Monday, June 6, 2011

साधन सूत्र-48 :-

-: साधन सूत्र-48 :-

मंगलकारी प्रभु का मंगलमय विधान


ईश्वर ने सृष्टि की रचना की और उसका एक विधान बना दिया। उसी विधान की मर्यादा में सारी सृष्टि चल रही है। प्रभु मंगलकारी हैं और उनका विधान भी मंगलमय है। स्वामी शरणानन्द जी ने 'मंगलमय विधान' नाम से एक पुस्तक लिखवाया, जो मानव सेवा संघ वृन्दावन से प्रकाशित है। विधान की मंगलमयता के सम्बन्ध में एक प्रश्न् और स्वामी जी का उत्तर आगे प्रस्तुत है-

प्रश्न: प्रभु का हर विधान मंगलमय है-यह बात कैसे समझ में आये?

उत्तर: ''यह श्रध्दा का विषय है। साधक को आस्था और पूर्ण विश्वास हो जाने से एक बड़ा लाभ यह होता है कि उसे प्रभु का बल मिलता है। प्रभु परम दयालु हैं, क्रूर नहीं, परम शान्त हैं,क्रोधी नहीं। प्रभु सदा सजग हैं,वहाँ भूल नहीं होती। हमारी भलाई का जितना हमें ज्ञान है,उन्हें उससे अधिक ज्ञान है। जो काम नहीं करना है उसे भी हम कर लेते हैं और चाहते यह हैं कि ईश्वर से सब प्रकार की सुविधा मिले। जैसे-सूर्य का प्रकाश, श्वाँस लेने के लिए वायु,पीने के लिए जल और धरती माता का आश्रय हमें निरन्तर मिल रहा है। जो इतने उदार व कृपालु हैं, वे हमारे लिये कठोर विधान कैसे बना सकते हैं।''

''इस प्रकार चिन्तन करते रहने से उनके मंगलमय विधान में श्रध्दा उत्पन्न हो जाती है। विधान में तीन बातें होती हैं-जानना, मिलना और होना, यदि हम जाने हुए का आदर, मिले हुए का सदुपयोग करने लग जायें तो जो होने वाला है वह मंगलमय ही होगा। करने में सावधान रहने से होने में प्रसन्न रहने की योग्यता आ जाती है।''

प्रो0 देवकी जी, जिनको स्वामी शरणानन्द जी ने कालान्तर में उनके साधन-पथ की मंजिल पार करने पर नया नाम दिव्य-ज्योति प्रदान किया, ने 'मंगलमय विधान' पुस्तक में परिचय (preface) में स्वामी जी के सम्पर्क में आने के पूर्व की अपनी दशा और स्वामी जी की प्रेरणा से साधन पथ पर चल पड़ने के उपरांत की अपनी दशा का वर्णन इस प्रकार किया है:-

''एक समय था जब सृष्टि का विधान मुझे अपनी जरुरत के सर्वथा विपरीत प्रतीत होता था। घटना-चक्र का आशातीत गति से घूमते रहना,अनुकूलता का प्रतिकूलता में बदल जाना, प्रिय संयोग के सुख का दुस्सह वियोग के दु:ख में बदल जाना..... और अपना वह विवश चित्र-ठगी ठगी सी हत्बुध्दि हो देखते का देखते रह जाना-बड़ा ही क्रूर प्रतीत होता था। कोमल हृदय की कोमल भावनायें नियति के कठोर थपेड़ों से चकनाचूर हो जातीं और घायल हृदय के विवश क्षोभ की आवाज सुनाई देती-कौन है सृष्टि का मालिक? कौन है मेरा निर्माता? क्या मजा आता है उसको सृष्टि बनाने में और व्यक्ति को इतना विवश और दु:खी करके रखने में कि वह जो चाहता है सो होता नहीं,जो होता है सो भाता नहीं और जो भाता है वह रहता नहीं? यह भी कोई लीला है जिसमें कोई तड़प-तड़प कर जीने के लिए बाध्य हो और किसी का खेल चले?''

"पर धन्‍य है सृष्टि का करूणामय विधायक और धन्‍य है उसका मंगलमय विधान। मुझमें विद्रोह उठता रहा और उसमें प्यार उमड़ता रहा, जिसका मिठास मैं आज अनुभव कर रही हूँ......।''

पुस्तक के 'परिचय' में उन्होंने थोड़े में ईश्वर के विधान की मंगलमयता का जो वर्णन किया है उसके कुछ उध्दरण प्रस्तुत हैं:-

''वस्तुत: जो व्यक्ति का किया हुआ नहीं है, विधान से स्वयं हो रहा है, वह किसी भी प्रकार किसी के लिए अहितकर नहीं है।.....उदाहरार्थ निम्नलिखित स्वत: होने वाली वैधानिक बातों पर विचार करें-

प्रत्येक उत्पत्ति का विनाश हो रहा है।

प्रत्येक संयोग वियोग में बदल रहा है।

प्रत्येक जन्म मृत्यु में बदल रहा है।

प्रत्येक प्रवृत्ति से सामर्थ्य का हा्रस हो रहा है।''

