Wednesday, June 8, 2011

-: साधन सूत्र-51 :-

-: साधन सूत्र-51 :-

जीवनोपयोगी संत-वचन (भाग-2)


साधन-सूत्र-50 में स्वामी शरणानन्द जी के जीवनोपयोगी कुछ वचन जो प्रश्नोत्तर के रूप में है, प्रस्तुत किया गया। उसी क्रम में साधन-पथ के लिए कुछ और सामग्री (पाथेय) प्रस्तुत है:-

1. मानव सेवा संघ दर्शन में हमने अनेक बार सुना है कि 'अपना कल्याण और सुन्दर समाज का निर्माण' या अपने को सुन्दर बनाओ सुन्दर समाज का निर्माण स्वत: होगा।' इस बिन्दु को स्वामी शरणानन्द जी ने निम्नलिखित प्रश्नोत्तर में इस प्रकार स्पष्ट किया है:-

प्रश्न्: मानव सेवा संघ का उद्देश्य क्या है?

उत्तर:  मानव  सेवा  संघ  का  उद्देश्य  मानव  का  अपना  कल्याण  और  सुन्दर समाज का निर्माण है। अपने कल्याण का अर्थ है अपनी प्रसन्नता के लिए 'पर' की आवश्यकता न रहे। सुन्दर समाज का अर्थ है ऐसे समाज का निर्माण जिसमें सभी के अधिकार सुरक्षित हों, किसी के अधिकार का अपहरण न होता हो। इस उद्देश्य की पूर्ति दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने अधिकार के त्याग से होती है। दूसरों के अधिकार की रक्षा करने से सुन्दर समाज का निर्माण और विद्यमान राग की निवृत्ति होती है और अपने अधिकार के त्याग से नवीन राग की उत्पत्ति नहीं होती है।

नोट: अपने नित्य अविनाशी रसरूप जीवन की प्राप्ति के लिए राग-रहित जीवन में साधन की अभिव्यक्ति होती है।

2. मानव सेवा संघ दर्शन में मानव की जो व्याख्या की गई है उसके अनुसार ''मानव किसी आकृति विशेष का नाम नहीं है। जो प्राणी अपनी निर्बलता एवं दोषों को देखने और उन्हें निवृत्त करने में समर्थ (तत्पर) है, वही वास्तव में 'मानव' कहा जा सकता है।'' फिर कहा गया है कि  प्रत्येक  मानव  की  सार्विक  (universal)  मांग   होती   है - शान्ति,स्वाधीनता और प्रेम की। एक साधक ने इसी की प्राप्ति के सम्बन्ध में स्वामी जी से प्रश्न् किया:


प्रश्न्: मांग कैसे पूरी हो सकती है?

उत्तर: मांग तीन प्रकार से होती है। कामना को लेकर,लालसा को लेकर तथा जिज्ञासा को लेकर। भोगों की कामना,सत्य की जिज्ञासा और प्रभु प्रेम की लालसा। जिज्ञासा कहते हैं जानने की इच्छा को,लालसा कहते हैं पाने की इच्छा को और कामना कहते हैं भोगों की इच्छा को। जिसमें भोग की कामना सत्य की जिज्ञासा और परमात्मा की लालसा होती है उसे 'मैं' कहते हैं। कामना भूल से उत्पन्न होती है,उसकी निवृत्ति हो सकती है। जिज्ञासा और लालासा स्वभाव से ही उत्पन्न है, उसकी पूर्ति हो जाती है। अत: कामना की निवृत्ति, जिज्ञासा की पूर्ति और परमात्मा की प्राप्ति मनुष्य को हो सकती है।

3. किसी साधक ने सेवा, त्याग, प्रेम के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रश्न् किया, वह और उसका उत्तर उध्दरित है:-

प्रश्न्: मानव सेवा संघ के दर्शन में सेवा, त्याग और प्रेम की बात कही जाती है। इसमें से किसी एक को लेकर चला जाय या तीनों को?

उत्तर: हर मानव को तीन शक्तियाँ विधान से मिली हैं:-

(1) करने की शक्ति (कर्तव्य)

(2) जानने की शक्ति (ज्ञान)

(3) मानने की शक्ति (विश्वास)

इन तीनों शक्तियों में से किसी एक शक्ति की प्रधानता होती है। अत: साधक में जिस शक्ति की प्रधानता हो उसको लेकर चलना चाहिये। शेष दोनों शक्तियों का विकास अपने आप हो जायेगा। साधक चाहे तो तीनों साथ साथ लेकर भी चल सकता है।

4. साधन-सूत्र-33 शीर्षक 'सेवा अर्थ और स्वरूप' में सेवा के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है। मानव सेवा संघ के ग्यारह नियमों में सातवाँ नियम है: निकटवर्ती जन समाज की यथाशक्ति क्रियात्मक रूप से सेवा करना।' एक साधक ने इसी के अर्थ के बारे में स्वामी जी से प्रश्न् किया-

प्रश्न्: निकटवर्ती जनसमाज की यथाशक्ति क्रियात्मक सेवा करने का क्या अर्थ है?

