-: साधन सूत्र-50 :-
जीवनोपयोगी संत-वचन भाग-1
जीवनोपयोगी संत-वचन भाग-1
मानव सेवा संघ के प्रणेता ब्रहम-निष्ठ,क्रान्त-दर्शी,प्रज्ञा-चक्षु संत स्वामी शरणानन्द जी द्वारा प्रदत्त दर्शन के कुछ उध्दरण नीचे प्रस्तुत हैं जो अनमोल रत्न के समान हैं जिन्हें धारण करके हम अपने जीवन को सुन्दर और आनन्दमय बना सकते हैं। इस साधन-सूत्र के पहले जीवन संबंधी अनेक विषयों पर साधन-सूत्र के रूप में जो चर्चा हुई है उनके लिये अब प्रस्तुत उध्दरण में से कई पूरक के रूप में उपयोगी होंगे और सभी वास्तविक नित्य,अविनाशी,रसरूप जीवन की प्राप्ति के लिये मार्गदर्शक और प्रेरणादायक सिध्द होंगे। अधिकांश प्रश्नोत्तर के रूप में हैं जिन्हें इस साधन सूत्र-50 और अगले साधन सूत्र-51 में उल्लेख किया जा रहा है:-
1. प्रश्न्: स्वामी जी बोध किसे कहते हैं?
उत्तर: यह सब सृष्टि, ब्रह्मा, विष्णु, महेश सब कुछ मैं ही हूँ। यह है बोध, यानि बोध में अहम विभू हो जाता है।
नोट: मानव जीवन की मांग या लक्ष्य, योग-बोध-प्रेम बताया गया है। उसी बोध शब्द का अर्थ स्पष्ट किया गया है।
2. प्रश्न्: चेतना क्या है?
उत्तर: चेतना सूर्य के समान है जो स्वयं प्रकाशित है और जिससे जड़ पदार्थ प्रकाशित होते हैं।
नोट: पहले एक प्रसंग में जड़ता का अर्थ लिखा गया था- अपने स्वरूप की विस्मृति' वही दूसरे शब्दों में-
3. प्रश्न्: जड़ क्या है,
उत्तर: जो दूसरों की सत्ता से प्रकाशित हो, जो स्वाधीन न हो और जो पराधीन हो वह जड़ है।
4. प्रश्न्: आनन्द क्या है?
उत्तर: जो होकर कभी मिटे नहीं। जिसके मिलने पर फिर कुछ और पाने की इच्छा न रहे, वही आनन्द है।
5. प्रश्न्: महाराज जी जीवन-मुक्त कौन है?
उत्तर: जो ईमानदार है और ईमानदार वही है जो संसार की किसी भी चीज को अपना नहीं मानता है।
6. प्रश्न्: जीवन मुक्ति का स्वरूप क्या है?
उत्तर: इच्छायें रहते हुए प्राण चले जायें, मृत्यु हो गई, फिर जन्म लेना पड़ेगा और प्राण रहते इच्छायें चली जायें,मुक्ति हो गई। जैसे बाजार गए पर पैसे समाप्त हो गए और जरूरत बनी रही तो फिर बाजार जाना पड़ेगा और यदि पैसे रहते जरूरत समाप्त हो जाये तो बाजार काहे को जाना पड़ेगा।
7. प्रश्न्: स्वाधीन जीवन से क्या तात्पर्य है?
उत्तर: जिस व्यक्ति को अपनी प्रसन्नता के लिये दूसरों की ओर देखना नहीं पड़ता, उसी का जीवन स्वाधीन है।
8. प्रश्न्: सबसे बड़ी बुराई क्या है?
उत्तर: पराधीनता को पसन्द करना सबसे बड़ी बुराई है। पराधीन बने बिना कोई भी सुख भोग नहीं सकता। अत: पराधीनता-जनित सुख का भोग सबसे बड़ी बुराई है,जिसका जन्म,जो अपना नहीं है उसको अपना मानने से और जो अपना है, उसे अपना न मानने से होता है।
नोट: एक अन्य अवसर पर उन्होंने इसी को दूसरे ढंग से समझाया है।
9. प्रश्न्: बुराई क्या है?
उत्तर: हमारे स्वाधीन होने में जो बाधक होवे,हमारे उदार होने में जो बाधा डाले और हमारे प्रेमी होने में जो बाधा डाले, वही बुराई।
10. प्रश्न्: बुराई रहित होने का क्या उपाय है?
उत्तर: ईश्वर के नाते सभी को अपना मानना बुराई रहित होने का सुगम उपाय है, क्योंकि अपने के साथ कोई बुराई नहीं करता।
11. प्रश्न्: मरने से क्यों डर लगता है?
उत्तर: प्राण-शक्ति के नाश हो जाने और वासनाओं के शेष रह जाने का ही नाम मृत्यु है। यदि प्राण शक्ति के रहते सर्व वासनाओं का नाश हो जाये तो मरने से डर नहीं लग सकता हैं।
नोट: सर्व वासनाओं में जीने की चाह भी शामिल है। जब तक जीना है तब तक जीयेंगे ही, परन्तु चाह रहित होकर जीयेंगे तो मृत्यु का भय नहीं सतायेगा।
12. प्रश्न्: असत् क्या है?
