्रियाएं बिल्कुल अवैज्ञानिक हैं। इसलिए सर्वथा त्याज्य हैं।"
''मानसिक हलचल की दशा एक अवस्था है। साधक को अवस्थातीत जीवन की ओर गतिशील होना है। अत:अवस्थाओं से असंग होना है परन्तु जब किसी दशा को हम नापसन्द अथवा पसन्द करने लगते हैं अथवा जिसकी उपस्थिति से क्षुब्द होने लगते हैं, तब उससे सम्बन्ध टूटता नहीं है। ...इसलिए न चाहने तथा न करने पर भी जो व्यर्थ-चिन्तन उत्पन्न हुआ है,उसका न समर्थन करना है और न विरोध,अपितु उससे असहयोग रखना है। जिससे असहयोग हो जाता है,उसका प्रभाव अपने पर नहीं रहता,उससे सम्बन्ध टूट जाता है। असहयोग विरोध नहीं है। विरोध से द्वेष और समर्थन से राग की उत्पत्ति होती है। असहयोग से राग-द्वेष का नाश होता है। अतएव अपने आप होने वाले व्यर्थ-चिन्तन से असहयोग रखना है और कुछ नहीं।"
''बलपूर्वक मानसिक हलचल को रोकने के प्रयास में व्यक्ति अधिकाधिक श्रमित होता है। व्यर्थ-चिन्तन को किसी सार्थक-चिन्तन द्वारा दबाने का प्रयास करने से व्यर्थ-चिन्तन का नाश नहीं होता। यह भी एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिन मानसिक क्रियाओं को अन्य क्रिया के द्वारा दबा दिया जाता है,वे मिटती नहीं है; और भी अधिक वेग से प्रकट होना चाहती है और होती भी है। इस संघर्ष में मानसिक शक्ति की बड़ी क्षति होती है,विश्राम नहीं मिलता।"
व्यर्थ-चिन्तन भी एक अवस्था है। यद्यपि व्यक्ति की भूल से यह उत्पन्न हुआ है,फिर भी साधक के जीवन में उससे क्षुब्ध होने का कोई कारण नहीं है,प्रत्युत् उसका भी उपयोग है।"
व्यर्थ-चिन्तन का उपयोग क्या है, इसके बारे में आगे बताया है कि-
''उसका अध्ययन कीजिए। साधन की प्रारम्भिक अवस्था में,विश्राम-काल में जब मानसिक हलचल होने लगे और आप उससे असहयोग न कर सकें,तो दो-दो,चार-चार मिनट बाद कुछ क्षणों के लिए अन्तर्निरीक्षण कीजिए और देखिये कि व्यर्थ-चिन्तन में आपके भूत के और भविष्य के कौन-कौन से चित्र मानस पटल पर आ रहे हैं। आप पायेंगे कि
(1) व्यर्थ-चिन्तन आपकी डायरी है। उससे विदित होता है कि भूतकाल में आपने क्या-क्या किया है और भविष्य में क्या-क्या करना चाहते हैं। उसके अध्ययन से अपने जाने हुए असत् के संग का ज्ञान होगा। उसका त्याग कर दीजिये। नवीन प्रभावों का अंकित होना बन्द हो जायेगा। भूतकाल की घटनाओं के अर्थ को अपनाकर घटनाओं को भूल जाइये। वर्तमान में उसका अस्तित्व नहीं है,इसलिए भूतकाल की भूल को न दोहराने का व्रत लेने से ही वर्तमान निर्दोषता सुरक्षित हो जाती है।
(2) व्यर्थ-चिन्तन के अध्ययन से आपको यह भी पता चलेगा कि भविष्य में आप क्या-क्या करना चाहते हैं। उनमें जो आवश्यक कार्य जमा हों, उनको जान लीजिये तथा प्रवृत्ति-काल में उन्हें कर डालिये। जो कर्म सापेक्ष है वह चिन्तन से प्राप्त नहीं होता।' इसलिए जो विवेक और सामर्थ्य के अनुरूप वर्तमान आवश्यक कार्य हो, उसे कर डालिये। उसके चिन्तन से मुक्ति मिलेगी।"
''अनावश्यक कार्य,अर्थात् जिसे नहीं कर सकते और जो नहीं करना चाहिए,उसके करने का विचार छोड़ दीजिये। उसके चिन्तन से भी मुक्ति मिलेगी।"
