Saturday, May 21, 2011

-: साधन सूत्र-47 :-

-: साधन सूत्र-47 :-

प्रभु-प्रेम की प्राप्ति का सहज उपाय

मानव सेवा संघ दर्शन में मानव की मांग और जीवन का लक्ष्य शान्ति,स्वाधीनता और प्रियता-दूसरे शब्दों में योग-बोध-प्रेम कहा गया है। परन्तु अन्तिम लक्ष्य प्रभु प्रेम की प्राप्ति ही है। पिछले कई साधन-सूत्रों में प्रभु-प्रेम की चर्चा की गई है और उसकी प्राप्ति के लिए केवल उन्हें अपना मानना ही सहज उपाय कहा गया है।

एक साधक द्वारा पूछने पर स्वामी शरणानन्द जी ने बहुत ही सुन्दर ढंग से सहज सुस्पष्ट उपाय बताया है जो उध्दरित है:-

प्रश्न:  प्रेम की प्राप्ति कैसे हो?

उत्तर: सब दूसरी ममताओं को त्यागकर,केवल प्रभु को ही अपना मानो,इसी से प्रेम की प्राप्ति होगी। एक मात्र प्रभु को अपना मानना और कुछ नहीं चाहना-यही प्रेम प्राप्त करने का उत्तम साधन है। बहुत तप तथा यज्ञ करने से प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। तप तो हिरण्यकश्यपु और रावण ने बहुत किये थे,परन्तु उनको प्रेम की प्राप्ति नहीं हुई। एक सहस्त्र यज्ञ करके इन्द्र बनकर स्वर्ग का  राज  करता  है, किन्तु उसे भी प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। ध्यान और चिन्तन से भी प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। इससे तो चित्त की शुध्दि होती है।

उपर्युक्त सब बातें प्रेम की प्राप्ति में सहायक हैं परन्तु प्राप्ति का मुख्य साधन प्रभु से अपनी आत्मीयता का होना है। आत्मीयता होती है अन्य सभी ममताओं के त्याग से। धन भी मेरा और प्रभु भी मेरा-दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती।

अपना मान लेने पर प्रीति का प्रादुर्भाव होना अनिवार्य है। सब इस बात को जानते हैं। अपना शरीर रोगी हो तब भी प्यारा लगता है। अपना पुत्र काना हो तब भी प्यारा लगता है। अपना जीर्ण-शीर्ण मकान भी प्यारा लगता है। फिर प्रभु तो सर्वगुण सम्पन्न,सुख के भण्डार और सौन्दर्य की निधि हैं। हम भगवान को अपना मान लें और प्रीति जागृत न हो

-यह बात कैसे हो सकती है?

ऐसे ही एक और प्रश्न् का स्वामी शरणानन्द जी का उत्तर बहुत ही प्रासंगिक और उससे इस विषय के बारे में हर प्रकार का भ्रम का निवारण हो जाता है। उसका उध्दरण प्रस्तुत है:-

प्रश्न्: मानवता का स्वरूप क्या है और भगवान में मन कैसे लगे?

उत्तर: उदार होना,असंग होना और भगवान का होकर रहना अर्थात् जीवन में सेवा-त्याग-प्रेम का आ जाना ही मानवता का स्वरूप है। भगवान में आस्था,श्रध्दा,विश्वासपूर्वक आत्मीयता करने पर उनमें प्रीति होगी तब प्रभु की स्मृति जगेगी और सहज ही प्रभु में मन लग जावेगा। प्रभु की महिमा स्वीकार कर लेने पर,प्रभु से नित्य सम्बन्ध मानने पर,एक मात्र प्रभु का आश्रय ग्रहण कर लेने पर,मनुष्य के हृदय में प्रीति जागृत होगी और सहज ही मन भगवान में लग जायेगा।

उन्होंने आगे कहा है:-

जब तक हम संसार की ममता,आसक्ति और कामनाओं का त्याग नहीं करेंगे,तब तक संसार हमारी छाती पर चढ़ा ही रहेगा। हम चाहेंगे चिन्तन करना भगवान का,होगा संसार का। हाथ में माला व मुख से नाम लेते रहने पर भी मन संसार में भटकता रहेगा। यही तो संसार का छाती पर चढ़ा रहना है। भूल यह है कि हमने संसार को प्रभु का नहीं माना। यदि हम सच्चे हृदय से संसार को भगवान का मान लें फिर मन भगवान में न लगे-ऐसा हो नहीं सकता। जब तक कुटुम्ब का मोह,धन का लोभ और भोगों की आसक्ति बनी रहेगी तब तक सब कुछ सुनने व समझने के बाद भी न तो मन भगवान में लग सकेगा और न ही हमारा कल्याण ही हो सकेगा। अत: साधक को मोह,लोभ और आसक्ति का त्याग करके साधन करना चाहिए, सफलता अवश्य मिलेगी।

नोट: स्वामी जी के शब्दों में ''अपने कल्याण का अर्थ है,अपनी प्रसन्नता के लिए 'पर' की आवश्यकता न रहे।''

-: साधन सूत्र-46 :-

-: साधन सूत्र-46 :-

गुरु के अनेक शरीर


साधन-सूत्र-20, शीर्षक 'साधन-पथ में गुरु' में यह चर्चा की गई थी कि साधन-पथ के लिए शरीरी गुरु अनिवार्य नहीं है। साथ ही यह भी कहा गया था कि संतों से सुना है कि हममें यदि साधन-पथ पर चलने की,सत्य से अभिन्न होने की तीव्र लालसा है और शरीरी गुरु की आवश्यकता है तो हमें उन्हें नहीं ढूढ़ना पड़ेगा,सद्गुरु हमें स्वयँ ही ढूँढ़ लेंगे और आवश्यक मार्ग-दर्शन करा देंगे।

संतशिरोमणि स्वामी शरणानन्द जी के जीवन का उनका स्वयं का अनुभव, इस प्रकरण में प्रासंगिक है। वही यहाँ प्रस्तुत है:-

''स्वामी शरणानन्दजी के साधना-काल में उनके सद्गुरु का शरीर शान्त होने का समय आया। स्वामी जी महाराज ने सद्गुरु से कहा-'आपका शरीर कुछ काल और रह जाता तो मेरी साधना के लिए अच्छा रहता।' यह सुनकर श्री गुरुदेव ने उत्तर दिया कि ''ऐसा क्यों सोचते हो? मेरे अनेकों शरीर है, तुम्हें जब आवश्यकता होगी मैं मिल जाऊॅंगा।''

''सद्गुरु के सद्शिष्य ने गुरुवाणी को गाँठ बाँध लिया। उसके बाद अनेकों बार का अनुभव उन्होंने निज श्री मिख से हमें सुनाया है कि साधन की दृष्टि से  जब-जब  स्वामी जी  के दिल  में  कोई  प्रश्न्  उठता, तत्काल कोई न कोई संत मिल जाते और समाधान कर जाते। श्री महाराज जी को यह पक्का अनुभव हो गया कि उनके सद्गुरु के अनेकों शरीर हैं और किसी न किसी रूप में वे मार्गदर्शन कर देते हैं। इतना निश्चय होते ही स्वामी जी महाराज निश्चिन्त हो गये।''

''एक समय एक समस्या को लेकर गंगा जी के तट पर अकेले बैठै थे। गुरुदेव की याद आई। श्री स्वामी जी ने तुरन्त सोच लिया कि जब अनेकों शरीर गुरुदेव के हैं तो यह शरीर भी तो उन्हीं का है। किसी भी शरीर के माध्यम से जब वे मार्ग दिखा सकते हैं,तो यह शरीर भी तो उनका ही अपना है। इसके माध्यम से भी वह मेरी मदद कर सकते हैं। इतनी बात ध्यान में आने भर की देर थी कि समस्या हल होने में देर नहीं लगी।''?

''फिर तो गुरु-तत्व को अपने ही में विद्यमान जानकर, ब्राह्य गुरु की आवश्यकता को ही उन्होंने समाप्त कर दिया। शरीर के लिए संसार का आश्रय तो वे पहले ही छोड़ चुके थे,अब गुरु-तत्व को स्वयँ में ही विद्यमान जानकर इस दिशा में भी वह सर्वथा स्वाधीन हो गये। भीतर बाहर परमानन्द छा गया।''

गुरु के सम्बन्ध में एक प्रश्नोत्तर भी महत्वपूर्ण है। एक साधक ने पूछा:-

प्रश्न्: गुरु की पूजा करनी चाहिए क्या?

उत्तर: पूजा-प्रार्थना सब परमात्मा के साथ करने वाली बात है। गुरु परमात्मा का बाप हो सकता है,परमात्मा नहीं। हाँ,गुरु-वाक्य,ब्रह्म-वाक्य हो सकता है। गुरु श्रध्दास्पद हो सकता है,प्रेमास्पद नहीं। व्यक्ति को यदि परमात्मा मानना है तो सबको मानो। सब में परमात्मा है। गुरु साधन रूप हो सकता है, साध्य नहीं।

-: साधन सूत्र-45 :-

-: साधन सूत्र-45 :-

मानव जीवन का अभिशाप-राग-द्वेष


ब्रह्मनिष्ठ क्रान्तदर्शी-प्रज्ञा-चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी द्वारा प्रणीत मानव सेवा संघ की द्वितीय प्रार्थना है - ''मेरे नाथ ! आप अपनी सुधामयी, सर्व-समर्थ, पतित पावनी, अहैतु की कृपा से मानव मात्र को विवेक का आदर तथा बल का सदुपयोग करने की सामर्थ्य प्रदान करें एवं हे करुणासागर! अपनी अपार करुणा से शीध्र ही राग-द्वेष का नाश करें। सभी का जीवन सेवा, त्याग प्रेम से परिपूर्ण हो जाय।"

प्रश्न् उठता है कि राग-द्वेष है क्या, और वह ऐसा क्या अवगुण है कि उसके नाश के लिए प्रभु की करुणा की दुहाई देकर उनसे प्रार्थना की गई है।

स्वामी शरणानन्द जी ने राग-द्वेष का अर्थ और उनसे छुटकारा पाने का उपाय अनेक प्रकार से समझाया है। मूल तथ्य यह है कि जीवन में राग-द्वेष रहते कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। वह साधन और असाधन साथ-साथ रहने के समान है। वास्तव में साधना का मूल आधार और प्रारम्भ (starting point) है ही राग-द्वेष का जीवन में अभाव।

स्वामी जी से एक साधन ने पूछा-

प्रश्न्- राग-द्वेष क्या है?

उत्तर- दोष मालूम होते हुए भी त्याग न करना राग है। गुण मालूम होते हुए भी ग्रहण न करना द्वेष है। राग त्याग नहीं होने देता व द्वेष प्रेम नहीं होने देता। त्याग व प्रेम से राग-द्वेष मिट जाते हैं सारी बुराइयाँ राग-द्वेष से होती है। सारी अच्छाइयाँ त्याग और प्रेम से होती है।''

एक ऐसे ही प्रश्न् कि '' राग-द्वेष का क्या अर्थ है '' उन्होंने इस प्रकार बताया-

उत्तर- भूल को भूल जानकर भी,करना अर्थात् यह जानते हुए भी कि कोई भी संसार में अपना नहीं है,फिर भी किसी को अपना करके,मानना राग है और जो वास्तव में अपना है,उसे अपना न मानना द्वेष है।

निम्नलिखित प्रश्न् और उत्तर से दूसरे ढंग से इस विषय पर प्रकाश मिलता है:-

प्रश्न्- मानव सेवा संघ में कहा जाता है कि या तो किसी को अपना मत मानो या सब को अपना मानो। इसका क्या अर्थ है?