उत्तर: असत् वही है जिसे आप अपने प्रति नहीं करना चाहते। जब अपने साथी को बेईमान नहीं देखना चाहते तो हम जिसके साथ रहते हैं या व्यवहार करते हैं, उनके प्रति ईमानदार बनें।
13. प्रश्न: विवेक और बुध्दि में क्या अन्तर है?
उत्तर: विवेक प्रकाश है और बुध्दि दृष्टि है। जैसे चक्षु-इन्द्रिय सूर्य के प्रकाश में कार्य करती हे,वैसे ही बुध्दि विवेक के प्रकाश में कार्य करती है। विवेक का आदर करने से बुध्दि विवेकवती हो जाती है। उस बुध्दि की बड़ी महिमा है।
14. प्रश्न्: क्या साधन करने के लिए घर गृहस्थी आदि छोड़ना आवश्यक है?
उत्तर: साधन के निर्माण के लिए सत्संग करना आवश्यक है, किसी परिस्थिति विशेष का कोई अर्थ नहीं है। सत्संग करने में मानव मात्र हर परिस्थिति में समान रूप से स्वाधीन है।
15. प्रश्न्: गृहस्थ जीवन में रहते हुए साधन सम्बन्धी बातें बहुत कठिन मालूम पड़ती हैं, क्या किया जाय?
उत्तर: गृहस्थ जीवन, वास्तविक जीवन की एक प्रयोगशाला है। यदि हम दूसरों के अधिकारों की रक्षा करते हुए अपने अधिकार का त्याग कर दें तो पूरा गृहस्थ जीवन साधन-युक्त हो जायेगा और किसी प्रकार की कठिनाई मालूम नहीं पड़ेगी। परन्तु हम भूल के कारण अपने अधिकारों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं, फलत: गृहस्थ जीवन में कठिनाई मालूम होती है।
16. प्रश्न्: सर्व दु:खों की निवृत्ति कैसे हो सकती है?
उत्तर: इच्छा पूर्ति में सुख और अपूर्ति में दु:ख का अनुभव होता है। अत: इच्छा रहित होने से दु:ख की निवृत्ति हो जाती है जो विवेक का आदर करने से साध्य है।
17. प्रश्न्: दु:ख का आना मानव के लिए पतित अथवा पापी होने का परिचय है क्या?
उत्तर: दु:ख का आना पतित होने का फल नहीं है। दु:ख तो भोग की आसक्ति को मिटाने के लिए आता है।
18. प्रश्न्: भय और दरिद्रता का नाश कैसे हो?
उत्तर: ममता छोड़ने से भय और कामना छोड़ने से दरिद्रता का नाश हो जाता है।
नोट: एक अवसर पर स्वामी जी ने कहा कि 'देहाभिमान में ही समस्त भय निहित है'।
19. प्रश्न्: लोभ और मोह का नाश कैसे हो?
उत्तर: मिले हुए को अपना और अपने लिए न मानने से लोभ और मोह का नाश होता है। मोह का नाश होने से भय का नाश होता है और लोभ का नाश होने से दरिद्रता का नाश होता है।
20. प्रश्न्: मिले हुए को अपना न मानने का क्या अर्थ है?
उत्तर: मिले हुए के द्वारा सुख भोगने की आशा न रखना अपितु उसके द्वारा दूसरों की सेवा करना।
21. साधन-पथ के लिए स्वामी जी द्वारा प्रदत्त एक अन्य महत्वपूर्ण सूत्र:-
(i) जिसके न होने की वेदना है, वह होने लगता है और जिसके होने की वेदना है, वह अपने आप मिट जाता है।
(ii) निर्बलताओं को मिटाने के लिए व्याकुलतापूर्वक प्रेम-पात्र से प्रार्थना करो।''
नोट: ''निर्बलताओं का अर्थ है जिस कारण से चाहते हुए भी जो करना चाहिये उसे करते नहीं, और जो नहीं करना चाहिये उसको छोड़ते नहीं।''
22. थोड़े शब्दों में जीवन का पूरा सिध्दान्त:-
(i) ''प्राप्त में ममता नहीं, प्राप्त का दुरुपयोग नहीं और अप्राप्त की कामना नहीं। बस, कर्तव्यपरायणता असंगता और स्थिरता आ जायेगी। विचार की दृष्टि से वस्तु मेरी नहीं,कर्म की दृष्टि से वस्तु का दुरुपयोग नहीं और भाव की दृष्टि से सब कुछ प्रभु का है।''
(ii) ''बुराई रहित हो जाओ, भलाई होने लगेगी। ममता, कामना छोड़ दो, शान्ति मिल जायेगी। अह्म का अभिमान गला दो,स्वाधीन जीवन मिल जायेगा। प्रभु को अपना मान लो, ध्यान-भजन-पूजन स्वत: होगा।
23. मानव सेवा संघ दर्शन पर आधारित एक सूत्र:-
हमें अपने बारे में पूरा ज्ञान होता है,परन्तु दूसरों के बारे में हमारा ज्ञान हमेशा अधूरा रहता है। इसलिये अधूरे ज्ञान के आधार पर किसी को बुरा मान लेने का हमें अधिकार नहीं है।
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