उत्तर: सेवा दो प्रकार की होती है-एक क्रियात्मक दूसरी भावात्मक। भावात्मक सेवा असीम होती है और अपनी शक्ति के अनुसार जिन व्यक्तियों से अपना माना हुआ सम्बन्ध है, उनकी क्रियात्मक सेवा की जा सकती है। अत: जो समाज हमारे समीप है यथाशक्ति उसकी क्रियात्मक सेवा करने की बात कही गई है। सबसे निकट हमारा शरीर है, उसके बाद परिवार के सदस्य अन्य सम्बन्धी, पड़ोसी इत्यादि आते हैं।

नोट: शरीर की सेवा का क्या अर्थ है, इसका उल्लेख साधन-सूत्र-15 शीर्षक 'साधक-साधन और साध्य' में किया गया है।

5. साधन-सूत्र-27 शीर्षक 'क्‍या सुख-भोग ही जीवन है' में यह चर्चा की गयी है कि दु:ख का भोग से बचने के लिए उन कामनाओं जिनकी अपूर्ति और जिन वासनाओं के कारण (जैसे नेत्र-हीन हैं तो देखने की वासना) दु:ख हो रहा है, उनका त्याग करना है। इसी को स्वामी जी ने एक प्रश्न् के उत्तर में बड़े सहज ढंग़ से स्पष्ट किया है:-

प्रश्न्: मानव  सेवा  संघ  की  पहली  प्रार्थना  में  यह  कहा जाता है कि दु:खियों के हृदय में त्याग का बल प्रदान करें। दु:खी बेचारा क्या त्याग करेगा?

उत्तर: जब मनुष्य कुछ चाहता है और उसका चाहा हुआ, नहीं होता है, तो वह दु:ख का अनुभव करता है। इससे सिध्द हुआ कि दु:ख का कारण 'चाह' है। अत: अगर दु:खी दु:ख से छुट्टी पाना चाहता है तो उसे चाह का त्याग कर देना चाहिये। चाह का त्याग करने में मानव मात्र स्वाधीन है।

नोट: इसी प्रकार के प्रश्न् के उत्तर में स्वामी जी ने कहा कि जब बचपन में मेरी ऑंखें चली जाने से जो दु:ख आया,उस मेरे दु:ख को सारी सृष्टि भी मिलकर दूर नहीं कर सकती थी,यदि मैंने देखने की वासना का त्याग नहीं किया होता।

6. प्रेम की प्राप्ति के लिए प्रभु को अपना मानने की बात कही गई है। अपना अपने को प्यारा लगता ही है। इसी विषय को स्वामी जी ने निम्नलिखित ढंग से भी समझाया है:-

प्रश्न:  प्रेम की प्राप्ति कैसे हो?

उत्तर: ''यदि  भगवान  के  पास  कामना  लेकर  जायेंगे  तो भगवान संसार बन जायेंगे और संसार के पास निष्काम होकर जायेंगे तो संसार भी भगवान बन जायेगा। अत: भगवान के पास उनसे प्रेम करने के लिए जाएँ और संसार के पास सेवा के लिए,और बदले में भगवान और संसार दोनों से कुछ न चाहें तो दोनों से ही प्रेम मिलेगा। प्रेम के अतिरिक्त इस जगत में और कुछ सार वस्तु है ही नहीं।''

7. हम सब का अनुभव है कि हमें जीवन में रस की माँग है। जीवन में नीरसता जब होती है तब हम सांसारिक वस्तुओं में,भोग में रस ढूंढ़ते हैं। परन्तु इन्द्रिय सुख भले मिल जाये,रस नहीं मिलता और नीरसता,रस की तृष्णा वैसी ही बनी रहती है। स्वामी शरणानन्द जी ने बताया है कि रस कहाँ मिलेगा और कितने प्रकार का होता है:-''रस चार प्रकार के हैं- (क) उदारता का रस (ख) शान्ति का रस (ग) स्वाधीनता का रस और (घ) प्रेम का रस। दु:खी को देखकर करुणित होना और सुखी को देखकर प्रसन्न होना-यह उदारता का रस है। अचाह होकर शान्त होने में शान्ति का रस है। अपने में सन्तुष्ट होकर स्वाधीन होने में स्वाधीनता का रस है और प्रभु को अपना मानकर उनका प्रेमी होने में प्रेम का रस है।''

8. साधन-सूत्र-37 में व्यर्थ चिन्तन क्या है और उससे मुक्ति कैसे हो सकती है कि चर्चा की गई है। उसमें एक शब्द 'सार्थक चिन्तन भी आया था। स्वामी जी का इस विषय पर एक प्रश्नोत्तर प्रस्तुत है:-

प्रश्न्:  व्यर्थ-चिन्तन और सार्थक-चिन्तन क्या है?