उत्तर- किसी को अपना न मानने से राग की उत्पत्ति नहीं होती और सबको अपना मानने से द्वेष उत्पन्न नहीं होता। इस तरह दोनों मान्यताओं से राग-द्वेष से छुट्टी हो जाती है, जो मानव के विकास में सहायक है।

एक अन्य प्रसंग में मानव जीवन में निर्मलता का महत्व बतलाते हुए स्वामी जी ने कहा कि-

''........ अमानवता से मुक्त होने के लिए निर्मलता की ओर गतिशील होना अनिवार्य है। कारण कि निर्मलता के बिना कोई मानव, 'मानव' नहीं हो सकता।.... निर्मलता का वास्तविक स्वरूप क्या है?.... जिससे जातीय तथा स्वरूप की एकता नहीं है उसका अपने में आरोप कर लेना ही मलिनता है। उस मलिनता का त्याग करना ही वास्तविक निर्मलता है। वही वस्त्र निर्मल कहलायेगा, जिसमें वस्त्र से भिन्न और किसी वस्तु का समावेशन हुआ हो। यदि किसी कारण से वस्त्र में अन्य वस्तु का समावेश हो गया है, तो उसके निकाल देने पर ही वस्त्र निर्मल हो सकेगा।''

''उसी प्रकार हमारे जीवन में राग-द्वेष आदि का जो समावेश हो गया है, उनके निकालने पर ही हम निर्मल हो सकेंगे।''

''अब विचार यह करना है कि राग-द्वेष की उत्पत्ति क्यों होती है? तो कहना होगा जिससे मानी हुई एकता और जातीय तथा स्वरूप की भिन्नता हो, उसी से राग होता है और किसी एक से राग होने पर ही किसी दूसरे से द्वेष होने लगता है। अथवा यों कहो कि जातीय भिन्नता होने पर भी हम किसी को अपना मान लेते हैं तथा अपने का मान लेते हैं। तो इस दृढ़ता से ही राग की उत्पत्ति होती है। इसका जन्म  निज  ज्ञान  के  अनादर  से होता है। अर्थात् देह 'मैं' हूँ अथवा देह 'मेरी' है, ऐसी मान्यता ही राग उत्पन्न कर देती है।''

इसी को और स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने आगे कहा है कि- ''यह सभी का अनुभव है कि जिसको हम 'यह' कहते हैं, उसे 'मैं' कहना प्रमाद (भूल) के अतिरिक्त कुछ नहीं है। शरीर इन्द्रिय, मन, बुध्दि आदि को 'यह' कहकर अथवा 'मेरा' कहकर सम्बोधन करते हैं इस अनुभूति के आधार पर शरीर को अपना स्वरूप नहीं कह सकते। जब शरीर के साथ ही 'मैं' पन सिध्द नहीं हो सकता, तो किसी अन्य के साथ 'मैं' लगाना कहाँ तक सही सिध्द हो सकता है? अर्थात् कदापि नहीं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सीमित 'मैं' और सीमित 'मेरा' ही राग-द्वेष का मूल है, जो वास्तव में अविवेक है।''

राग-द्वेष की यथार्थता के सम्बन्ध में स्वामी जी का कथन है कि- ''राग-द्वेष का मानव जीवन में कोई स्थान ही नहीं है, क्योंकि राग से पराधीनता और द्वेष सेर् ईष्या आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। और मानव जीवन मिला है-निर्दोषता के लिए। अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि राग-द्वेष रहित होने पर ही मानव वास्तवक 'मानव' हो सकता है।''

स्वामी जी  के  कथनानुसार  जो  अति  स्पष्ट  और अनुभव सिध्द है- अपने सुख-दु:ख का कारण अन्य को मानना बड़ी भूल है। जिनको अपने सुख का कारण मानते हैं, उनके प्रति राग होता है और जिनको अपने दु:ख का कारण मानते हैं उसके प्रति द्वेष होता है। और राग-द्वेष के रहते हम निर्मलता। निर्दोषता से कोसों दूर रहेंगे। बिना निर्मलता/निर्दोषता के साधन पथ पर हम अग्रसर हो ही नहीं सकते। इन्हें स्वामी जी ने दिव्यता कहा है। इनके अभाव में साधन का निर्माण नहीं हो सकता और हमारे जीवन के लक्ष्य-योग-बोध-प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती।

इसीलिए मानव सेवा संघ की द्वितीय प्रार्थना में राग-द्वेष के नाश पर बल दिया गया है। और प्रथम पृष्ठ पर स्वामी जी के प्रश्नोत्तर के अनुसार त्याग व प्रेम अपने जीवन में अपनाने से राग-द्वेष का नाश हो जायेगा। वास्तव में राग-द्वेष और त्याग-प्रेम एक दूसरे के अन्योन्य (reciprocal) हैं- अन्यत्र स्वामी जी ने कहा है कि ज्यों-ज्यों हृदय राग-द्वेष रहित होता जायेगा, त्यों-त्यों त्याग-प्रेम स्वत: बढ़ता जायेगा।

इसी क्रम में आगे कहा है कि- ''किसी से ममता न रहे, यही त्याग है। त्याग राग को खा लेता है। सभी में अपना दर्शन हो, यही प्रेम है। प्रेम-द्वेष को खा लेता है । त्याग से असंगता-निवार्सना स्वत: आ जाती है। यही वास्तव में मुक्ति है। प्रेम से अभिन्नता और अभिन्नता से एकता आ जाती है। यही वास्तव में भक्ति है। भक्ति और मुक्ति दोनों ही तुम्हारे निज-स्वरूप की दिव्य छटा है। भोग-वासना ने तुम्हें इनसे विमुख किया है। अत: उनका विवेक पूर्वक अन्त कर दो बस, बेड़ा पार है।''

-: साधन सूत्र-44 :-

-: साधन सूत्र-44 :-

क्‍या ईश्‍वर केवल माना ही जा सकता है,
 जाना नहीं जा सकता



इस प्रश्न् का उत्तर परम कोटि के ब्रह्मनिष्ठ प्रज्ञा-चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी से प्राप्त हुआ। परन्तु यह प्रश्न् कैसे उत्पन्न हुआ और किस प्रकार इसका उत्तर मिला इसकी पृष्टिभूमि का वर्णन से इसे समझना सहज होगा।

सर्वप्रथम स्वामी जी का दर्शन का सौभाग्य वर्ष 1955 के दिसम्बर माह में गाजीपुर में अपनी ससुराल में प्राप्त हुआ। उस समय दूसरे की निर्बलता को अपना बल न मानना और प्राप्त बल का दुरुपयोग न करना-विषय पर चर्चा हो रही थी।

जब मेरी पत्नी 5-7 वर्ष की थी तब से उनका और उनके माता पिता-पूरे परिवार का स्वामी जी से बहुत आत्मीय सम्बन्ध था। विवाह के पश्चात् इन्हीं लोगों के माध्यम से स्वामी जी के निकट आने का अवसर और सौभाग्य प्राप्त होता रहा। सेवा काल में जब-जब सम्भव हुआ हम लोग उनके द्वारा स्थापित मानव सेवा संघ आश्रम वृन्दावन जाते रहे।

विद्यार्थी जीवन में मेरे एक मित्र दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी थे। उनसे सुना  था  कि  पूरे  ब्रह्माण्ड  में  एक  कल्पित  तत्व (hypothetical substance) जिसे ईथर (ether) कहा जाता है, व्याप्त है। उसी में तीव्र कम्पन हुआ जिससे सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई।

बचपन से ही ईश्वर के विभिन्न रूपों से परिचय तो था ही और संस्कार के रूप में आस्था भी मिली कि ईश्वर है और कृपालु और दयालु हैं।

परन्तु बड़े होने पर जिज्ञासु बुध्दि (inquisitive mind) से सोच बनने लगा कि ईश्वर कैसे है, क्या हैं, कहाँ से आये आदि। एक बार 1965 के जुलाई माह में लखनऊ में सत्संग चल रहा था तो मैं भी आफिस के बाद रोज वहाँ जाता था। स्वामी जी एकान्त में लेटे थे। मैंने उनके पास जाकर विश्वविद्यालय के अपने मित्र द्वारा बतलाई हुई बात का उल्लेख करते हुए पूछा कि यदि ऐसा है तो ईश्वर में करुणा, कृपालुता और दया कैसे और कहाँ से आई? (ईथर की बात सुनकर मेरे मन में प्रश्न् उठा था कि ईथर तो जड़ होगा, फिर उसमें चेतना कैसे होगी)।

स्वामी जी ने मात्र एक प्रश्न् के रूप में उत्तर दिया कि ये सब तुम्हारे में कहाँ से आये। उनकी उत्तर देने की शैली यही थी। खुलासा बहुत कम करते थे,छोटे सूत्र में ही उत्तर देते थे। बाद में मुझे इस शैली का रहस्य समझ में आया-यदि खुलासा कर दिया जाय तब विषय पर वहीं विराम लग जाता है,पर यदि सूत्र में उत्तर मिलेगा तब उसका अर्थ समझने और पकड़ने के लिए अपनी ओर से उस पर मनन-चिन्तन होता रहेगा।

और  यही  प्रक्रिया मष्तिष्क में चलने  लगी ।  वर्ष  1966 के जाड़ों में बहराइच,बलरामपुर आदि स्थानों में सत्संग का कार्यक्रम था जिसमें हम लोग भी सम्मिलित हुए। अन्त में गोण्डा रेलवे स्टेशन पर हम लोग स्वामी जी के साथ टे्रन की इन्तजार में खड़े थे। उन्हें मुजफ्फरपुर जाना था। कई लोगों से बातचीत कर रहे थे। मैं बगल में खड़ा था। उन्होंने अनायास पूछा 'क्या तुमको ईश्वर में विश्वास है'? मेरा उत्तर था-स्वामी जी खिचड़ी वाला है। उन्होंने बड़े स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरा और बोले- हो जायेगा।

इसी पृष्टभूमि में मैंने कुछ वर्ष पश्चात् लखनऊ में सत्संग के अवसर पर  स्वामी  जी से  पूछा कि 'क्या ईश्वर केवल माना ही जा सकता है, जाना नहीं जा सकता''।

उन्होंने विस्तार से समझाया और उनके पश्चात् देवकी बहन जी के प्रवचन का यही विषय रहा। और सब बातें तो भूल गईं,परन्तु मूल याद रहा। उनहोंने कहा कि ईश्वर असीम-अनन्त है। उस असीम-अनन्त को हम अपनी सीमित ज्ञानेन्द्रियों द्वारा समझ नहीं सकते (limited faculty से infimite को comprehend नहीं कर सकते)। जीवन में जैसे अनेक बातों की हमें जानकारी नहीं होती है,पर उसे बिल्कुल सत्य के रूप में मानते हैं,उसी प्रकार ईश्वर को माना ही जा सकता। वह इन्द्रिय गोचर नहीं है, स्व के द्वारा उसका अनुभव होता है।

देवकी बहन जी ने प्रवचन में कहा कि जिस प्रकार ज्योमेट्री में किसी थ्योरम को सिध्द करने के लिए एक प्राक्कल्पना (hypothesis) लेकर चलते हैं और अन्त में जो थ्योरम था वह सिध्द हो जाता है। उसी प्रकार ईश्वर को मान कर चलो तो वह अपने को जना भी देते हैं।

उनके अपने को जनाने के तरीके भी अनेक हैं। कुछ वर्ष उपरान्त मेरी माँ लखनऊ राधास्वामी सत्संग में भाग लेने के लिए गाजीपुर से कई और महिलाओं और पुरुष भक्तों के साथ आई थीं।........ लौटते समय मेरे सामने समस्या हुई कि उन्हें ट्रेन से कैसे भेजें। उनका स्वास्थ्य बहुत कमजोर था। पर वह अकेले फर्स्ट क्लास में जा नहीं सकती थीं और मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि एक अन्य साथी का उसी क्लास का टिकट लेकर उनके साथ भेज दूँ।

अत: उस जमाने का थर्ड क्लास का ही टिकट खरीद कर उन्हें साथ लेकर प्लेटफार्म पर ट्रेन की इन्तजार कर रहा था। प्लेटफार्म पर बड़ी भीड़ थी। मन में आया कि टे्रन तो हरदोई से चल चुकी होगी, यदि ईश्वर हैं तो रास्ते में वह कैसे मेरी माँ के लिए जगह बना देंगे। उस जमाने में एक डिब्बे में कई कम्पार्टमेंट अलग-अलग होते थे-साथ के लोग आगे दौड़कर गये। पर मैं माँ के साथ वही खड़ा रहा। पाठक गण पढ़कर आश्चर्यचकित हो जायेंगे कि मेरे ठीक सामने एक कम्पार्टमेंट रुका जो पूरा खाली था-केवल एक आदमी अन्दर से लॉक करके बैठा था। मैंने अन्दर झाँका तो उसने पूछा कि आना है। मेरे हाँ कहने पर उसने दरवाजा खोल दिया और मैंने माँ का विस्तर नीचे वर्थ पर बिछाकर उन्हें आराम से लिटा दिया। साथ वाले दौड़कर बुलाने आये कि आगे जगह बन गई है, तो मैंने माँ के साथ के लिए उन्हीं में से दो तीन को यहीं बुला लिया।

ईश्वर विश्वासी तो इसे संयोग (chance) न कहकर ईश्वर द्वारा इस तरीके से अपने को जनाना ही मानेंगे। अनेकों लोगों के ऐसे ही अनुभव अवश्य होंगे।

पिछले कुछ सूत्रों में ईश्वर-दर्शन,ईश्वर प्राप्ति आदि की चर्चा हुई है। साधकों के लिए जीवन का लक्ष्य योग,बोध और प्रेम कहा गया है। बोध अपने और ईश्वर को तत्वत: जानना ही तो है। परन्तु यह बोध या जानना ज्ञानेन्द्रियों से नहीं होता है बल्कि स्व द्वारा अनुभव होता है।