''जो करना चाहिए,पर आप नहीं कर सकते,ऐसे सामर्थ्य-विरोधी शुभ संकल्पों को प्रभु के अथवा जगत् के संकल्प से मिलाकर आप निश्चिन्त हो जाइये,विश्राम मिलेगा। इस प्रकार व्यर्थ चिन्तन के अध्ययन एवं उसके मूल में जो अपनी भूल हो,उसके त्याग के द्वारा विश्राम लीजिये।"
''परन्तु इस बात में सावधान रहना है कि व्यर्थ-चिन्तन के अध्ययन को मूक-सत्संग न मान लिया जाय,इस प्रक्रिया में तल्लीन न हुआ जाय। इसको व्यर्थ चिन्तन के नाश का सहायक अंग माना जाय। मुख्य उपाय तो असहयोग रखना ही है,क्योंकि व्यर्थ-चिन्तन कोई करता नहीं है,वह तो अपने आप होता है। जो अपने आप होता है,जिसे हम करते नहीं है, उससे अपना कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये उससे असहयोग रखना अनिवार्य है। हमारा सहयोग पाकर ही वह पोषित होता रहता है। अत: हमारे असहयोग से उसका नाश स्वत: होता है। ......... एक रहस्य समझ लेना है कि व्यर्थ-चिन्तन श्रम नहीं है; व्यर्थ-चिन्तन से उलझ पड़ने में श्रम है। व्यर्थ-चिन्तन हो रहा है शरीर में,विश्राम सम्पादित होगा 'स्व' के द्वारा। शरीर में अपने आप होने वाली क्रिया 'स्व' को क्यों श्रमित करेगी? नहीं कर सकती। परन्तु हम व्यर्थ-चिन्तन से असहयोग नहीं रखते,इसलिये श्रमित होते हैं।"
इस प्रकार,व्यर्थ-चिन्तन एक वह है जो निवृत्ति काल में जब हम भीतर-बाहर से शान्त होकर बैठते हैं तब उत्पन्न होता है,अपने आप हमारे बिना किये,बिना चाहे होता है। इसके स्वरूप और उससे छुट्टी पाने का उपाय ऊपर उध्दरणों में विस्तार से हम लोगों के लिए बताया गया है। इसे अपनाने से विश्राम प्राप्त होगा।
एक और व्यर्थ-चिन्तन है जो स्वयं हमारे द्वारा किया जाता है-निरर्थक,निरुद्देश्य तथा निष्प्रयोज्य। मनोराज्य में लिप्त होते हैं। एक वह भी होता है जो है तो कर्म-सापेक्ष,परन्तु हम उस कार्य को पूरा तो करते नहीं उसका चिन्तन करते रहते हैं। ऐसे व्यर्थ-चिन्तन से भी छुटकारा पाने का सहज उपाय पूर्व प्रस्तरों में समझाया गया है।
प्रश्नोत्तर में, जो प्रारम्भ में उल्लिखित है, स्वामी जी ने बड़े स्पष्ट ढंग से कहा है-
''व्यर्थ-चिन्तन को व्यर्थ करके जानना उसके त्याग में हेतु है।"
उन्होंने,व्यर्थ-चिन्तन का नाश कैसे हो प्रश्न् का एक और प्रकार से समाधान किया है। उन्होंने कहा है कि-
''इसका नाश,नीरसता के नाश से होता है। नीरसता से 'काम' की उत्पत्ति होती है जो सभी दोषों का मूल है। .......नीरसता की भूमि में ही असाधन उत्पन्न होते हैं।"
इससे स्पष्ट है कि जब जीवन में नीरसता रहती है तब व्यर्थ-चिन्तन भी होता है और अनेक असाधन भी होते हैं। अत: नीरसता का नाश आवश्यक है। इसके हेतु स्वामी जी का कथन है कि ''नीरसता का अन्त करने के लिये शान्ति,स्वाधीनता एवं प्रेम की अभिव्यक्ति अनिवार्य है,जो एकमात्र सत्संग से ही सम्भव है।"
अत: जीवन में विश्राम का बहुत महत्व है। विश्राम में ही शान्ति और आगे स्वाधीनता और प्रियता की प्राप्ति होती है। दूसरे शब्दों में योग बोध प्रेम की प्राप्ति होती है जो साधक की मांग और जीवन का लक्ष्य है।
नोट: जिस विश्राम की चर्चा की गई है उसके बारे में स्वामी शरणानंद जी ने कहा है कि ''विश्राम अकर्मण्यता तथा कर्तव्य नहीं है अपितु योग तथा कर्तव्यपरायणता की भूमि है।"