उत्तर: जो वर्तमान का कार्य नहीं है बल्कि भूत का याद है, वही व्यर्थ चिन्तन है। प्राप्त के सदुपयोग के लिए जो भी कुछ किया जाता है वह सार्थक चिन्तन है। व्यर्थ चिन्तन से प्राणशक्ति क्षीण होती है और सार्थक-चिन्तन संसार के काम आता है। दोनों में जीवन नहीं है। स्मृति में जीवन है। चिन्तन और स्मृति अलग-अलग है। स्मृति में प्रियता उमड़ती है। जिसमें स्मृति जगती है तथा जिसकी होती है, वे दोनों एक हो जाते हैं। स्मृति में प्रेम का प्रादुर्भाव होता है। आनन्द बढ़ता ही जाता है। स्मृति का नाम ही भजन है।

एक साधक द्वारा पूछने पर कि व्यर्थ-चिन्तन का नाश कैसे हो, स्वामी जी ने बताया:-

''नीरसता का नाश होने पर व्यर्थ-चिन्तन का नाश हो जाता है। नीरसता का नाश असंगता, उदारता एवं प्रियता से हो जाता है।''

9. 'साधन' की चर्चाओं में अनेक बार 'असंगता' शब्द आया है जिसका अर्थ 'सम्बन्ध-शून्यता' बताया गया है। स्वामी जी के एक प्रश्नोत्तर से यह और स्पष्ट होता है:-

प्रश्न्:  असंगता किसे कहते हैं और उसकी प्राप्ति के क्या उपाय हैं?

उत्तर: असंगता का अर्थ है-जगत से अपने को अलग अनुभव करना (जो जगत का दृष्टा है वह जगत नहीं हो सकता)। सहयोग न देने से स्थूल शरीर से,इच्छा रहित होने से सूक्ष्म शरीर से और अप्रयत्न होने से कारण शरीर से असंगता प्राप्त होती है। तीनों शरीरों से असंग होते ही योग की सिध्दि हो जाती है, जो बोध और प्रेम से ओत-प्रोत है।

10. इसी प्रकार साधन की चर्चा में 'काम' शब्द आता है। 'काम' का व्यापक अर्थ क्या है इसको समझना आवश्यक है। नीचे एक प्रश्नोत्तर महत्वपूर्ण है:-

प्रश्न्:  'काम' का क्या अर्थ है और उसके नाश के क्या उपाय हैं?

उत्तर: ''वस्तु,व्यक्ति परिस्थिति एवं अवस्था के प्रति आकर्षण को 'काम' कहते हैं, अर्थात् 'नहीं' के आकर्षण का नाम ही 'काम' है।

'नहीं' के अस्तित्व को अस्वीकार करने से और 'है' (प्रभु) के अस्तित्व को स्वीकार करने से 'काम का नाश हो जाता है और राम मिल जाते हैं।''

11. साधन-सूत्र-29 शीर्षक 'दुख है क्या' में कहा गया था कि हमारे कर्मों से भाग्य बनता है,और भाग्य से परिस्थितियाँ बनती हैं। इसी को लेकर एक साधक ने प्रश्न् किया जिसका उत्तर स्वामी जी ने इस प्रकार दिया:-

प्रश्न्: जब  सभी  परिस्थितियाँ  भाग्य  से  निर्मित  हैं  तो मानव जीवन में कुछ करने का महत्व क्या है?

उत्तर: ''यह  सही  है  कि  सभी  परिस्थितियों  का  निर्माण  भाग्य से होता है परन्तु उनका सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करने की स्वाधीनता मानव मात्र को मिली है। दूसरी बात,हम किये बिना रह नहीं पाते,क्योंकि करने का राग हममें विद्यमान है। इस विद्यमान राग की निवृत्ति के लिए आवश्यक कार्य सद्भावना पूर्वक लक्ष्य पर दृष्टि रखते हुए, पूरी शक्ति लगाकर शुध्द भाव से करना चाहिये, जिससे करने के राग की निवृत्ति हो जाय।''

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