प्रभु प्रेम की प्राप्ति में ही जीवन की पूर्णता है। अत: ईश्वर को जानने के लिए नहीं बल्कि उनको मानकर उनके प्रेम की प्राप्ति के लिए हम लोगों को दृढ़तापूर्वक साधन-पथ पर अग्रसर होना है। स्वामी जी कहते थे कि उस प्रेम में अखण्ड अगाध रस है जिसकी न कभी क्षति होती है और न पूर्ति। नित-नव रस बना रहता है और साधक उसी में छका रहता है।

अपनी विद्यमानता का अनुभव तो वह कराते ही रहते हैं,बस हमें उसे समझना और पकड़ना है। प्रभु विश्वासी की दृष्टि में सर्वत्र उनकी विद्यमानता दिखाई देती है और प्रत्येक घटना में उनकी लीला का दर्शन होता रहता है।

-: साधन सूत्र-43 :-

-: साधन सूत्र-43 :-

ठहरी हुई बुद्धि में श्रुतियों का ज्ञान स्‍वत: प्रकट होता है


ब्रह्मनिष्ठ क्रान्तदर्शी प्रज्ञा चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी के साधना काल में उनके सद्गुरु ने उनसे कहा कि ''अरे भाई, ठहरी हुई बुध्दि में श्रुति का ज्ञान स्वत: अभिव्यक्त (प्रकट) होता है। उसकी पाठशाला है 'एकान्त' और पाठ है 'मौन'।''

उन्होंने ऐसा क्यों और कब कहा वह आगे की चर्चा से ज्ञात हो जायेगा। स्वामी शरणानन्द जी नौ वर्ष के बालक थे तभी उनकी दोनों ऑंखें चली गईं। घोर दु:ख आया। उन में यह प्रश्न् उठा कि क्या ऐसा भी कोई सुख होता है जिसमें दु:ख नहीं होता। उत्तर मिला हाँ साधुओं के जीवन में दु:ख नहीं होता। बस साधु होने की धुन लग गई। कुछ समय पश्चात् गाँव में एक संत मंडली आई। वह बालक भी वहाँ बैठा था। गाँव वालों ने संत को दु:खी बालक का दु:ख सुना दिया।

संत ने कहा- ''भैया! राम-राम कहा करो''। बालक ने कहा ''मेरा राम-नाम में विश्वास नहीं है''। संत ने कहा ''कोई बात नहीं। ईश्वर को तो मानते हो''? बालक ने कहा ''हाँ! ईश्वर को मानता हूँ''। इस पर संत ने कहा कि ''अच्छी बात है ईश्वर के शरणागत हो जाओ। ''संत ने कहा, बालक ने सुना। संत की वाणी जादू का काम कर गई।

संत की वाणी ने मंत्र का काम तो कर ही दिया था। जीवनी में साधुता का विकास आरम्भ हो गया था, परन्तु सन्यास लेना बाकी था। गुरु की आज्ञानुसार माता-पिता के जीवन काल तक रुके रहे। अब तक 18-19 वर्ष की आयु हो चली थी। अन्य संतों-भक्तों की मंडली लेकर सद्गुरु आये और वह घर सम्पत्ति आदि सब छोड़ कर सद्गुरु के साथ चल दिये और विधिवत् सन्यास ले लिए।

गुरु के पास बैठे-बैठे एक समय उन तेजोमय युवक सन्यासी के मन में उपनिषद् पढ़ने का संकल्प उठा, पर ऑंखें तो थीं नहीं, मन ही मन सोच कर चुप रह गये। तभी सद्गुरु ने बिना पूछे ही वह ज्ञानोपदेश उन्हें दिया जो ऊपर प्रथम प्रस्तर में अंकित है।

युवक सन्यासी को उत्तर मिल गया। संत (सद्गुरु) ने जो कहा, युवक सन्यासी जिनका अब शरणानन्द नामकरण हो चुका था, प्रज्ञा-चक्षु हो गये। ''मैं'' यह और 'वह' का प्रत्यक्ष बोध हो गया। फिर तो यह परिणाम हुआ कि उस वे पढ़े-लिखे की बात सुनकर बड़े-बड़े विद्व्द्वरेण्य भी चकित होने लगे।

गौतम बुध्द ने (राजकुमार सिध्दार्थ) गृह त्याग करने के बाद सत्य की खोज में घोर तप किया। यह सब सर्व विदित है, मात्र इतना लिखना पर्याप्त है कि उसके परिणाम स्वरूप शरीर बहुत ही कमजोर और शक्ति क्षीण हो गई थी। उठना, चलना भी कठिन हो गया था। तब वह बिल्कुल निष्चेष्ट हो गये। किसी प्रकार की कोई क्रिया या चिन्तन नहीं था;उस निष्चेष्ट अवस्था में ठहरी हुई बुध्दि में ज्ञान का प्रकाश अभिव्यक्त हो गया।

इसी प्रकार के तीन दृष्‍टान्‍तों का साधन साधन सूत्र-42 में उल्‍लेख किया गया है । प्रश्‍न् होता है कि ठहरी बुध्दि है क्या? सद्गुरु ने (प्रथम प्रस्तर) कहा कि उसकी पाठशाला है एकान्त और पाठ है मौन। एकान्त इसलिये कि उसमें भीतर बाहर से शान्त होना सहज होगा। भीड़भाड़ तथा शोरगुल में शान्त होने में व्यवधान होगा। भीतर बाहर से जब शान्त हो जाते हैं- कोई शारीरिक क्रिया या मानसिक हलचल नहीं होगी तब उसी शान्ति में विचार का उदय होता है और शान्ति में रमण नहीं करेंगे तब योग की प्राप्ति होती है।

ठहरी हुई बुध्दि का अर्थ हुआ जब बुद्धि ठहर गई अर्थात् उसमें कोई हलचल नहीं है- अचिन्त (thought lessness) की दशा है।

यह सबका अनुभव होगा कि बुध्दि का ठहराव क्षणिक भी होता है। किसी परिस्थिति विशेष में या किसी समस्या का हल समझ में नहीं आता है तब हम अपनी ओर से सोचना बन्द करके शान्त हो जाते हैं। उसी शान्ति में, बुध्दि की उसी क्षणिक ठहराव में समस्या का हल या किसी प्रश्न् का उत्तर अपने आप आ जाता है। इसका इस प्रकार कह सकते हैं कि हमारी चेतना में उस परम चैतन्य से उत्तर आ जाता है। जब बुध्दि ठहर जाती है तब हमारा चेतन उस परम चैतन्य से जुड़ जाता है। वह परम चैतन्य सभी कुछ तो है गणितज्ञ,वैज्ञानिक,भाषाविद्,संगीतज्ञ आदि सभी प्रकार का ज्ञान उसी से तो निकला है। इसीलिए साधन सूत्र-42 में वर्णित छात्र को उन्होंने कोआर्डिनेट ज्योमेट्री के प्रश्न् का उत्तर बता दिया।

ऐसा भी बहुतों को अनुभव होगा कि किसी परिस्थिति विशेष में क्या करना है समझ में नहीं आता तब यदि हम शान्त हो जाते हैं तो उसी शान्ति में मार्गदर्शक के रूप में विचार का उदय होता है। इसे स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टांत प्रस्तुत है। एक व्यक्ति को एक अवसर पर अचानक उपस्थित लोगों को कुछ सुनाने की बात कही गई। अपनी ओर से उसने कुछ नहीं सोचा। क्षणभर की स्वमेव शान्ति या बुध्दि का ठहराव कहें, में क्या बोलना है उसमें अपने आप आ गया।

इस प्रसंग में कुछ अपना अनुभव प्रस्तुत कर रहा हूँ । नाती जो दसवें कक्षा में है कभी-कभी गणित के प्रश्न् पूछता है। यह विषय 65 वर्ष पहले पढ़ा था। फिर भी उनके हल काफी हद तक बता लेता हूँ। परन्तु कभी-कभी हल समझ में नहीं आता है। विभिन्न अवसरों पर एक ज्योमेट्री, एक एल्जेब्रा और एक ट्रिग्नामेट्री के प्रश्न् का हल जब समझ में नहीं आ रहा था, तब क्षण भर के लिए शान्त हो गया। स्फुरण के रूप में तीनों के हल जो विशेष ढंग के थे, अपने आप आते गये।

ऐसा ही अनुभव अनेकों को अपने विद्यार्थी जीवन का भी होगा। उस समय यह समझ में नहीं आया कि ऐसा कैसे हो जाता है। पर मानव सेवा संघ दर्शन से परिचित होने पर 'ठहरी हुई बुध्दि' का महत्व समझ में आया।

अत: मानव सेवा संघ के इस दर्शन के महत्व को स्वीकार करके, सब भांति अपने हितार्थ, एक कार्य के अन्त और दूसरा कार्य प्रारम्भ करने के मध्य थोड़ी-थोड़ी देर शान्त होने का स्वभाव बनाना उपयुक्त होगा। इससे मानसिक थकान नहीं होगी और विचार का उदय भी होगा। नित्य-योग की प्राप्ति हेतु पिछले साधन-सूत्रों में वर्णित मूक-सत्संग को अपनाना हितकर होगा। नित्य-योग की प्राप्ति से ही बोध और प्रेम की प्राप्ति होती है जो मानव की मांग और जीवन का लक्ष्य है। जैसा पहले सूत्रों में लिखा गया है, मूक-सत्संग के लिये सबसे अच्छा समय तो प्रात:काल (early morning) ही है जब वातावरण शुध्द और शान्त होता है। अन्यथा रात्रि में सोने से पहले या दिन-चर्या में जब भी अवकाश मिले इसे नियमपूर्वक (regularly)अपनाना,हमारे जीवन में विकास की दिशा में चमत्कारी/विस्मयकारी (amazing) परिवर्तन लायेगा।

यहाँ एक महत्व की बात सोचने और समझने की है कि उस परम तत्व-परमात्मा से नित्य ही इस प्रकार से जिसका पूर्व प्रस्तरों में वर्णन किया गया है हमारी मुलाकात होती है फिर भी हमें इसका एहसास क्यों नहीं होता। वह हमारे अन्दर बाहर सदैव विद्यमान हैं,फिर भी उनकी नित्य विद्यमानता का अनुभव क्यों नहीं होता। सबसे पहला कारण तो यह प्रतीत होता है कि हम इसके बारे में इस प्रकार सोचते ही नहीं। मशीनवत् यह सब चलता रहता है हमारे लिये, हम इसके पीछे उस रहस्य पर ध्यान ही नहीं देते।

इसके अतिरिक्त हमने जीवन में उस परम कृपालु,महिमावान के प्रेम की आवश्यकता ही नहीं समझा है। केवल सांसारिक मांगों को लेकर मात्र उन अवसरों पर उन्हें स्वार्थवश याद करते हैं।

हमें यदि आनन्दमय,रसपूर्ण जीवन चाहिये तो उनके प्रति आस्था,श्रध्दा और विश्वास को अपनाते हुए,उन्हें साधन के बजाय साध्य स्वीकार करना होगा।

सोच कर ही लगता है कि वह जीवन कितना सुन्दर होगा जिसमें शान्ति होगी,स्वाधीनता होगी और प्रियता होगी।

-मानव सेवा संघ दर्श पर आधारित एवं उध्दरित

Wednesday, May 18, 2011

-: साधन सूत्र-42 :-

-: साधन सूत्र-42 :-

अहेतुकी कृपा करने वाले अतिशय दयालु प्रभु


महात्मा गाँधी का कहना था कि 'मुझे ऐसा कोई अवसर याद नहीं आता जब मैंने उन्हें (ईश्वर) को सच्चे मन से पुकारा हो और उन्होंने न सुना हो।''

श्रीमद्भागवत् में गजेन्द्र-मोक्ष का एक प्रसंग है। सरोवर में ग्राह गजराज को खींच कर ले जा रहा था। साथ के हाथी उसकी कोई मदद नहीं कर पाये और उसका भी बल काम नहीं कर रहा था। तब उसने असहाय होकर भगवान को पुकारा। पूर्व जन्म में सीखकर कंठस्थ किये हुए स्तोत्र का  पाठ  करने लगा । उसकी पुकार सुनकर श्री हरि  (भगवान) प्रकट हो गये और करुणावश गजराज को ग्राह के चंगुल से बचा लिया।

गीता प्रेस गोरखपुर के द्वारा वही स्तुति गजेन्द्र मोक्ष के नाम से छोटी से  पुस्तिका  के रूप  में  प्रकाशित  है। उसके  आरम्भ  में  'परिचय' में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने लिखा है-महामना मालवीय जी (पं0 मदन मोहन) महाराज कहा करते थे कि गजेन्द्र कृत इस स्तवन का आर्त भाव से पाठ करने पर लौकिक,पारमार्थिक महान संकटों और विघ्नों से छुटकारा मिल जाता है.....।

तात्पर्य हुआ कि जिस प्रकार गजराज ने भगवान को पुकारा था,उसी भाँति कोई भी पुकारे तो वह सुनते हैं और उसका उध्दार करते हैं।

महाभारत ग्रंथ में धृतराष्ट्र की राजसभा में उनके पुत्र दु:शासन द्वारा द्रौपदी का निर्वस्त्र करने के प्रयास का प्रसंग है। उन्होंने पहले अपने पतियों की ओर फिर पितामह और अन्य गुरुजनों की ओर आशा भरी दृष्टि से देखा पर जब किसी ने भी उनकी लाज बचाने हेतु कोई उपक्रम नहीं किया तब उन्होंने असमर्थ होकर द्वारिकाधीश (कृष्ण भगवान) को आर्त भाव से पुकारा तो भगवान उनका चीर अन्तहीन बढ़ाते ही गये। दु:शासन थककर बैठ गया और द्रौपदी को भगवान ने निर्वस्त्र होने से बचाकर उनकी लाज रखी।

इन दृष्टांतों से यह प्रश्न उठता है कि क्या ईश्वर पुकारने पर ही सुनते हैं अन्यथा नहीं? यदि ऐसा होता तो उन्हें अहैतु कृपा करने वाला कैसे कह सकते थे।

वह तो अतिशय दयालु हैं और दया करने में आलस्य नहीं करते (गजेन्द्र मोक्ष से) स्वामी कृष्णानन्द जी ने एक अवसर पर कहा था कि "He protects us all the time-we must learn to see. His grace in every event.''