''सारांश में यह कि प्रतीति में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। इसका कर्ता कोई व्यक्ति नहीं है। यह सब किसी विधान से स्वत: हो रहा है। जिस विधान से यह सब हो रहा है उसी विधान से व्यक्ति को विवेक का प्रकाश मिला है। उस प्रकाश में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि जो प्रतीत हो रहा है उसमें अनवरत गति है। अत: उसका अस्तित्व सिध्द नहीं होता। फिर भी हम यदि प्रतीति का आश्रय लेकर जीना चाहते हैं तो यह विवेक का अनादर है। यह अपनी भूल है। 'प्रतीति में स्थायित्व नहीं है',इस वैधानिक तथ्य के प्रति सजग होते ही विचारों और भावों का प्रवाह चलने लगता है। प्रतीति से अतीत जीवन की खोज तथा प्रतिपल नये-नये रूप धारण करने वाले दृश्यों की लुभावनी कलाकृति के कुशल कलाकार में आस्था आरम्भ हो जाती है। खोज के द्वारा उससे अभिन्न होकर,आस्था के द्वारा उसकी प्रीति होकर मानव कृतकृत्य हो जाता है। अत: जो कुछ हो रहा है मंगलमय विधान से ही हो रहा है।''

कोई यह प्रश्न् कर सकता है कि आखिर ईश्वर ने ऐसा विधान ही क्यों बनाया जिसमें प्रत्येक उत्पत्ति का विनाश हो रहा है,प्रत्येक जन्म मृत्यु में बदल रहा है आदि ?परन्तु यह प्रश्न्कर्ता को भी स्पष्ट होगा,थोड़ा विचार करने पर कि यदि यह विधान नहीं बना होता और जन्म ही जन्म होता मृत्यु न होती तो पृथ्वी पर जन्म लेने वालों को पैर रखने की भी जगह नहीं मिलती। 'प्रतीति' में स्थायित्व होता तो सब कुछ घिसा-पिटा,नीरस और उबाऊ होता (Stale and uninteresting)।

इसलिए देवकी बहन जी ने कहा है कि ''उत्‍पत्ति के मूल में किसी का संकल्‍प है।इस दृष्टि से भी अव्‍यक्‍त जब व्‍यक्‍त हुआ है, तो इस व्‍यक्‍त रूप का नयापन बना रहे, अविछिन्‍नता(continuity) बना रहे, इसके लिए निरन्‍तर परिवर्तन अनिवार्य हैा परिवर्तन की अनिवार्यता पर दृष्टि जाते ही 'जो हो रहा है' वह स्‍वाभाविक लगने लगता है्.....।''

पुस्तक में विधान के मंगलमय होने के अनेक चमत्कारिक उदाहरणों का होना बताते हुए उन्होंने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है:

''मानव के जीवन में सामर्थ्य के सदुपयोग से जो विकास होता है, असमर्थता की पीड़ा से भी वही विकास होता है। कैसा अनुपम विधान है जिसमें सामर्थ्यवान और असमर्थ दोनों का हित समान रूप से निहित है।''

मानव जीवन के एक अन्य पहलू को लेकर पुस्तक के 'परिचय' में उन्होंने कहा है कि- ''व्यक्तिगत भिन्नता एक प्राकृतिक तथ्य है।..... साथ ही माँग की दृष्टि से मानव-मात्र एक है,इसलिए कि शान्ति,स्वाधीनता और प्रेम सभी को चाहिये।इस माँग की पूर्ति का ऐसा अद्भुत विधान है कि रुचि,योग्यता एवं परिस्थितियों की भिन्नता कोई अर्थ नहीं रखती,कारण कि माँग की पूर्ति श्रम-रहित होने में है। श्रम करने में सभी एक दूसरे से भिन्न हैं,परन्तु श्रम-रहित होने पर सभी एक हैं। इस दृष्टि से जीवन की माँग की पूर्ति में सभी समान रूप से स्वाधीन एवं समर्थ हैं। जिस विधान से उन्हें यह स्वाधीनता एवं सामर्थ्य मिली है वह मंगलमय है''

इसी पुस्तक में स्वामी जी का कथन है कि-

''आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति मंगलमय विधान से स्वत: होती है। कर्तव्यनिष्ठ के लिए आवश्यक सामर्थ्य और जिज्ञासा-पूर्ति के लिए विचार का उदय एवं शरणागत में प्रीति का उदय स्वत:मंगलमय विधान से होता है। प्राप्त सामर्थ्य का दुरुपयोग करने पर ही मानव असमर्थता में आबध्द होता है। सामर्थ्य का सदुपयोग करने पर आवश्यक सामर्थ्य बिना ही माँगे प्राप्त होती है। इतना ही नहीं,असमर्थता की व्यथा में भी विकास निहित है,यह मंगलमय विधान है।''

अन्त में देवकी बहन जी ने एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। उन्होंने लिखा है:-

''जो व्यक्ति का किया हुआ नहीं है, अपने आप ही हो रहा है, जिसका सामना करने के लिए व्यक्ति बाध्य है,उसके सम्बन्ध में जिज्ञासा स्वाभाव से ही होती है। जो विधान से हो रहा है,उसका ठीक अभिप्राय न समझने के कारण अनेक भ्रमात्मक धारणायें उसके सम्बन्ध में व्यक्ति बना लेता है, विधान और विधायक को कोसता है और अपने विकास में अपने को विवश मान लेता है। इससे उसका जीवन निष्फल हो जाता है। अत: अपने जीवन के विधान के सम्बन्ध में स्पष्ट परिचय सभी के लिए अत्यन्त आवश्यक है।''

मंगलकारी प्रभु का विधान मंगलमय होना ही है। ऐसे महान करुणामय प्रभु की हम सभी शरणागति अपनायें, इसी में हमारा कल्याण है।

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