यह उनका स्वयं का अनुभव था और अनेक और लोगों का भी ऐसा ही अनुभव है। जब राणा ने मीराबाई के पास जहरीला सर्प और फिर विष का प्याला भेजा तो उनके अराध्य गिरधर गोपाल ने स्वयं उन्हें फूलों की माला और अमृत में परिवर्तित कर दिया।

हिरण्यकशिपु  ने  जब  अपने  पुत्र  प्रह्लाद  को पहाड़ से नीचे  फेंकवाया , आग  में  जलाने  का प्रयास  किया  तब   उन्होंने  (प्रह्लाद)  भगवान को पुकारा नहीं,बस उनके ध्यान में मग्न रहे। प्रभु ने अपने आप ही अपने भक्त,अपने शरणी की रक्षा की।

ब्रह्मनिष्ठ संत स्वामी शरणानन्द जी की साधना-काल में उनके सद्गुरु ने उनसे कहा था कि ''ठहरी हुई बुध्दि में श्रुतियों का ज्ञान स्वत: प्रकट होता है।'' स्वामी जी के जीवन का एक प्रसंग है-पटना में नेशनल साइन्स कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। स्वामी जी के प्रेमियों ने उन्हें भी आमंत्रित किया। फिर कहा गया कि वह अधिवेशन को सम्बोधित करेंगे। जब वह मंच पर पहुँचे तो अधिवेशन में भाग लेने वालों में से किसी ने कहा कि आप परमाणु-विज्ञान पर कुछ बताइये। प्रश्न्कत्तर्ाा ने चाहे जिस भी भाव से पूछा हो, परन्तु स्वामी जी आधा घन्टा तक विशेषज्ञ की भाँति परमाणु-विज्ञान पर बोलते रहे। जब वह चलने लगे तो एक भक्त ने पूछा कि आप तो केवल कक्षा चार या पाँच तक पढ़े थे, आपने यह सब कैसे बोला। इस पर उन्होंने कहा कि जिसने साइन्स बनाई है न उसी ने मुझे बता दिया।

इसका एक पहलू तो यह है कि ठहरी हुई बुध्दि में परमाणु-विज्ञान का ज्ञान स्वत: प्रकट हो गया। दूसरा पहलू यह है कि उनके शरण्य (प्रभु) ने अपने शरणागत की लाज रखने के लिये स्वयँ ही उनकी वाणी के माध्यम से बोल दिया। स्वामी जी की जिस कोटि की शरणागति थी-सम्पूर्ण समर्पण (total surrender) उसमें उनके द्वारा प्रभु से मदद के लिए कहना-पुकार लगाना,सोचा ही नहीं जा सकता। अत: यही मानना पड़ेगा कि प्रभु अपनी अहैतु की कृपा से अपनी ही ओर से स्वयं ही उनके मुख से आधे घंटे तक बोलते रहे।

परमहंस योगानन्दजी के जीवन का भी एक ऐसा ही प्रसंग है। जब वह जहाज से विदेश जा रहे थे तो रास्ते में उनसे सह-यात्रियों को सम्बोधित करने को कहा गया। परन्तु वह एक शब्द नहीं बोल सके। अपने केबिन में जाकर अपने गुरु को याद करके खूब रोये। अगले दिन वह पाँच मिनट के बजाय पैंतालिस मिनट तक सुन्दर अंग्रेजी भाषा में बोलते रहे और श्रोता शान्त होकर सुनते रहे। यदि रोने को पुकार माना जाय तो दूसरी बात होगी,अन्यथा उनके गुरु ने (सद्गुरु, ईश्वर का ही रूप तो होता है) या प्रभु ने अपने बालक की लाज रखने के लिए उनके मुख से बोला।

ऐसा ही अनुभव एक अन्य व्यक्ति का है। किशोरावस्था में इन्टर साइन्स का छात्र था। पढ़ाई ठीक से न करने के कारण क्लास में पिछड़ गया था। एक दिन ट्रिग्नामेट्री के क्लास में बोर्ड पर एक प्रश्न् हल करने को कहा गया। उसकी और उसके बाद कुछ और छात्र जिनसे कहा गया, कि असफलता पर टीचर बहुत रुष्ट हुए और चेतावनी दी कि यदि एक सप्ताह में क्लास के अपटूडेट नहीं आये तो मैथेमेटिक्स छोड़कर आर्टस का विषय ज्वाइन करना पड़ेगा। वह किशोर बहुत परेशान और भयभीत हो गया कि घर पर उसकी बड़ी भद हो जायेगी। मैथेमेटिक्स के एलजेब्रा,कोआर्डिनेट ज्योमेट्री,ट्रिग्नामेट्री आदि अनेक उप-विषय थे- उन सब में एक सप्ताह में अपटूडेट आना असम्भव ही था।

कुछ ही दिनों पश्चात् टीचर ने ब्लैक बोर्ड पर कोआर्डिनेट ज्योमेट्री का एक प्रश्न् लिख दिया और बारी-बारी से उन सबसे अगला स्टेप पूछने लगे जिनको चेतावनी दी थी। उस किशोर ने इस आशंका से कि कहीं उससे न पूछ दिया जाय,डेस्क में मुँह छिपाने का प्रयास किया तब तक उसे अपना नाम सुनाई पड़ा-वह मंत्रवत खड़ा हुआ और अगला स्टेप बोल दिया जो बिल्कुल सही था। क्लास के अन्त में सबसे तेज लड़कों ने पूछा कि तुमने कैसे बता दिया,यह तो हमें भी नहीं मालूम था। उसने कहा कि उसे भी नहीं मालूम कि उसने कैसे बताया।

कदाचित् घबड़ाहट के कारण बुध्दि ठहर गई थी और उसी ठहरी हुई बुध्दि में स्वमेव उत्तर आ गया। परन्तु इसके पीछे प्रभु की अहैतु की कृपा और अतिशय दयालुता ही मानना चाहिये कि उन्होंने उसे फजीहत से बचाने के लिए उसकी वाणी में स्वयं उत्तर दे दिया। यदि ठहरी हुई बुध्दि का योगदान कहा जाय तब भी उन्हीं की कृपालुता तो थी जिसने उसकी बुध्दि को ठहरा दिया। उसे तो बुध्दि ठहराने का उस समय अता-पता भी नहीं था। सब कुछ अपने आप ही हो गया।

यदि कोई यह तर्क प्रस्तुत करे कि ठहरी हुई बुध्दि मात्र एक मानसिक स्थिति है जो अपने आप (natural phenomena) बन जाती है किन्हीं विशेष परिस्थितियों में, तब भी प्रभु की कृपालुता (अहैतु की) तो है ही। क्यों? इसलिए कि कोई चीज अपने आप नहीं होती। यह भी उनके ही बनाई नियम/प्रक्रिया से ही होता है। इसके अतिरिक्त:-

(1)यह उन्हीं का बनाया नियम तो है कि ठहरी हुई बुध्दि में हम उन परम चैतन्य से सीधे जुड़ जाते हैं।


(2) कैसे विशाल और विचित्र कम्प्यूटर है कि न website की जरूरत और न Connectivity की समस्या। Instant connection होता है।

(3) उत्तर के लिए search भी नहीं करना पड़ता। हमें question feed भी नहीं करना पड़ता। Relevent उत्तर instantly आ जाता है। यह भी उनकी कृपालुता ही तो है कि वह relevent ही उत्तर आता है-यह नहीं होता कि उसके बजाय अपनी भक्ति का रहस्य बताने लगे।

(4) यह भी नहीं होता कि वह कहें कि अभी मेरा mood नहीं है, मन नहीं कर रहा है, तुम अपनी समस्या स्वयं झेलो। उन्हें इसीलिए दया करने में आलस्य नहीं करने वाला कहा गया है।

पूर्व प्रस्तरों में उन दृष्टान्तो को प्रस्तुत मात्र यह कहने के लिए किया गया है कि ऐसा नहीं है कि प्रभु केवल पुकारने पर ही कृपा करते हैं बल्कि वह अपनी कृपालुता के वश में होकर स्वमेव ही अपने बच्चों का हित साधन करते रहते हैं।

उनकी करुणा,कृपालुता,महिमा का कहाँ तक बखान किया जाय। पुरुषोत्तमदास जलोटा जी ने एक भजन गाया है जिसकी मुख्य (lead) पंक्ति है-

'प्रबल प्रेम के पाले पड़कर प्रभु
 को नियम बदलते देखा।

अपना मान टले टल जाये,
भक्त का मान न टलते देखा॥'

ऐसे प्रभु की शरणागति न अपनाकर इधर-उधर अन्य विश्वासों में भटकते रहने से बढ़कर हम लोगों का और क्या दुर्भाग्य हो सकता है? मनुष्य जन्म पाकर उसको गंवाने के समान है।

अत: जिसने उनके प्रति अपने को पूर्णरूपेण समर्पण कर दिया,उनकी शरणागति अपना लिया वह तो निर्भय और निश्चिन्त हो जाता है। वह उनसे कोई अपेक्षा या चाह नहीं रखता,इसलिए किसी भी परिस्थिति में उसका उन्हें अपने लिए सहायता,कृपा हेतु पुकारने का प्रश्न् ही नहीं होता। वह तो अपने को पूर्णतया उनको सौंप देता है और जो भी होता है उसी में प्रसन्न और आनन्दित रहता है।

परन्तु उन्हें पुकारना भी ठीक ही है। किसी संकट की घड़ी में हम उन परम कृपालु सर्व सामर्थ्यवान अपने परम हितैषी को ही तो पुकारेंगे। परन्तु अन्य विश्वास,धन का,बल का या बुध्दि का विश्वास रखते हुए प्रभु को पुकारने का कोई अर्थ नहीं होगा। अनेक विश्वास एक विश्वास में और अनेक सम्बन्ध एक सम्बन्ध में विलीन कर देने पर ही उन्हें पुकारना अर्थ पूर्ण होता है। जब द्रौपदी ने सबसे निराश होकर,हाथ से और दांत से भी चीर की पकड़ छोड़ दिया और असमर्थ भाव से उन्हें पुकारा तब कृष्ण भगवान ने उनकी लाज रख ली।

हम उन्हें पुकारते ही तब हैं जब अपनी सामर्थ्य से हार जाते हैं और अपने को नितान्त असमर्थ अनुभव करते हैं। मीरा जी ने और प्रह्लाद ने इसका झंझट ही नहीं रखा। वे पूर्णरूपेण उनके आश्रित हो गये और उनकी भक्ति और प्रेम में मग्न रहे। अपनी कोई इच्छा/चाह ही नहीं रही सिवा उनके प्रेम की।

नोट : इसका यह अर्थ नहीं है कि हम निष्क्रिय हो जायें। हमें उन्हीं (प्रभु) के आश्रित और शरणागत होकर अपना कर्तव्य-कर्म जो विवेक विरोधी या अपनी सामर्थ्य-विरोध नहीं है, को करना ही है। कर्तव्य होता ही वह है जो विवेक-विरोधी और सामर्थ्य-विरोधी न हो। कार्य में सफलता में विलम्ब होने पर हम अधीर और उद्विग्न होते हैं,जिसके लिए वास्तव में कोई आचित्य नहीं है। दृढ़ विश्वास के साथ अपने कर्म में लगा रहे। ऐसे अनेक अनुभूत दृष्टान्त है जिन्हें लिखने पर यह गाथा बहुत लम्बी हो जायेगी। इतना ही कहना पर्याप्त और विश्वास को सुदृढ़ करने वाला होगा कि जिस विलम्ब को लेकर हम परेशान होते रहे थे,वह कार्य को सफल बनाने हेतु प्रभु का well planned design था। ऐसे परम हितैषी,परम कृपालु,परम उदार प्रभु के हम आश्रित हो जायें या आर्तभाव से पुकारें वह तत्वत: उनके प्रति विश्वास ही है। और बस आनन्द ही आनन्द है।











Saturday, May 14, 2011

-: साधन सूत्र-41 :-

-: साधन सूत्र-41 :-

करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहना

मानव सेवा संघ दर्शन के प्रतिपादक ब्रह्मनिष्ठ संत स्वामी शरणानन्द जी के शरीर त्याग के पश्चात् श्री रघुकुल तिलक जी,जो राजस्थान के राज्यपाल भी रहे ने संस्मरण में लिखा कि स्वामी जी ने गीता के कर्मयोग को थोड़े से  शब्दों  में  निरुपण  किया- ''करने में सावधान और न होने में प्रसन्न रहना।''

जीवन के सम्बन्ध में मानव सेवा संघ दर्शन द्वारा कुछ मौलिक नीतियों का निरुपण किया गया है। उनमें से एक नीति यही है जो ऊपर अंकित है।

हम सभी लोगों का अनुभव है कि कुछ तो हम करते हैं और कुछ बिना हमारे किये ही अपने आप होता है। उदाहरण के लिए किसान ने बड़ी मेहनत से खेत बनाया,खूब बढ़िया बीज बोकर यथा समय खाद पानी दिया। फसल अच्छी लहलहाने लगी। कुछ ही दिनों की बात है,दाने पक जायेंगे तो काटकर घर में अनाज आ जायेगा। पर इसी बीच ओला वृष्टि हो गई और सारी फसल बरबाद हो गई। इसे क्या कहेंगे ?- 'होना' ही तो कहेंगे।

मरीज का इलाज डाक्टर पूरी ईमानदारी से पूरी योग्यता लगाकर सावधानी से करता है-कहीं चूक नहीं होने देता, घर वाले भी तिमारदारी बिल्कुल सही ढंग से करते हैं, कोई असावधानी नहीं होने देते- फिर भी मरीज बच नहीं पाता। इसीलिए तो डाक्टरों के क्लीनिक में और अस्पतालों में लिखा रहता है- WE TREAT HE CURES या DOCTOR TREATS HE CURES.

परन्तु यह हमें स्वीकार्य तभी होगा जब इलाज में पूरी सावधानी बरती जाय अर्थात् करने में सावधान रहें।

यदि हम असावधानी बरतेंगे तो तब 'होने' के  बाद  हमें ग्लानि होगी, अपने को दोषी और उस 'होने' का कारण मानेंगे। ऐसे में फिर 'होने में प्रसन्न रहना' तो नहीं हो पायेगा।

अत: जो विधि के विधान से अपने आप होता है,उसमें प्रसन्न रहना तब ही हो पायेगा जब हम अपने कर्म को पूरी सावधानी से करेंगे।

सावधानी का अर्थ कह सकते हैं,लक्ष्य पर दृष्टि रखते हुए अपनी पूरी सामर्थ्य और योग्यता लगाते हुए मेहनत और पूरी निष्ठा के साथ सही समय पर कार्य को करना।

मानव सेवा संघ के रजत जयन्ती स्मारिका में प्रकाशित लेख शीर्षक 'मानव सेवा संघ की नीति' में इस विषय की व्याख्या के कुछ अंश उध्दरित हैं जिनमें इस बिन्दु को साधक के दृष्टिकोण से समझाया गया है।

(1) मानव जीवन में कार्य-क्षमता के साथ-साथ विवेक का प्रकाश भी मिला हुआ है। ......''अत: कार्य-क्षमता का सदुपयोग बड़ी ही सावधानी से विवेक के प्रकाश में देखकर करना चाहिये। ......क्षमता के दुरूपयोग में व्यक्ति का हा्रस और सदुपयोग में विकास निहित है। इसलिये सावधानीपूर्वक प्रवृत्तिा कार्य-क्षेत्र की एक सुन्दर नीति है।

(2) ........सामूहिक सहयोग के बिना किसी कार्य का संपादन संभव नहीं है। समूह के वृहत् कार्य में उसी व्यक्ति का जीवन उपयोगी सिध्द होता है जो प्रत्येक प्रवृत्ति को सावधानीपूर्वक करता है।

(3) ........जो कर्ता अपने लक्ष्य को जाने बिना कर्म में प्रवृत्त होता है, उसकी प्रवृत्ति सावधानीपूर्वक नहीं होती। ......प्रत्येक प्रवृत्ति के फल दो रूपों में होते हैं- एक तो वह जो दृश्य् रूप से प्रतीत होता है और दूसरा वह जो अदृश्य रूप से उसके अहंभाव में अंकित हो जाता है। प्रवृत्ति का जो दृश्य फल बनता है उसका सुख-दु:ख प्रवृत्ति काल में ही कर्ता को प्रत्यक्ष हो जाता है,परन्तु प्रवृत्ति का दूसरा रूप जो अदृश्य के रूप में अंकित हो जाता है, उसका फल प्राकृतिक विधान के अनुसार कालान्तर में किसी न किसी परिस्थिति के रूप में प्रकट होता है। .........वर्तमान की असावधानी कालान्तर में बहुत ही दु:खद फल उत्पन्न करने वाली बन जाती है। इससे मुक्त रहने के लिये कर्ता को वर्तमान में प्रत्येक प्रवृत्ति में, करने में सावधान होना अनिवार्य है।

(4) ''यह कर्तव्य-विज्ञान का सत्य है कि सही प्रवृत्ति के फलस्वरूप कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति में सहज निवृत्ति की शान्ति अभिव्यक्त होती है। प्रत्येक प्रवृत्ति को सावधानीपूर्वक करना राग निवृत्ति का साधन है। ........राग निवृत्ति की ही शान्ति में योग,बोध और प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। योग,बोध,प्र्रेम में ही जीवन की पूर्णता है। करने में सावधान रहने की नीति जीवन की पूर्णता का साधन है।''

इसके पश्चात् 'होने में प्रसन्न रहना' की चर्चा में कहा गया है कि-

''जो कुछ भी हो रहा है उसमें प्रिय घटनाओं को पकड़ लेने और अप्रिय घटनाओं को घटित होने से रोक देने में,व्यक्ति का कोई वश नहीं चलता। व्यक्ति जो  चाहे  सो  हो  जाय  ऐसा सम्भव  नहीं  है। अत: जो  कुछ   हो   रहा  है  उसमें प्रसन्न रहने की नीति ही व्यक्ति के व्यक्तित्व को संतुलित रख सकती है। अचानक,अप्रत्याशित घटनाओं से क्षुब्ध होकर व्यक्ति अपने को बर्बाद कर लेता है। निज विवेक का आदर करने वाला व्यक्ति जीवन के इस सत्य को जानता है कि जो कुछ हो रहा है उस दृश्य-मात्र से त्रिकाल में भी उसका नित्य सम्बन्ध नहीं है। वह यह भी जानता है कि जो बन रहा है, बदल रहा है, बिगड़ रहा है और मिट रहा है,वह जीवन नहीं हो सकता। इस सत्य के आधार पर भी होने वाली घटनाओं के प्रति मनुष्य का यही रूख सही मालूम होता है कि वह स्वयं दृश्यों से असंग रहते हुए, जो हो रहा है, उसमें प्रसन्न रहे।''

''सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है,वह सृष्टिकर्ता के विधान से हो रहा है। इस तथ्य पर दृष्टि जाते ही 'जो हो रहा है' वह  स्वाभाविक  लगने लगता है। जो मंगलमय प्रभु के मंगलमय विधान में आस्था रखता है,वह जो हो रहा है,उसमें प्रसन्न रहने लगता है। अनन्त के मंगलमय विधान को स्वीकार कर लेने वाला.............प्रत्येक परिस्थिति को मंगलमय विधान से निर्मित,अपने लिये परम हितकारी जान कर,उसमें प्रसन्न रहता है। इतना ही नहीं,जिस ईश्वर-विश्वासी साधक ने एक अपने परम प्रेमास्पद की ही सत्ता को स्वीकार किया,उस एक से ही सम्बन्ध रखा,उसी की प्रियता को जीवन माना,उसकी प्रीति-निर्मित दृष्टि में 'जो कुछ हो रहा है' सब परम प्रेमास्पद की मधुर लीला ही दिखती है और वह उसमें आनन्दमग्न रहता है।''

''मानव जीवन के उच्चतम विकास के लिये करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहने की नीति बहुत ही उपयोगी है।''



Wednesday, May 11, 2011

-:साधन सूत्र-40 :-

-:साधन सूत्र-40 :-


भक्ति-अर्थ एवं स्वरूप तथा भक्त के लक्षण


विश्वास पथ के साधकों के जीवन में ईश्वर-उसी परम सत्ता की-और उसके साकार रूपों में भक्ति की चर्चा होती है। अक्सर सुनते हैं कि अमुक बहुत बड़े भक्त थे या हैं-अमुक ने बहुत भक्ति किया या कर रहे हैं। एक भ्रम यह भी होता है कि ईश्वर की साकार विभिन्न नामधारी प्रतिमाओं की विधियात्मक पूजा को ही भक्ति कहते और समझते हैं। अमुक बहुत बड़े भक्त है रोज बैठकर तीन घंटे पूजा करते हैं आदि। परन्तु यह यदि मात्र क्रिया ही रही या कोई अपनी कामना लेकर की जा रही है तब तो जिसकी पूजा कर रहे हैं वह साध्य न होकर साधन हो गये कामनापूर्ति हेतु। इस प्रकार की पूजा न तो पूजा हुई और न ही भक्ति।

वास्तव में भक्ति है क्या? यह एक  बहुत  वृहद  और  गूढ़ विषय है। 'भक्ति' का अर्थ और स्वरूप की व्याख्या करना हमारे जैसे लोगों के लिए सम्भव नहीं है। इसलिए धार्मिक ग्रन्थों और संतों की शरण में जाकर अपनी जानकारी और हितार्थ और अपनी अल्प बुध्दि की पकड़ में आ सके ऐसी सरल चर्चा संकलित है।

गोस्वामी तुलसी कृत श्री  रामचरितमानस के 'अरण्य काण्ड' में प्रभु श्रीराम और परमभक्त शबरी जी के बीच संवाद में श्रीराम द्वारा शबरी जी को सुनाई गई नवधा भक्ति नीचे प्रस्तुत है। चौपाइयाँ न लिख कर केवल उनका अर्थ लिखा जा रहा है।

-पहली भक्ति है संतों का सत्संग।

-दूसरी भक्ति है मेरे (श्रीराम) कथा प्रसंग में प्रेम।

-तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा करना।

-चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें।

-पाँचवी भक्ति है मेरे (राम) मन्त्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास।

-छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह,शील,बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर संत पुरुषों के धर्म/आचरण में लगे रहना।

-सातवीं भक्ति है जगत भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना।

-आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना।

-नवीं भक्ति है सरलता अैर सब के साथ कपट रहित बर्ताव करना,हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना।

आगे प्रभु श्री राम ने शबरी जी से कहा कि इन नवों में से जिनके एक भी होती है,वह स्त्री-पुरुष,जड़-चेतन कोई भी हो,हे भामिनि! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।

श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध के दसवें अध्याय में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अपने मित्र उध्दव जी को भक्ति और भक्तजनों के लक्षण के विस्तार से बताया है। उसके कुछ अंश उध्दरित हैं:-

''आत्मजिज्ञासा और विचार के द्वारा आत्मा में जो अनेकता का भ्रम है, उसे दूर कर दे और मुझ सर्वव्यापी परमात्मा में अपना निर्मल मन लगा दे तथा संसार के व्यवहारों से उपराम हो जाय। यदि तुम अपना मन परब्रह्म में स्थिर न कर सको,तो सारे कर्म,निरपेक्ष होकर मेरे ही लिए करो।........ मेरे आश्रित रहकर मेरे ही लिए धर्म अर्थ और काम का सेवन करना चाहिए। प्रिय उध्दव! जो ऐसा करता है,उसे मुझ अविनाशी पुरुष के प्रति अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है। भक्ति की प्राप्ति सत्संग से होती है,जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है,वह मेरी उपासना करता है,मेरे सान्निध्य का अनुभव करता है।''

भगवान श्री कृष्ण ने आगे कहा है-

''मेरा भक्त कृपा की मूर्ति होता है। वह किसी भी प्राणी से वैर भाव नहीं रखता और घोर-से-घोर दु:ख भी प्रसन्नतापूर्वक सहता है। उसके जीवन का सार है सत्य और उसके मन में किसी प्रकार की पाप वासना कभी नहीं आती। वह समदर्शी और सबका भला करने वाला होता है। उसकी बुध्दि कामनाओं से कलुषित नहीं होती। वह संयमी, मधुर स्वभाव और पवित्र होता है। संग्रह-परिग्रह से सर्वथा दूर रहता है। ..........उसकी बुध्दि स्थिर होती है। उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है। ...........उसके हृदय में करुणा भरी होती है। मेरे तत्व का उसे यर्थाथ ज्ञान होता है। मेरा जो भक्त......... केवल मेरे ही भजन में लगा रहता है वह परम संत है। मैं कौन हूँ,कितना बड़ा हूँ -इन बातों को जाने चाहे न जाने, किन्तु जो अनन्य भाव से मेरा भजन करते हैं, वे मेरे विचार से मेरे परम भक्त हैं।''

मानव सेवा संघ दर्शन के प्रतिपादक (ब्रह्मलीन संत) स्वामी शरणानन्द जी ने भक्ति का इस प्रकार वर्णन किया है-

''अपने को सब ओर से हटाकर अपने में ही अपने प्रेम पात्र का अनुभव करना अनन्य भक्ति है।''

एक प्रश्न्कर्ता ने स्वामी जी से पूछा-

प्रश्न्: भक्ति कैसे हो?

उत्तर: भक्ति दास्य भाव से प्रारम्भ होती है। सेवा करते-करते मित्र बनने से सख्य भाव, प्रेम उमड़ता है तो वात्सल्य भाव और अन्त में मधुर भाव। दास्य भाव में स्वामी के सिवाय किसी और की स्मृति होती है क्या? चिन्तन होगा क्या? भय होगा क्या? नहीं। भक्त संसार के कार्य को भगवान का कार्य समझता है।

संसार को अपने लिए अस्वीकार करता है। एक अन्य साधक ने उनसे प्रश्न् किया कि भक्ति का यथार्थ स्वरूप क्या है? तो स्वामी जी ने उत्तर दिया-

मेरा कुछ नहीं है, यही भक्ति है

मुझे कुछ नहीं चाहिए, यही भक्ति है

मैं कुछ नहीं हूँ, यही भक्ति है

इस भक्ति की प्राप्ति में सभी स्वाधीन हैं।

उन्होंने एक अवसर पर सच्ची सेवा का स्वरूप बताते समय अन्य बातों के अतिरिक्त कहा कि भक्त वही है जो प्रेमपात्र से विभक्त न हो अर्थात् जिसका सद्भाव पूर्वक प्रेमपात्र से सम्बन्ध हो जाता है।

नोट: आगे इस विषय पर स्वामी विवेकानन्द की व्याख्या अंग्रेजी में प्रस्तुत है क्योंकि पुस्तक अंग्रेजी में ही उपलब्ध थी।

In vol. 3 of the set of 8 volumes of the complete works of Swami 'Vivekanand, the swami has dwelt at length and in depth on the various aspects of 'Bhakti' in two chapters captioned Bhakti-Yoga and 'Para Bhakti or Supreme Devotion'. In this very volume of his works, he has talked about 'Bhakti' in two lectures he delivered, one in Sialkot and the other in Lahore.

Some extracts therefrom are reproduced below which are very enlightening on this subject:-

"Bhakti-Yoga is a real genuine search after the Lord, a search beginning, continuing and ending in love....... 'Bhakti says Narada in his explanation of the Bhakti-aphorisms-is intense love to God'. 'When a man gets it, he loves all, hates none; he becomes satisfied for ever; This love cannot be reduced to any earthly benefit, because so long as worldly desires last, that kind of love does not come. ....... Bhakti is its own fruition, its own means, its own end."
"Upasana in the form of Bhakti is everywhere supreme and Bhakti is more easily attained than Jnana(ज्ञान). The latter requires favourable circumstances and strenuous practice. Yoga cannot be properly practiced unless a man is physically very healthy and free from all worlde attachments. But Bhakti can be more easily practiced in every condition of life. Shandilya Rishi, who wrote about Bhakti, says that extreme love for God is Bhakti. Prahlada speaks to the same effect."

"Bhakti is not the outcome of fear or greedings. He is the true Bhagvata who says 'O God, I donot want a beautiful wife, I do not want knowledge or salvation. Let me be born and die hundred of times. What I want is that I should be ever engaged in Thy service'. It is at this stage and when a man sees God in everything and everything in God- that he attains perfect Bhakti."

"Bhakti is described in several ways in the Shastras. We say that God is our father. In the same way we call Him, Mother and so on. These relationships are conceived in order to strengthen Bhakti in us, and they make us feel nearer and dearer to God.”

“….. in the world, there are always some who get intoxicated when they hear of God, and shed tears of joy when they read of God. Such men are true Bhaktas.”

God is love personified. He is apparent in everything. …… The God of Love is the one thing to be worshipped. So long as we think of Him only as the Creator and Preserver, we can offer Him external worship but when we get beyond all that and think Him to be Love Incarnate, seeing Him in all things and all things in Him, it is then that supreme Bhakti is attained.”

So ‘God is Love and Love is God’

&

Bhakti and Love for God are the same.









Tuesday, May 10, 2011

-: साधन सूत्र-39 :-

-: साधन सूत्र-39 :-


मानव जीवन में वर्तमान की निर्दोषता


मानव जीवन की भौतिकता,आध्यात्मिकता एवं आस्तिकता के उच्च आदर्शों का पालन व्यवहारिक जीवन में सहज से हो सके,इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये कुछ मौलिक नीतियाँ मानव सेवा संघ दर्शन में प्रतिपादित की गई हैं जिनमें से एक है-

''वर्तमान सबका निर्दोष है''

इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है-

''यह नीति व्यक्तिगत जीवन को निर्दोष बनाने का एवं सामूहिक जीवन में निर्दोषता का प्रसार करने का अचूक उपाय है। जीवन मूलत: निर्दोष ही है क्योंकि जीवन का मूल स्रोत निर्दोष है। जब व्यक्ति दोष करता है तब दोषी हो जाता है। जब दोष करना छोड़ देता है तो मौलिक निर्दोषता सुरक्षित हो जाती है। भूतकाल के दोषों के आधार पर अपने को और दूसरों को दोषी मानते रहना निर्दोषता की सुरक्षा में बड़ी भारी बाधा है। ' मेरा वर्तमान निर्दोष है' ऐसा  मान  लेने  पर व्यक्ति आत्म-ग्लानि की ज्वाला से बच जाता है और आगे निर्दोष रहकर जीवन के विकास में उसकी प्रगति हो जाती है। 'वर्तमान सभी का निर्दोष है' ऐसा मान लेने पर हिंसा-द्वेष की वृत्ति मिटती है। मनुष्य के मस्तिष्क में दूसरे के प्रति बुरे भावों एवं बुरे विचारों का अन्त हो जाने बुराई का प्रसार रुक जाता है और निर्दोषता की भावना प्रसारित होने लगती है। इस दृष्टि से इस नीति का पालन व्यक्ति के कल्याण और सुन्दर समाज के निर्माण में अत्यन्त उपयोगी है।''

इसी विषय पर स्वामी शरणानन्द जी द्वारा और भी व्याख्या की गई है। साधन पथ में चित्त-शुध्दि का बहुत बड़ा महत्व है। बल्कि पहला प्रश्न् है- चित्त को शुध्द करना।

''चित्त शुध्द होने से सब प्रकार की पूर्णता आ जाती है। योगी का योग, विचार शक्ति को बोध और विश्वासी को प्रेम अपने आप मिल जाता है....... निर्दोषता की स्थापना से चित्त शुध्द होता है; क्योंकि मनुष्य अपने को जैसा मानता है, वैसा ही बन जाता है। यह प्रकृति का नियम है।''

इसको इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि जीवन में साधन-पथ में सफलता के लिए चित्त-शुध्दि परम आवश्यक है और चित्त-शुध्दि के लिए अपने में निर्दोषता की स्थापना नितान्त आवश्यक है। इसके दो पहलू हैं- एक तो यह कि 'प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना' और उन्हें पुन: न दोहराने का दृढ़ता पूर्वक व्रत लेना। इसके साथ ही अपने विवेक का आदर करते हुए जीवन में नवीन दोष न आने देना।

दूसरा पहलू यह है कि इस बात में पूर्ण आस्था हो कि मेरा वर्तमान (the livinig moment) और अन्य का भी वर्तमान निर्दोष होता है। अत: भूतकाल के दोषों के आधार पर स्वयं अपने को या औरों को दोषी न माने।

स्वामी जी के शब्दों में-

''अत: साधक को चाहिये कि दोषकाल में अपने को दोषी माने और उस समय दोष को देखकर भविष्य में उत्पन्न न होने देने का दृढ़ संकल्प करे। साधक को इस प्रकार विचार करना चाहिए कि दोष उत्पन्न होने के पहले मुझमें दोष नहीं था और मिट जाने के बाद भी नहीं रहेगा। अत: मैं स्वभाव से निर्दोष हूँ। फिर मुझमें दोष कैसे आ सकते हैं? इस प्रकार निर्दोष काल में निर्दोषता की दृढ़ भावना करने से दोष मिट जाते हैं और उनकी पुन: उत्पत्ति नहीं होती।''

उदाहरण के लिए उन्होंने कहा-

''झूठ न बोलने के काल में सभी सत्यवादी होते हैं। झूठ बोलकर समाप्त होते ही फिर सत्यवादी हो जाते हैं,हर समय कोई मिथ्यावादी नहीं रहता, इसी प्रकार हरेक दोष के विषय में समझ लेना चाहिए।''

आगे उन्होंने एक प्राकृतिक नियम की ओर साधकों का ध्यान आकर्षित कराया है:-

''जिसको मनुष्य स्वीकार कर लेता है वह दृढ़ हो जाता है। जिसकी स्वीकृति नहीं रहती उसकी सत्ता मिट जाती है, यह नियम है, अत: जिसको मिटाना हो उसे अस्वीकार कर देना चाहिए।''

यह भी समझना आवश्यक है कि हमारे जीवन में दोष उत्पन्न ही क्यों होते हैं। इस सम्बन्ध में संतवाणी है कि ''प्राणी स्वयं ही दोषों का पोषण करके उनको बलवान बना लेता है। दोष के कारण को मिटा देने से वह सुगमता से मिट सकता है। देह में ''मैं'' भाव और भोगों की चाह, यही दोषों की उत्पत्ति का कारण है''........

एक दूसरे अवसर पर कहा है कि-

''मैं शरीर हूँ यह मानना और संसार को चाहना, यही सब दोषों का मूल है। इनके मिटते ही सब दोष अपने आप मिट जाते हैं। एक दोष से दूसरे दोष का सम्बन्ध है। इसी प्रकार एक गुण से भी दूसरे गुण का सम्बन्ध है। अत: एक दोष के मिटने से दूसरे सब दोष भी मिट जाते हैं। तथा एक गुण को अपनाने से दूसरे गुण भी अपने आप जाते हैं।''

साधकों के लिए यह बहुत ही उत्साहवर्धक कथन है कि-''दोष प्राणी का स्वभाव नहीं है। इसलिए वह सदैव नहीं रह सकता। उसका उदय और अन्त अवश्य होता है। निर्दोषता के साथ प्राणी की जातीय एकता है, अत: वह हर समय निर्दोषी रह सकता है।''

परन्तु संत ने सचेत भी किया है कि ''मनुष्य का जीवन सर्वथा दोषयुक्त नहीं होता, उसमें गुण भी रहते ही हैं, परन्तु उन गुणों में जो अभिमान है वह भी दोष ही है।..... दोषों की उत्पत्ति न हो और गुणों का अभिमान न हो, यही वास्तविक निर्दोषता है।

Saturday, May 7, 2011

-: साधन सूत्र-38 :-

-: साधन सूत्र-38 :-

व्यापार-साधक की दृष्टि में


मानव सेवा संघ के वार्षिक सत्संग समारोह में वृन्दावन आश्रम गया था। उसी समय भारत में क्रिकेट वर्ल्ड-कप के मैच हो रहे थे। मैच के परिणाम को लेकर सट्टा (betting) बड़े जोरो पर था। वार्तालाप में एक सज्जन ने बताया कि उनके बेटे कह रहे थे कि एक लाख रुपया लगा दिया जाय,दस लाख मिल जायेगा। परन्तु उन्होंने रुपया डूब जाने के भय से सट्टा (betting) में नहीं लगाया। अनायास मैं पास के कमरे में गया,आलमारी में मानव सेवा संघ की पुस्तकें लगी थीं-मंत्रवत् एक पुस्तक उठा लिया और उसे बीच से खोला। उस पेज पर जो लिखा था,उसको पढ़कर आश्चर्य-चकित रह गया-एक मिनट पहले जिस विषय पर हम लोग चर्चा कर रहे थे,उसी का समाधान था।

अवश्य ही कोई अदृश्य शक्ति मुझे प्रेरित करके उस पुस्तक तक ले गई और वह पृष्ठ खुलवाया। पुस्तक का नाम था-'एक महात्मा का प्रसाद' जो  गीता प्रेस गोरखपुर  से प्रकाशित  हुई  थी । अब यथावश्यक संशोधन के साथ मानव सेवा संघ द्वारा 'संत -सौरभ' के  नाम  से  प्रकाशित है। उसका उध्दरण नीचे प्रस्तुत है:-

''मनुष्य को जो सुख किसी के दु:ख से मिलता है,वह ठीक नहीं है; क्योंकि जिसका जन्म किसी के दु:ख से होता है,उसका फल भी दु:ख होगा। आम के बीज का फल आम ही होगा और बबूल के बीज का फल काँटा होगा।"

''व्यापार के दो रूप होते हैं। एक तो वह सट्टे का व्यापार है जिसमें जुए की भाँति किसी एक का नुकसान ही दूसरे का लाभ होता है। इस बात को सभी जानते हैं कि सट्टे में धन बाहर से नहीं आता। सट्टा करने वालों में ही एक का नुकसान और दूसरे का लाभ होता है। सट्टा करने वाले सभी लाभ की आशा से करते हैं,परन्तु सबको लाभ नहीं हो सकता। इस व्यापार में किसी का दु:ख ही,दूसरे का सुख है, अत: यह व्यापार उचित नहीं है।"

''दूसरा व्यापार वह है जिसमें समाज की आवश्यकता पूरी करने के लिए वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है,जहाँ वस्तुएँ अधिक होती है,वहाँ से उस जगह पहुँचायी जाती है,जहाँ उसकी आवश्यकता होती है। इस प्रकार जो व्यापार समाज की आवश्यकता पूरी करने के लिए किया जाता है,उसमें किसी का नुकसान नहीं होता। श्रम करने वाले से लेकर भोक्ता तक सभी को सुख मिलता है। और व्यापारी को भी उसके परिश्रम के बदले में धन मिल जाता है। यह व्यापार ठीक है।"
नोट: जुआ,द्युत-क्रीड़ा,रेस आदि प्रथम श्रेणी में ही आते हैं। जमाखोरी (hoarding) भी एक प्रकार का सट्टा ही है।

अधिकांश लोग सुप्रसिध्द भक्त एवं साहित्यकार सुदर्शन सिंह चक्र जी के नाम से परिचित होंगे। गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने वाले 'कल्याण' ग्रन्थ में उनके लेख छपा करते थे। वे ही ब्रह्मनिष्ठ संत स्वामी शरणानन्द जी से अनेक अवसरों पर मिलते थे और उनसे जो सत्चर्चा होती थी, उसे 'कल्याण' के अंकों में 'एक महात्मा का प्रसाद' शीर्षक से छपवाते थे। बाद में उन्हीं लेखों का संकलन करके पुस्तक का रूप दे दिया गया।

जिस काल की यह बात है उस समय आज जैसा भयंकर भोग-वाद और धन का महत्व नहीं था। व्यापारी लोग अपनी जीविका हेतु यथोचित (reasonable) मुनाफा (profit) लेते थे और उसी में सन्तुष्ट रहते थे। परन्तु आज कल तो धन और भोग के महत्व ने जीवन में इतना  विकराल  रूप  ले  लिया  है  कि लाभ (profit) के प्रतिशत (percentage) की कोई सीमा ही नहीं रह गई है। उत्पाद-मूल्य (cost of production) और विक्रय मूल्य (sale price) में कोई सह-सम्बन्ध (correlation) ही नहीं है। पाँच रुपये की दवा फुटकर विक्रेता के यहाँ पचपन की, सवा दो हजार का इन्जेक्शन सवा पाँच हजार का मिलता है। यही  दशा  अन्य क्षेत्रों  में  भी  है। रातों रात (overnight) धनाढय (rich) होने और ऐशो-आराम की सभी वस्तुओं को जल्द से जल्द हथियाने (grab) की इस कोटि की चाह-तृष्णा हो गई है कि उन्हें इस बात की ग्लानि ही नहीं होती कि मरीजों का, उपभोक्ताओं का भयंकर शोषण कर रहे हैं। धन और वस्तुओं में ही जीवन बुध्दि हो गई है।

संत ने दूसरे प्रकार के व्यापार जिसको ठीक बताया था वह अब ठीक कहाँ रहा? अब तो उसका भी वही विकृत रूप हो गया जिसमें एक का लाभ दूसरे की हानि और दु:ख है। चौतरफा लूट मची हुई है। जब दूसरों के प्रति कोई संवेदना ही नहीं है,उसके दु:ख और मजबूरी का एहसास ही नहीं है,ऑंखों पर लोभ का चश्मा लगा लिया है तो यही कहना पड़ेगा कि 'मानवता' और 'इन्सानियत'-ये शब्द अब शब्द-कोष से बाहर कर दिये गये हैं।

यहाँ ऐसे व्यापार की चर्चा नहीं की जा रही है जिसमें नकली दवाइयाँ नकली दूध,चर्बी का मिलावटी देशी घी,अनेक मिलावटी खाद्य पदार्थ आदि धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं। वह तो व्यापार है ही नहीं-वह तो सीधा जघन्य अपराध है।

अनुचित और अन्यायपूर्ण ढंग से जो भी धन-सम्पत्ति बटोरी जाती है वह किसी की हानि और दु:ख ही होता है।

यह चर्चा साधकों को दृष्टि में रखकर की जा रही है। साधक का स्वरूप ही है सेवा-त्याग-प्रेम और उनके जीवन में मांग है शान्ति,स्वाधीनता और प्रियता की।

मानव सेवा संघ का दर्शन कहता है कि उस सुख का त्याग कर दो जो किसी का दु:ख हो। अत: यदि अपने को साधक स्वीकार किया है तो उध्दरित संत-वाणी के प्रकाश में दृढ़ व्रत लेना होगा कि मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए,सबके प्रति सौहार्द,संवेदनशीलता और सेवा के भाव से ही कोई भी व्यापार/व्यवसाय करेंगे और इस बात के लिए सजग रहेगे कि मैं जो कर रहा हूँ वह किसी को अनुचित (undeserved and unjust) हानि या दु:ख तो नहीं पहुँचा रहा है। जो उचित और न्यायपूर्ण लाभ होगा वही अर्जन करुँगा-किसी की मजबूरी का लाभ उठाकर उसका शोषण नहीं करुँगा। न्यायोचित ढंग से जो मिल जायेगा उसी में सन्तुष्ट और प्रसन्न रहूँगा। स्वामी शरणानन्द जी का कथन है कि- ''अपने को सुन्दर बनाओ, सुन्दर समाज का निर्माण स्वत: होगा।

अत:यदि हमें सुन्दर समाज की लालसा है,तो हम में से हर एक को अपने जीवन में क्रांति लाना होगा और हर इन्सान को अपने जैसा ही इन्सान समझना होगा और उसके प्रति इन्सानियत का दृष्टिकोण और व्यवहार अपनाना होगा। जब हम हर व्यक्ति को अपने जैसा ही इन्सान समझेंगे तब हम दूसरों के प्रति वह नहीं करेंगे जो हम अपने प्रति नहीं किया जाना चाहते-और यही इन्सानियत है।

महात्मा गाँधी ने एक बहुत ही मार्मिक बात कहा था- ''यह मत भूलो कि जो व्यक्ति अपने सिर पर तुम्हारा मैला ढोता है,वह भी तुम्हारी ही तरह एक इन्सान है।"




Monday, May 2, 2011

-: साधन सूत्र-37 :-

-: साधन सूत्र-37 :-

व्यर्थ-चिन्तन क्या है और उससे कैसे छुटकारा मिले



ब्रह्मनिष्ठ,क्रांत-दर्शी,प्रज्ञा-चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी द्वारा प्रणीत मानव सेवा संघ के ग्यारह नियमों में ग्यारहवाँ नियम है:-

''व्यर्थ-चिन्तन का त्याग तथा वर्तमान के सदुपयोग द्वारा भविष्य को उज्ज्वल बनाना।"

प्रश्न उठता है कि व्यर्थ-चिन्तन है क्या जिसे उज्ज्वल भविष्य के लिए त्यागने की बात कही गई है और मानव जीवन की पूर्णता हेतु प्रतिपादित इन ग्यारह नियमों में उसे शामिल किया गया है।

व्यर्थ-चिन्तन का अर्थ स्वामी जी ने इस प्रकार बताया है-

''व्यर्थ-चिन्तन का अर्थ क्या है? मेरे भाई! जो आपके न चाहने पर होता है,आप के न करने पर होता है,ऐसा जो चिन्तन है,वह व्यर्थ-चिन्तन है। एक बात। दूसरी बात यह है कि जिसकी प्राप्ति कर्म-सापेक्ष है,उसका चिन्तन व्यर्थ-चिन्तन है। तीसरी बात यह है कि जिसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है,उसका चिन्तन व्यर्थ-चिन्तन है।"

आगे उन्होंने कहा है कि-

''इस व्यर्थ-चिन्तन से सभी साधकों को चाहे वे भौतिकवादी हो,चाहे वे अध्यात्मवादी हों, चाहे वे ईश्वरवादी हों,बचना है। क्यों बचना है? इसलिए कि व्यर्थ-चिन्तन के रहते हुए न तो शान्ति मिलती है और न स्वाधीनता मिलती है। इतना ही नहीं, मिली हुई सामर्थ्य का ह्रास भी होता है और यह बड़ी भारी क्षति है। क्या आप जानते नहीं कि प्राकृतिक-विधान के अनुसार जिस भाई को जो सामर्थ्य मिली है,जो योग्यता मिली है,जो परिस्थिति मिली है, वह उसकी आवश्यकता के अनुसार ठीक-ठीक ही मिली है,अधिक नहीं मिली है,कम नहीं मिली। जितनी योग्यता से हमारा विकास हो सकता है,जितनी सामर्थ्य से हमारा विकास हो सकता है,जिस परिस्थिति से हमारा विकास हो सकता है,हमें वही सब मिला है। मानव सेवा संध के दर्शन में मिले हुए का आदरपूर्वक स्वागत करना है,उससे खीजना नहीं है।.......इसलिए भाई मेरे,व्यर्थ-चिन्तन में प्रधान कारण है-प्राप्त परिस्थिति का आदरपूर्वक स्वागत न करना। यदि आप प्राप्त परिस्थिति का आदरपूर्वक स्वागत नहीं करते हैं,तो कभी व्यर्थ चिन्तन से मुक्त नहीं हो सकते। जीवन का बहुत बड़ा भाग इसी चिन्ता में निकल जाता है-ऐसा क्यों हुआ? ऐसा होता तो अच्छा होता। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा होता तो ठीक होता और ऐसा जो हम कहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? इसके मूल में दु:ख का भय छिपा रहता है,सुख का प्रलोभन छिपा रहता है। दु:ख का भय और सुख का प्रलोभन को रखते हुए,क्या होना चाहिए-इसका निर्णय करना कभी भी सम्भव नहीं है। इसलिए भाई,जो मिला है-रुचि योग्यता,सामर्थ्य,वस्तु,परिस्थिति, अनुकूलता, प्रतिकूलता-कुछ लोग उसी से जीवन में आनन्द पाते हैं।"

''व्यर्थ चिन्तन का एक और भी कारण है। वह क्या है? जो मिला है वह सुरक्षित बना रहे। यह व्यर्थ-चिन्तन में हेतु है।" ऊपर जो सलाह दी गई है उसको दृढ़ता के साथ अपनाने से जो व्यर्थ-चिन्तन हम करते हैं,उससे अवश्य छुटकारा मिल जायेगा। स्वामी जी से किसी ने प्रश्न् किया था-वही प्रश्नोत्तर नीचे प्रस्तुत है जो इस विषय पर और प्रकाश डालता है।-

प्रश्न्: व्यर्थ-चिन्तन क्या है?

उत्तर: व्यर्थ-चिन्तन वह चिन्तन है जिसका सम्बन्ध वर्तमान क्रिया से नहीं है।

प्रश्न्: व्यर्थ-चिन्तन का त्याग कैसे किया जाये?

उत्तर: व्यर्थ-चिन्तन को व्यर्थ करके जानना उसके त्याग में हेतु है। अपने न करने पर यदि ऐसा चिन्तन होता है तो उससे भयभीत न होना। बल्कि यह जानकर कि जिसको हम कर नहीं रहे हैं,फिर भी वह हो रहा है,तो उसका उत्तरदायित्व हमारा नहीं है। वह हो रहा है-मिटने के लिए। उस चिन्तन का न तो विरोध किया जाय और न उससे सहयोग। बस, उसके कर्ता होने का अपने पर आरोप न किया जाये।

''मूक-सत्संग एवं नित्य-योग पुस्तक में स्वामी जी ने व्यर्थ-चिन्तन का बहुत ही वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। उस ग्रन्थ के प्राक्कथन में परम कोटि की साधिका दिव्यज्योति (देवकी बहन जी) ने उसका निचोड़ संक्षेप में लिखा है। उसका उध्दरण नीचे प्रस्तुत है।-

''जब हम अपनी ओर से कार्य करना बन्द करते हैं, तो मस्तिष्क में आगे पीछे का व्यर्थ-चिन्तन आरम्भ होता है। यह व्यर्थ-चिन्तन क्या है?

(क) यह भुक्त-अभुक्त का प्रभाव है। हम जो कर चुके हैं,भोग चुके हैं और जो करना तथा भोगना चाहते हैं,उसका प्रभाव मस्तिष्क पर अंकित है।
(ख) यह अनुस्मृति (memory) मात्र है। इसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
(ग) अहंकृति-काल में जो किये हुए का प्रभाव अंकित है,वह स्पष्ट रूप से विदित नहीं होता,परन्तु रहता है। जिस प्रकार दबा हुआ रोग विदित नहीं होता,उसी प्रकार कार्य में लगे रहने पर,जो कर चुके हैं अथवा जो करना चाहते हैं,उसका प्रभाव प्रतीत नहीं होता। अहंकृति-रहित होते ही वह प्रकट होता है-मिटने के लिए।
(घ) मस्तिष्क को व्यर्थ की बातों से मुक्त करने की यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया (natural process) है। मस्तिष्क में जमा हुए प्रभावों को यदि अभिव्यक्त होने का अवसर मिलता है तो वे प्रकट होकर मिट जाते हैं। परन्तु इस प्राकृतिक तथ्य को न जानने के कारण व्यर्थ-चिन्तन को साधक मनोविकार एवं मन की चंचलता मानता है और उससे क्षुब्ध होकर जल्दी-से-जल्दी उसे रोकने में बल का प्रयोग करता है। स्पष्ट है कि जो क्रिया मस्तिष्क को स्वस्थ एवं शान्त करने के लिए आरम्भ होती है,उसको रोककर हम व्यर्थ-चिन्तन के नाश में बाधक बनते हैं तथा विश्राम से वंचित रहते हैं। अत: व्यर्थ-चिन्तन के नाश के लिए हमें कुछ करना नहीं है। क्योंकि किसी कृति-विशेष से किसी कृति के प्रभाव का नाश नहीं होता, उसका नाश विश्राम से ही होता है।
(ड़) प्राकृतिक नियमानुसार कोई उत्पत्ति ऐसी होती ही नहीं जो स्वत: नष्ट न हो जाये। व्यर्थ-चिन्तन उत्पन्न हुआ है, इसलिए वह अपने आप नष्ट भी होता है।"
मानव (साधक) द्वारा अपने नित्य,अविनाशी,रसरूप वास्तविक जीवन की प्राप्ति हेतु विश्राम अत्यन्त महत्वपूर्ण है एवं मानव-मात्र की स्वाभाविक मांग भी है। जब हम भीतर-बाहर से शान्त हो जाते हैं,अर्थात! अपनी ओर से कुछ भी नहीं करते हैं तब उस विश्राम काल में क्या होता है वह आगे उध्दरित है-

''उस विश्राम काल में मानसिक हलचल कुछ अधिक मालूम होती है। भूतकाल की घटनाओं की याद,वर्तमान की दुविधायें और भविष्य की कल्पनाओं का ऐसा ताँता बंधता है कि व्यक्ति घबरा उठता है।''

''इन मानसिक क्रियाओं के प्रति साधारणत: व्यक्ति निम्नलिखित प्रतिक्रियाएं करता है:-

(1) उस हलचल की दशा को नापसन्द करना तथा सुखद मनोराज्यों का रस लेना।

(2) बलपूर्वक उन मानसिक क्रियाओं को रोकने का प्रयास करना

(3) किसी सार्थक चिन्तन द्वारा व्यर्थ-चिन्तन को दबाना।

(4) असफलताओं से क्षुभित होना और विश्राम से निराश होना।

ये सभी प्रतिक्रियाएं बिल्कुल अवैज्ञानिक हैं। इसलिए सर्वथा त्याज्य हैं।"

''मानसिक हलचल की दशा एक अवस्था है। साधक को अवस्थातीत जीवन की ओर गतिशील होना है। अत:अवस्थाओं से असंग होना है परन्तु जब किसी दशा को हम नापसन्द अथवा पसन्द करने लगते हैं अथवा जिसकी उपस्थिति से क्षुब्द होने लगते हैं, तब उससे सम्बन्ध टूटता नहीं है। ...इसलिए न चाहने तथा न करने पर भी जो व्यर्थ-चिन्तन उत्पन्न हुआ है,उसका न समर्थन करना है और न विरोध,अपितु उससे असहयोग रखना है। जिससे असहयोग हो जाता है,उसका प्रभाव अपने पर नहीं रहता,उससे सम्बन्ध टूट जाता है। असहयोग विरोध नहीं है। विरोध से द्वेष और समर्थन से राग की उत्पत्ति होती है। असहयोग से राग-द्वेष का नाश होता है। अतएव अपने आप होने वाले व्यर्थ-चिन्तन से असहयोग रखना है और कुछ नहीं।"

''बलपूर्वक मानसिक हलचल को रोकने के प्रयास में व्यक्ति अधिकाधिक श्रमित होता है। व्यर्थ-चिन्तन को किसी सार्थक-चिन्तन द्वारा दबाने का प्रयास करने से व्यर्थ-चिन्तन का नाश नहीं होता। यह भी एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिन मानसिक क्रियाओं को अन्य क्रिया के द्वारा दबा दिया जाता है,वे मिटती नहीं है; और भी अधिक वेग से प्रकट होना चाहती है और होती भी है। इस संघर्ष में मानसिक शक्ति की बड़ी क्षति होती है,विश्राम नहीं मिलता।"

व्यर्थ-चिन्तन भी एक अवस्था है। यद्यपि व्यक्ति की भूल से यह उत्पन्न हुआ है,फिर भी साधक के जीवन में उससे क्षुब्ध होने का कोई कारण नहीं है,प्रत्युत् उसका भी उपयोग है।"

व्यर्थ-चिन्तन का उपयोग क्या है, इसके बारे में आगे बताया है कि-

''उसका अध्ययन कीजिए। साधन की प्रारम्भिक अवस्था में,विश्राम-काल में जब मानसिक हलचल होने लगे और आप उससे असहयोग न कर सकें,तो दो-दो,चार-चार मिनट बाद कुछ क्षणों के लिए अन्तर्निरीक्षण कीजिए और देखिये कि व्यर्थ-चिन्तन में आपके भूत के और भविष्य के कौन-कौन से चित्र मानस पटल पर आ रहे हैं। आप पायेंगे कि

(1) व्यर्थ-चिन्तन आपकी डायरी है। उससे विदित होता है कि भूतकाल में आपने क्या-क्या किया है और भविष्य में क्या-क्या करना चाहते हैं। उसके अध्ययन से अपने जाने हुए असत् के संग का ज्ञान होगा। उसका त्याग कर दीजिये। नवीन प्रभावों का अंकित होना बन्द हो जायेगा। भूतकाल की घटनाओं के अर्थ को अपनाकर घटनाओं को भूल जाइये। वर्तमान में उसका अस्तित्व नहीं है,इसलिए भूतकाल की भूल को न दोहराने का व्रत लेने से ही वर्तमान निर्दोषता सुरक्षित हो जाती है।

(2) व्यर्थ-चिन्तन के अध्ययन से आपको यह भी पता चलेगा कि भविष्य में आप क्या-क्या करना चाहते हैं। उनमें जो आवश्यक कार्य जमा हों, उनको जान लीजिये तथा प्रवृत्ति-काल में उन्हें कर डालिये। जो कर्म सापेक्ष है वह चिन्तन से प्राप्त नहीं होता।' इसलिए जो विवेक और सामर्थ्य के अनुरूप वर्तमान आवश्यक कार्य हो, उसे कर डालिये। उसके चिन्तन से मुक्ति मिलेगी।"

''अनावश्यक कार्य,अर्थात् जिसे नहीं कर सकते और जो नहीं करना चाहिए,उसके करने का विचार छोड़ दीजिये। उसके चिन्तन से भी मुक्ति मिलेगी।"

''जो करना चाहिए,पर आप नहीं कर सकते,ऐसे सामर्थ्य-विरोधी शुभ संकल्पों को प्रभु के अथवा जगत् के संकल्प से मिलाकर आप निश्चिन्त हो जाइये,विश्राम मिलेगा। इस प्रकार व्यर्थ चिन्तन के अध्ययन एवं उसके मूल में जो अपनी भूल हो,उसके त्याग के द्वारा विश्राम लीजिये।"

''परन्तु इस बात में सावधान रहना है कि व्यर्थ-चिन्तन के अध्ययन को मूक-सत्संग न मान लिया जाय,इस प्रक्रिया में तल्लीन न हुआ जाय। इसको व्यर्थ चिन्तन के नाश का सहायक अंग माना जाय। मुख्य उपाय तो असहयोग रखना ही है,क्योंकि व्यर्थ-चिन्तन कोई करता नहीं है,वह तो अपने आप होता है। जो अपने आप होता है,जिसे हम करते नहीं है, उससे अपना कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये उससे असहयोग रखना अनिवार्य है। हमारा सहयोग पाकर ही वह पोषित होता रहता है। अत: हमारे असहयोग से उसका नाश स्वत: होता है। ......... एक रहस्य समझ लेना है कि व्यर्थ-चिन्तन श्रम नहीं है; व्यर्थ-चिन्तन से उलझ पड़ने में श्रम है। व्यर्थ-चिन्तन हो रहा है शरीर में,विश्राम सम्पादित होगा 'स्व' के द्वारा। शरीर में अपने आप होने वाली क्रिया 'स्व' को क्यों श्रमित करेगी? नहीं कर सकती। परन्तु हम व्यर्थ-चिन्तन से असहयोग नहीं रखते,इसलिये श्रमित होते हैं।"

इस प्रकार,व्यर्थ-चिन्तन एक वह है जो निवृत्ति काल में जब हम भीतर-बाहर से शान्त होकर बैठते हैं तब उत्पन्न होता है,अपने आप हमारे बिना किये,बिना चाहे होता है। इसके स्वरूप और उससे छुट्टी पाने का उपाय ऊपर उध्दरणों में विस्तार से हम लोगों के लिए बताया गया है। इसे अपनाने से विश्राम प्राप्त होगा।

एक और व्यर्थ-चिन्तन है जो स्वयं हमारे द्वारा किया जाता है-निरर्थक,निरुद्देश्य तथा निष्प्रयोज्य। मनोराज्य में लिप्त होते हैं। एक वह भी होता है जो है तो कर्म-सापेक्ष,परन्तु हम उस कार्य को पूरा तो करते नहीं उसका चिन्तन करते रहते हैं। ऐसे व्यर्थ-चिन्तन से भी छुटकारा पाने का सहज उपाय पूर्व प्रस्तरों में समझाया गया है।

प्रश्नोत्तर में, जो प्रारम्भ में उल्लिखित है, स्वामी जी ने बड़े स्पष्ट ढंग से कहा है-

''व्यर्थ-चिन्तन को व्यर्थ करके जानना उसके त्याग में हेतु है।"

उन्होंने,व्यर्थ-चिन्तन का नाश कैसे हो प्रश्न् का एक और प्रकार से समाधान किया है। उन्होंने कहा है कि-

''इसका नाश,नीरसता के नाश से होता है। नीरसता से 'काम' की उत्पत्ति होती है जो सभी दोषों का मूल है। .......नीरसता की भूमि में ही असाधन उत्पन्न होते हैं।"

इससे स्पष्ट है कि जब जीवन में नीरसता रहती है तब व्यर्थ-चिन्तन भी होता है और अनेक असाधन भी होते हैं। अत: नीरसता का नाश आवश्यक है। इसके हेतु स्वामी जी का कथन है कि ''नीरसता का अन्त करने के लिये शान्ति,स्वाधीनता एवं प्रेम की अभिव्यक्ति अनिवार्य है,जो एकमात्र सत्संग से ही सम्भव है।"

अत: जीवन में विश्राम का बहुत महत्व है। विश्राम में ही शान्ति और आगे स्वाधीनता और प्रियता की प्राप्ति होती है। दूसरे शब्दों में योग बोध प्रेम की प्राप्ति होती है जो साधक की मांग और जीवन का लक्ष्य है।
नोट: जिस विश्राम की चर्चा की गई है उसके बारे में स्वामी शरणानंद जी ने कहा है कि ''विश्राम अकर्मण्यता तथा कर्तव्य नहीं है अपितु योग तथा कर्तव्यपरायणता की भूमि है।"